विस्तार के पीछे चीन की मंशा ब्रिक्स को पश्चिम के विरुद्ध एक भू-राजनीतिक संगठन के रूप में ढालने की है जबकि मूल रूप से यह आर्थिक सहयोग का एक मंच रहा है। चूंकि रूस भी इस समय पश्चिमी देशों के रवैये से परेशान है तो संभव है कि उसे इस पर कोई आपत्ति न हो लेकिन ब्राजील भारत और दक्षिण अफ्रीका ऐसे किसी खेल का हिस्सा नहीं बनना चाहेंगे।
हर्ष वी. पंत : इस समय अंतरराष्ट्रीय ढांचा व्यापक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। इस कड़ी में दक्षिण अफ्रीका में आयोजित हो रहे ब्रिक्स शिखर सम्मेलन पर पूरी दुनिया की निगाहें लगी हुई हैं। भारत भी ब्रिक्स का सदस्य है। शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ एवं जी-20 की अध्यक्षता के दायित्व के साथ वैश्विक मामलों में भारत की महत्ता और बढ़ी है। इसलिए ब्रिक्स बैठक के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व को भी दुनिया बहुत बारीकी से देखेगी।
एक वैश्विक वित्तीय संस्थान की रिपोर्ट में ब्राजील, रूस, भारत और चीन को मिलाकर ‘ब्रिक’ की संकल्पना हुई थी। यह संकल्पना देखते ही देखते अंतरराष्ट्रीय सक्रियता के एक प्रमुख मंच के रूप में विकसित हो गई और अब इसके विस्तार की मांग हो रही है।
ब्रिक की संकल्पना के पीछे विश्व की 40 प्रतिशत जनसंख्या और एक तिहाई आर्थिकी को निर्धारित करने वाले देशों को समूहबद्ध करना था। इन देशों के नीति-नियंताओं को यह विचार जंचा और 2009 में ब्राजील, रूस, भारत और चीन के साथ ब्रिक औपचारिक रूप से अस्तित्व में आया। वर्ष 2011 में दक्षिण अफ्रीका के जुड़ाव के साथ ब्रिक अंतत: ब्रिक्स हुआ। इस एकजुटता के पीछे यही उद्देश्य था कि वैश्विक आर्थिकी में इन देशों का जो योगदान है उस अनुपात में उनकी आवाज नहीं सुनी जाती तो उस स्वर को मुखर किया जाए। इनका उद्देश्य था कि एक साथ आकर वे पश्चिम के नेतृत्व और वर्चस्व वाली वित्तीय प्रणाली के दबदबे को चुनौती देकर वैश्विक आर्थिक प्रणाली को संतुलन प्रदान करेंगे।
ब्रिक्स के अभी तक के सफर को देखें तो अनुभूति होगी कि कुछ दूरी तक सही चलने के बाद उसकी गाड़ी पटरी से उतर गई। इसके सदस्य देशों में अक्सर अंतर्विरोध देखे गए। विशेषकर भारत और चीन के संदर्भ में यह बात सटीक बैठती है। इस कारण भी इस संगठन की उपयोगिता और महत्व पर सवाल उठते रहते हैं।
भारत के दृष्टिकोण से ब्रिक्स से उसके जुड़ाव की एक वजह यह भी थी कि वह समान विचार वाले ऐसे देशों के साथ जुड़ना चाहता था, जो चीन के निरंतर बढ़ते दबदबे और दुस्साहस की स्थिति में एक आंतरिक मंच पर उसे जिम्मेदार एवं जवाबदेह बना सकें। भारत को उम्मीद थी कि दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील और रूस जैसे सहयोगी चीन पर दबाव डालकर ब्रिक्स को उसके लिए उपयोगी बनाएंगे, लेकिन बदलते समय और परिस्थितियों के दौर में यह उम्मीद धराशायी होती गई। एक वक्त रूस जैसे ताकतवर देश की भारत के प्रति बड़ी स्पष्ट और निकट सहयोग वाली नीति थी, लेकिन यूक्रेन युद्ध के बाद समीकरण बदलने शुरू हो गए। अब रूस का झुकाव चीन की ओर बढ़ रहा है। ऐसे में भारत के नजरिये से ब्रिक्स को लेकर नई रणनीति बनाना आवश्यक हो गया है।
जिन परिस्थितियों में दक्षिण अफ्रीका में ब्रिक्स सम्मेलन आयोजित हो रहा है, उससे पूरे विश्व की निगाहें इस पर लगना स्वाभाविक हैं। यूक्रेन युद्ध के बाद रूस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जिस कदर अलग-थलग किया जा रहा है, उसके बाद यह पहला आयोजन है, जहां रूस की व्यापक सक्रियता दिखेगी। कुछ अंतरराष्ट्रीय कानूनों और नोटिसों के चलते मेजबान दक्षिण अफ्रीका और रूस में सहमति बनी है कि राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन इसमें नहीं आएंगे और विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव रूस का प्रतिनिधित्व करेंगे।
इस दौरान यह संगठन कई मुद्दों पर चर्चा करेगा। एक मुद्दा तो डालर के विरुद्ध करेंसी रणनीति का है। यह तय है कि भारत डालर को लेकर ऐसी किसी भी रणनीति का हिस्सा नहीं बनेगा, जो वैश्विक आर्थिक मामलों में चीनी दबदबे को और बढ़ाए। इससे भी बड़ा मुद्दा ब्रिक्स के विस्तार का होगा। इस बार कई अन्य देश बैठक में शामिल होने जा रहे हैं। कुछ सदस्यता के लिए आवेदन भी कर रहे हैं। चीन उनमें से कुछ देशों को स्थायी रूप से जोड़ना चाहता है।
असल में विस्तार के पीछे चीन की मंशा ब्रिक्स को पश्चिम के विरुद्ध एक भू-राजनीतिक संगठन के रूप में ढालने की है, जबकि मूल रूप से यह आर्थिक सहयोग का एक मंच रहा है। चूंकि रूस भी इस समय पश्चिमी देशों के रवैये से परेशान है तो संभव है कि उसे इस पर कोई आपत्ति न हो, लेकिन ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका ऐसे किसी खेल का हिस्सा नहीं बनना चाहेंगे। ब्रिक्स की पिछली बैठक में इसके विस्तार पर चर्चा हुई थी, लेकिन भारत, ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका इसके संभावित सहयोगी देशों को लेकर पूरी तरह आश्वस्त होना चाहते हैं कि उनका जुड़ाव इसे किस प्रकार उपयोगी बनाएगा।
ये देश चाहते हैं कि विस्तार से पहले सदस्य देशों में ही अंतर्विरोध समाप्त कर व्यापक समहति बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जाए। वैसे भी, अभी जिन नामों की चर्चा है, उनमें से अधिकांश चीनी कर्ज के जाल में फंसे हुए हैं और उसकी उस बेल्ट एंड रोड परियोजना के साथ जुड़े हैं, जिसकी राह में कई अवरोध खड़े हो रहे हैं। जाहिर है कि ब्रिक्स के विस्तार को लेकर चीन की नीयत में खोट है। चूंकि ब्रिक्स सहमति से चलने वाला संगठन है इसलिए चीन चाहकर भी मनमर्जी नहीं कर पाएगा। वहीं, भारत ने पश्चिमी देशों के साथ कोई औपचारिक गठबंधन नहीं किया है और न ही वह चीन के सामने झुकता है तो इस मामले में उसका रुख-रवैया और महत्वपूर्ण सिद्ध होने वाला है।
ब्रिक्स बैठक के बाद प्रधानमंत्री मोदी ग्रीस यात्रा पर जाएंगे। किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री का 40 वर्षों बाद ग्रीस दौरा कई मायनों में अहम है। लंबे अर्से तक भूमध्य सागर क्षेत्र को लेकर उदासीनता दिखाने के बाद भारत ने इटली और स्पेन के बाद ग्रीस के साथ भी संबंधों को मजबूत बनाने की पहल की है। इस कड़ी में ग्रीस और महत्वपूर्ण है, क्योंकि बड़े पैमाने पर चीन से कर्ज लेने के कारण वह उसके प्रभाव में रहा है।
अब यूरोप में चीन विरोधी धारणा मजबूत होने से ग्रीस भी रणनीति बदल रहा है। भारत और ग्रीस के संबंध तो ऐतिहासिक और सभ्यतागत कड़ियों से जुड़े हैं। ऐसे में उनमें मजबूती की अंतर्निहित संभावनाएं विद्यमान हैं। प्रधानमंत्री का दौरा इन संभावनाओं को भुनाने का ही काम करेगा। ग्रीस ने अब भारत के लिए ‘यूरोप का द्वार’ बनने की पेशकश की है। लाजिस्टिक्स के मामले में वह भारत के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकता है। ऐसे में, प्रधानमंत्री मोदी का ग्रीस दौरा यूरोप में भारत के विस्तार और चीन के प्रभाव को घटाने का भी एक जरिया बनेगा।
(लेखक आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के उपाध्यक्ष हैं)
आभार : https://www.jagran.com/editorial/apnibaat-brics-at-a-turning-point-it-is-necessary-to-make-a-new-strategy-from-indias-point-of-view-23509397.html
test