कर्नल ललित चमोला, सेना मेडल

भारत का मजदूर
मैं नया नया, शहर में आया था,
गांव की बोली, और सादगी साथ लाया था,
चकाचौंध देख, चकराया था मैं,
यहां तो जन्नत मिलेगी, समझा था मैं।
वह अनाज, जिसे खुद उगा के खाता था,
शहर में, उसी के लिए लाइन लगाता था,
मिट्टी या पत्थर का, अपना घर था मेरा,
यहां झोपड़पट्टी की खोली में, गुजारा करता था।
भोर के तारे के साथ, जागता वहां भी और यहां भी,
वहां खेतों खलिहानों में घूमता, यहां “लेबर चौक” पर खड़ा,
गांव में खुद से काम करता, और यहां वही काम मांगता,
वहां अकेलापन न था कभी, यहां साथ के लिए तरसता हूं।
विद्वानों ने, जब अर्थशास्त्र पढ़ाया था,
उत्पादन, वितरण और खपत यही समझाया था,
कहां गलतियां हुई, समझ में नहीं आया,
उत्पादन और खपत, तो हमारे गांवों में थी,
फिर वितरण में पैसा ,और हम पर गरीबी कैसे आयी?
अर्थशास्त्र से पहले, तो जीवन शास्त्र आता है,
क्यों कि जो जीवित है, वही तो खा पाता है,
फिर जीवन से बड़ा, पैसा कैसे हो गया?
शायद मनुष्य को, जीवन शास्त्र ही समझ नहीं आया।
जीवन तन्त्र ,राजतंत्र और अर्थतंत्र को बदलना होगा,
अर्थशास्त्र पूरक है जीव का, उसका जीवन नहीं,
यह सत्य है, तो संसार को समझना ही होगा,
चलो कुछ बदलाव करें ,अब जीवन को आधार करें,
जितनी हो जरुरत बस उस पर ही अधिकार करें,
लेन देन को छोड़ अब देन देन का खेल करें,
जीवन गांव में हो या शहर में सम्मान सभी का आधार बने,
अर्थ से पहले,जीवन की सच्चाई को, सब स्वीकार करें।
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