‘पंजाब केसरी’ का जन्म हुआ था, जिनकी मौत अंग्रेजी साम्राज्य के ताबूत में कील साबित हुई
‘मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश साम्राज्य के ताबूत की आखिरी कील साबित होगी’ ये शब्द महान स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय के हैं, जो उन्होंने एक विरोध प्रदर्शन के दौरान अंग्रेजों के लाठीचार्ज में घायल होने के बाद कहे थे। उनकी ये बात सही साबित हुई और इस घटना के दो दशक के अंदर ब्रिटिश साम्राज्य का भारत से नामोनिशान मिट गया।
भारत मां को वीरों की जननी कहा जाता है। इस धरती पर कई ऐसे वीर सपूत हुए हैं, जिन्होंने अपने जीवन की परवाह न करते हुए इस देश को आजाद कराने के लिए अपना जीवन तक बलिदान कर दिया। ऐसे ही एक स्वतंत्रता सेनानी थे शेर-ए-पंजाब लाला लाजपत राय। जिन्होंने देश को आजाद कराने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। इन्होंने पंजाब नैशनल बैंक और लक्ष्मी बीमा कम्पनी की स्थापना भी की थी। ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में गरम दल के तीन प्रमुख नेताओं लाल-बाल-पाल में से एक थे।
महान स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय की आज 157वीं जयंती है। उनका जन्म 28 जनवरी 1865 को पंजाब के फिरोजपुर जिले में हुआ था। वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद वे हिसार और लाहौर में वकालत करने लगे। कुछ वक्त बाद ही वह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए।
उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। साथ ही वह हिंदू धर्म में फैली कुरीतियों के खिलाफ और हिंदी भाषा की श्रेष्ठता के लिए भी काम करते रहे। उन्हें पंजाब का शेर और पंजाब केसरी भी कहा जाता है।
अंग्रेजो से सहायता न मिलने पर शुरू की बगावत
1897 और 1899 में उन्होंने देश में आए अकाल में पीड़ितों की तन, मन और धन से सेवा की। देश में आए भूकंप, अकाल के समय ब्रिटिश शासन ने कुछ नहीं किया। लाला जी ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर अनेक स्थानों पर अकाल में शिविर लगाकर लोगों की सेवा की। इसके बाद जब 1905 में बंगाल का विभाजन किया गया था तो लाला लाजपत राय ने सुरेंद्रनाथ बनर्जी और विपिनचंद्र पाल जैसे आंदोलनकारियों से हाथ मिला लिया और इस तिकड़ी ने ब्रिटिश शासन की नाक में दम कर दिया। इस तिकड़ी ने स्वतंत्रता समर में वो नए प्रयोग किए थे जो उस समय में अपने-आप में नायाब थे। लाल-बाल-पाल के नेतृत्व को पूरे देश में भारी जनसमर्थन मिल रहा था, जिसने अंग्रेजों की रातों की नींद हराम कर दी। इन्होंने अपनी मुहिम के तहत ब्रिटेन में तैयार हुए सामान का बहिष्कार और व्यावसायिक संस्थाओं में हड़ताल के माध्यम से ब्रिटिश सरकार विरोध किया। स्वावलंबन से स्वराज्य प्राप्ति के पक्षधर लालाजी अपने विचारों की स्पष्टवादिता के चलते उग्रवादी नेता के रूप में काफी लोकप्रिय हुए।
अमेरिका में रहकर फूंकते रहे आंदोलन का बिगुल
लाला लाजपत राय अक्टूबर 1917 में अमेरिका पहुंच गए, यहां के न्यूयॉर्क शहर में उन्होंने इंडियन होम रूल लीग ऑफ अमेरिका नाम से एक संगठन की स्थापना की। इस संगठन के माध्यम से उन्होंने वहां से स्वाधीनता की चिंगारी को लगातार हवा देते रहे। लालाजी तीन साल बाद जब 20 फरवरी 1920 को भारत लौटे तो उस समय तक वे देशवासियों के लिए एक महान नायक बन चुके थे। उन्हें कलकत्ता में कांग्रेस के खास सत्र की अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया गया। जलियांवाला बाग हत्याकांड के खिलाफ उन्होंने पंजाब में ब्रिटिश शासन के खिलाफ उग्र आंदोलन किया। जब गांधीजी ने 1920 में असहयोग आंदोलन छेड़ा तो उन्होंने पंजाब में आंदोलन का नेतृत्व किया और उन्होंने कांग्रेस इंडिपेंडेंस पार्टी बनाई।
साइमन कमीशन का किया जमकर विरोध
साइमन कमीशन 3 फरवरी 1928 को जब भारत पहुंचा, तो उसके शुरुआती विरोधियों में लालाजी भी शामिल हो गए और इस कमीशन का विरोध करने लगें। यह साइमन कमीशन भारत में संवैधानिक सुधारों की समीक्षा एवं रपट तैयार करने के लिए बनाया गया सात सदस्यों की कमेटी थी। यह सभी भारत में संवैधानिक ढांचे को अंग्रेजी मंशा के आधार पर तैयार करने के लिए भारत आये थे। जिसका पूरे देश में जबरदस्त विरोध देखने को मिला। साइमन कमीशन के भारत में आने के साथ ही इसके विरोध की आग पूरे देश में फैल गई। चौरी चौरा कांड के बाद गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस लिए जाने से आजादी की लड़ाई में जो ठहराव आ गया था वह अब टूट चुका था। लोग फिर से सड़कों पर निकल कर आने लगे और देखते ही देखते पूरा देश “साइमन गो बैक (साइमन वापस जाओ)” के नारों से गूंज उठा।
30 अक्टूबर 1928 को साइमन कमीशन के विरोध में हुए एक प्रदर्शन के दौरान पुलिस लाठीचार्ज में लाला लाजपत राय बुरी तरह घायल हो गए। इसी चोट की वजह से 17 नवंबर 1928 को उनका निधन हो गया। लाला लाजपत राय की मौत का बदला लेने के लिए भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु ने 17 दिसंबर 1928 को ब्रिटिश पुलिस अफसर सांडर्स की गोली मारकर हत्या कर दी थी।
लाला लाजपत राय की मौत ने देश में क्रांति की नई आग लगा दी थी। इससे प्रेरित होकर कई युवा आजादी की लड़ाई में शामिल हुए। लाला जी की मौत के दो दशक के अंदर ही अंग्रेजों को अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर भारत छोड़कर जाना पड़ा और देश 15 अगस्त 1947 को आजाद हो गया।
सौजन्य : दैनिक भास्कर
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