इंद्रप्रीत सिंह
कहीं पंजाब को फिर से काले दौर में न धकेल दें
तीन कृषि कानूनों को लेकर दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे 32 किसान यूनियनों के धरने में एक बात सबसे खास यह थी कि ये सभी अलग-अलग विचारधाराओं की हैं। इकट्ठी कैसे चलेंगी? खासतौर पर वामपंथी संगठनों के साथ चलना किसान संगठनों के लिए तो वैसे ही मुश्किल था। 26 जनवरी की घटना के बाद बनी स्थितियों ने इस धूमिल तस्वीर को साफ करना शुरू कर दिया है।
इस घटना ने वामपंथी और पंथक-किसान संगठनों में दरार पैदा कर दी है। पिछले कई दिनों से इंटरनेट मीडिया पर इस घटना को लेकर वामपंथी विचारधारा और सिख विचारधारा में टकराव वाली पोस्टें डाली जा रही हैं। इससे सिख बुद्धिजीवी चिंता में दिखाई दे रहे हैं। संयुक्त किसान मोर्चा में वामपंथी लीडरशिप ज्यादा प्रभावी दिखाई पड़ रही है। वे अपना आदर्श भगत सिंह को मानते हैं। उनसे जुड़े हुए लोग भी भगत सिंह को ज्यादा महत्व देते हैं इसलिए धर्म, धार्मिक प्रवृत्ति के लोग इनमें ज्यादा नहीं हैं, जबकि दूसरी ओर भाकियू राजेवाल, भाकियू लक्खोवाल, भाकियू डल्लेवाल, भाकियू कादियां जैसे संगठनों में धार्मिक प्रवृत्ति के लोग हैं। इसके अलावा एक और कट्टर विचारधारा के लोग भी हैं, जिनका आदर्श जरनैल सिंह भिंडरांवाला है।
26 जनवरी की लाल किले पर निशान साहिब फहराने की घटना की संयुक्त किसान मोर्चा निंदा कर रहा है। इस मोर्चा में वामपंथी और सभी किसान संगठन हैं। दोनों की विचारधाराएं अलग-अलग हैं और उनका टकराव अब सामने आने लगा है। मंगलवार को बठिंडा के मेहराज गांव में जो रैली हुई उसमें ऐसे संगठन शामिल थे, जो कट्टर सिख विचारधारा के पक्षधर रहे हैं। ये लगातार दीप सिद्धू और लक्खा सिधाना पर दर्ज केसों को वापस लेने की मांग कर रहे हैं। इस रैली को कामयाब करने के लिए पिछले कई दिनों से इंटरनेट मीडिया पर वामपंथी विचारधारा और कट्टर सिख विचारधारा के बीच पोस्ट-युद्ध चल रहा था।
इन दोनों विचारधाराओं के बीच इस तरह का विवाद कोई नया नहीं है। जमींदारी प्रथा को खत्म करने के लिए पिछली सदी के सातवें दशक में जब देश के कई राज्यों में नक्सलवादी मुहिम चली तो पंजाब भी इससे अछूता नहीं रहा। खासतौर पर मालवा इलाका इसकी पूरी चपेट में था। एक से डेढ़ दशक तक इस विचारधारा के लोग आगे आए। छोटी किसानी के लोग इनके साथ बड़े पैमाने पर जुड़े, क्योंकि यह तबका बड़ी जमींदारी प्रथा से तंग था। धीरे-धीरे सरकार की सख्ती के बाद यह मुहिम दम तोड़ गई। इसी बीच 1978 में अमृतसर में निरंकारी कांड हुआ, जिसमें 13 सिख मारे गए तो पंजाब में एक नई लहर चल पड़ी। बहुत से वामपंथी नेता नक्सलवादी मुहिम, जो उस वक्त तक अपने अंतिम चरण में थी, को छोड़कर खालिस्तानी विचारधारा से जुड़ने लगे। वे लोग जो वामपंथी विचारधारा को छोड़कर खालिस्तानी मूवमेंट में आ गए, उन्होंने इसे आगे बढ़ाया। 1984 के ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद से दोनों एक-दूसरे की गतिविधियों की आलोचना करते रहे। आज भी गाहे-बगाहे इस तरह के मौके बनते रहते हैं।
इसका असर किसान यूनियनों पर भी पड़ा है। 1987 में जब फसलों का मूल्य सूचकांक से जोड़ने को लेकर प्रदेश भर से किसानों ने चंडीगढ़ में राजभवन का घेराव किया था तब भारतीय किसान यूनियन की बुनियाद रखी गई थी। उससे पहले पंजाब में किसानों की कोई बड़ी यूनियन नहीं थी। बलबीर सिंह राजेवाल, अजमेर सिंह लक्खोवाल, भूपेंद्र सिंह मान और पिशौरा सिंह सिद्धूपुर जैसे नेता इसमें उभरे। कई वामपंथी विचारधारा से जुड़े हुए नेता भी इसमें आ गए। जिसके चलते यह यूनियन टूटती रही। हर संगठन अलग होकर अपनी-अपनी डफली बजाता रहा। 1995 के बाद पंजाब में खालिस्तानी मूवमेंट भी दम तोड़ गई।
खेती कर्ज को माफ करवाने को लेकर पंजाब में कई बार संघर्ष छिड़ा। किसान यूनियनों ने अपने-अपने तौर पर ही यह लड़ाई लड़ी। वामपंथी विचारधारा वाले संगठन कभी-कभी इकट्ठे होते रहे, लेकिन सभी एक होकर कभी नहीं लड़े, पर जबसे केंद्र सरकार ने तीन कृषि कानूनों को बनाया है, ये सभी संगठन एकजुट होकर धरने दे रहे हैं। बीच-बीच में वामपंथी संगठन नक्सलियों की रिहाई की जब मांग करने लगते हैं तो उनको जवाब देने के लिए खालिस्तानी नारे भी लगने लग जाते हैं। केंद्र सरकार की ओर से इन धरनों को खत्म करवाने के लिए जो प्रयास किए जा रहे हैं या जो प्रस्ताव दिए जा रहे हैं, वे भी इन्हीं विचारधाराओं के टकराव के कारण सिरे नहीं चढ़ पा रहे हैं। पिछले एक महीने से संयुक्त किसान मोर्चा और केंद्र सरकार के बीच बातचीत रुकी हुई है।
20 जनवरी को केंद्रीय कृषि मंत्री ने किसान संगठनों को तीनों कृषि कानूनों को डेढ़ साल के लिए निलंबित करने, किसानों एवं विशेषज्ञों की कमेटी बनाने का प्रस्ताव दिया था, जो 21 जनवरी को 32 किसान यूनियनों की बैठक में रद्द हो गया। बताते हैं कि 17 संगठन एक ओर थे और 15 इन प्रस्तावों को मानने के हक में थे। विचारधाराओं की इस लड़ाई के बीच लंबे हो रहे किसान आंदोलन को लेकर डर इस बात का है कि कहीं ये पंजाब को फिर से काले दौर में न धकेल दें। पंजाब ने अपनी एक पीढ़ी 1978-1995 के बीच खो दी है। अब दूसरी को खोने की उसमें ताकत नहीं है।
सौजन्य : दैनिक जागरण
test