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सावरकर को था डॉ. हेडगेवार पर अटल विश्वास

October 1, 2022 By Guest Author

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डॉ. श्रीरंग गोडबोले

अपना पंचू: धूलिकण : चितेरों की दृष्टि में डॉक्टर साहब

सन 1938-1939 में हैदराबाद राज्य की हिंदू जनता के न्यायोचित अधिकारों के लिए चल रहे नि:शस्त्र प्रतिरोध आंदोलन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्माता डॉ. हेडगेवार की क्या भूमिका थी? किसी भी ऐतिहासिक घटना के संबंध में किसी महापुरुष की भूमिका समझनी हो, तो उस महापुरुष द्वारा स्वयं के लिए निश्चित किया हुआ जीवन लक्ष्य, उक्त जीवन लक्ष्य के प्रति उसका तात्विक चिंतन, समकालीन घटनाओं के प्रति उसका दृष्टिकोण एवं उस महापुरुष की मर्यादाएं आदि का परिप्रेक्ष्य समझना आवश्यक होता है। डॉ. हेडगेवार तथा भागानगर नि:शस्त्र प्रतिरोध के संबंध में भी ऐसा ही विचार करना होगा।

डॉ. हेडगेवार का जीवन लक्ष्य

स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रयासों की अनेक धाराओं तथा संस्थाओं से अनुभव प्राप्त कर डॉ. हेडगेवार ने 1925 में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की, तब उनके सामने कौन सा उद्देश्य था? दिसंबर, 1938 में नागपुर सैनिक छावनी (आज की परिभाषा में शिविर) में दिए गए भाषण में डॉ. हेडगेवार ने अपना जीवन लक्ष्य स्पष्ट किया। उन्हीं के शब्दों में, “हिन्दुस्तान हिंदुओं का राष्ट्र है और इसके मालिक हिंदू ही हैं…इस सत्य को व्यवहार में स्थापित करने का दायित्व क्या हमारा नहीं है? क्योंकि ऐसी परिस्थिति का जब निर्माण होगा, तभी हम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर पायेंगे। इसी कारण से ही हमने संगठन का मार्ग अपनाया है और संगठन के बीज को देश के कोने-कोने में बोने के लिए हम परिश्रम कर रहे हैं। समस्त देश का हिंदू समाज संगठित रूप से अपने पैरों पर खड़ा हो, इसलिए हमने अपना सारा जीवन न्यौछावर करने का संकल्प लिया है” (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, RSS Nagpur Lashkari Chhavani 1938 0002 to 0009)।

निजाम अपने पूर्ववर्ती महमूद गजनवी, तुगलक, औरंगजेब, टीपू सुल्तान की तरह ही हिंदुओं पर अत्याचार कर रहा था और इसका प्रतिरोध निस्संदेह आवश्यक था। पर एक निजाम चला जाए, तो उसकी जगह दूसरा इस्लामी कट्टरपंथी निजाम हिंदुओं की छाती पर नहीं बैठेगा, इस बात की क्या गारंटी थी? हिंदू समाज की आंतरिक शक्ति बढ़ाना ही इस समस्या का स्थाई उपाय है। इसलिए डॉ. हेडगेवार कहते हैं, “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अपना जो कार्यक्षेत्र तय किया है, वह समझबूझ कर ही निश्चित किया गया है और इसीलिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अन्य किसी भी झमेले में नहीं पड़ता। अपने लक्ष्य पर नजर रखते हुए हमें अपने निर्धारित किए मार्ग पर आगे बढ़ना होगा। अपने जीवन का प्रत्येक क्षण इस सत्कार्य में कैसे खर्च किया जा सकता है, इसकी चिंता हमें दिन-रात करनी चाहिए और उसी के अनुसार कार्य करना चाहिए।”

विदेशी आक्रांताओं का नाश निस्संदेह आवश्यक है, लेकिन परकीय समाज द्वारा अपने समाज पर आक्रमण करने की अभिलाषा ही उत्पन्न न हो, ऐसी परिस्थिति का निर्माण करना ही डॉ. हेडगेवार का अटल लक्ष्य था। दीर्घकालिक उद्देश्य सामने रखने वाले व्यक्ति को तात्कालिक घटनाओं में अपनी शक्ति को खर्च करते समय विवेक रखना चाहिए। डॉ. हेडगेवार के शब्दों में, “विशाल वटवृक्ष दो दिन में नहीं बढ़ता। मेथी की शाक दो दिन में बढ़ जरूर जाती है, पर चार दिन में सूख भी जाती है। वहीं वटवृक्ष एक बार जब खड़ा हो जाता है, तो हजारों को छाया देता है। उसकी शाखाएं गगन से आलिंगन के लिए आतुर होती हैं, सिर गगन से जा भिड़ता है और उसकी जड़ें पाताल गंगा से जा मिलती हैं। ऐसा गौरवशाली फैलाव और सारा वैभव प्राप्त करने हेतु उसे कड़ी जमीन और पत्थर-चट्टानों में असंख्य जड़ें जमाते-जमाते जाने कितने ही वर्षों तक छटपटाना होता है। हिंदू राष्ट्र का विशाल वृक्ष करोड़ों हिंदुओं को छाया देने योग्य समर्थ बनाना हो, तो धैर्यपूर्वक काम करना होगा और सतत संगठन बढ़ाते जाना होगा” (मधुसूदन कुलकर्णी, संग्राहक, केशव बलिराम हेडगेवार; संकलन गोपाल गणेश अधिकारी, महाराष्ट्र प्रकाशन संस्था, 1940)।

संघ की शक्ति

युग प्रवर्तन के कार्य का बीड़ा उठाने वाले डॉ. हेडगेवार के संघ कार्य की 1938-1939 में प्रत्यक्षत: क्या स्थिति थी? स्वयं के कार्य का इतना निर्ममता से विश्लेषण केवल डॉ. हेडगेवार ही कर सकते हैं। सन 1938 के अपने भाषण में वे कहते हैं, “आज हमारी लगभग 400 शाखाएं एवं चालीस हजार स्वयंसेवक हैं। यद्यपि यह सत्य है, लेकिन इनमें से कार्य का प्रसार करने वाली वास्तविक संख्या कितनी है, इसका विचार क्या हमें नहीं करना चाहिए? इन चालीस हजार में से प्रत्यक्ष कार्य का तत्परता से प्रसार करने वालों की संख्या जितनी चाहिए, उतनी नहीं है, इस बात को हमें स्वीकार करना होगा।” हजारों संघ स्वयंसेवकों में से डॉ. हेडगेवार की अपेक्षा को तत्परता से पूर्ण करने वाले स्वयंसेवकों की संख्या का आंकलन कैसे किया जाए? उस समय संघ के शिविरों में या अधिकारी प्रशिक्षण वर्ग के प्रशिक्षार्थी स्वयंसेवकों की संख्या इसके लिए सहायक हो सकती है। सन 1937 तक नागपुर जिला कैंप एवं नागपुर केंद्र कैंप एक ही था, जो कि नागपुर में हुआ करता था। दिसंबर, 1937 में नागपुर केंद्र का कैंप, जिला कैंप से अलग किया गया एवं जिला कैंप को नागपुर के काटोल में स्थापित किया गया (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, Dr Hedgewar letters cleaned1937\November 1937\ 25-11-37 a, 25-11-37 b)।

अकोला जिला संघचालक गोपाल कृष्ण उपाख्य ‘बाबासाहेब चितले’ को दिनांक 17 सितंबर, 1935 को लिखे एक पत्र में बरार में संघ कार्य का खरा एवं निष्पक्ष विश्लेषण करते हुए डॉ हेडगेवार लिखते हैं, “आज अमरावती जिला बिलकुल भी संगठित नहीं है। इतना ही नहीं, अमरावती का संघ भी उल्लेख करने योग्य नहीं है। जिला बुलढाणा की प्रमुख शाखा कौन सी है, यह भी अब तक निर्धारित नहीं है और उस जिले के लिए जिला चालक की नियुक्ति नहीं हुई है। बरार के लिए संघचालक की नियुक्ति तक अभी नहीं हुई है” (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, Dr Hedgewar letters cleaned\1935\September 1935 17/9/35a)।

अधिवक्ता श्रीधर अनंत उपाख्य ‘बापूसाहब सोहोनी’ के रूप में दिसंबर, 1936 में बरार को एवं अधिवक्ता रामचंद्र नारायण उपाख्य ‘बाबासाहब पाध्ये’ के रूप में मध्य प्रांत को 12 फरवरी, 1938 में प्रांत संघचालक मिले। फरवरी, 1936 में बाबासाहेब चितले को लिखे पत्र में डॉ. हेडगेवार अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए लिखते हैं, “आजकल नागपुर संघ के पास एक भी पैसा शेष नहीं बचा है” (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, Dr. Hedgewar letters cleaned\1936\April 1936 undated a)। जिस पुणे से भागानगर नि:शस्त्र प्रतिरोध प्रमुखता से संचालित हुआ, उस पुणे में महाराष्ट्र प्रांत संघ का प्रथम अधिकारी प्रशिक्षण वर्ग सन 1935 में आयोजित हुआ, जिसमें पुणे से 20, कोल्हापुर से 10, चिपलून से 6, सांगली से 2 एवं अन्य ऐसे कुल 50 स्वयंसेवक थे। 8 जून, 1938 को नागपुर के ऑफिसर्स ट्रेनिंग कैंप के समापन समारोह को संबोधित करते हुए कैंप के सर्वाधिकारी प्रा. माधवराव गोलवलकर गुरुजी ने जानकारी दी कि मुंबई, बरार, नागपुर, महाकौशल, उत्तर हिन्दुस्तान तथा पंजाब इत्यादि प्रांतों के तथा भिन्न-भिन्न रियासतों की संघ शाखाओं के लगभग 525 स्वयंसेवकों ने कैंप में भाग लिया (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, OTC Nagpur Samapan Samaroh – 1938)।

‘संघ स्थापना में विलंब हुआ’

नि:शस्त्र प्रतिरोध संग्राम शुरू हुआ, तब वैश्विक परिस्थिति विस्फोटक थी। द्वितीय विश्व युद्ध दहलीज पर था। सामान्यत: सन 1922 के आसपास डॉ. हेडगेवार को भविष्य में विश्वयुद्ध होने की आशंका थी और 1932 के अपने भाषण में उन्होंने कहा था, “हमने समय व्यर्थ ही खोया। आगामी पांच-दस साल में युद्ध की वैश्विक परिस्थिति का निर्माण होगा। प्रथम विश्व युद्ध की अपेक्षा इस युद्ध में (स्वतंत्रता हेतु) विशेष लाभ का अवसर होगा।” डॉ. हेडगेवार के इस कथन का संस्मरण 1930-34 में चंद्रपुर के संघचालक रहे अधिवक्ता रामचंद्र राजेश्वर उपाख्य ‘तात्याजी देशमुख’ ने लिख कर रखा है (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, Tribute to Dr. Hedgewar Hastlikhit Lekh\ – 1, 0007)। सन 1925 से कम से कम दस वर्ष पहले संघ की स्थापना की जानी चाहिए थी, ऐसा विचार डॉ. हेडगेवार से वार्तालाप के दौरान युद्ध शुरू होने पर विशेष रूप से झलकता था (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, Nana Palkar/Hedgewar notes -4 4_106)।

15 अगस्त, 1934 को यवतमाल जिला संघचालक भि.ह. उपाख्य ‘अण्णा साहब जतकर’ को लिखे पत्र में संघ की भावी प्रसार तथा शक्ति की कल्पना करते हुए डॉ. हेडगेवार लिखते हैं, “संघ कार्य विलंब से नहीं किया जाना चाहिए और हमें संपूर्ण महाराष्ट्र में जितना संभव हो सके, उतनी शीघ्रता से हिंदुओं को संगठित कर महाराष्ट्र का उदाहरण अन्य राज्यों के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिए और आने वाले पांच-दस वर्षों में हिन्दुस्तान को संगठित करना चाहिए” (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, Dr. Hedgewar letters cleaned\1934\August 1934 15-8-34 a, 15-8-34 b)। लाहौर, जबलपुर, लखनऊ और दिल्ली में संघ कार्य आरंभ करने हेतु डॉ. हेडगेवार के भेजे विद्यार्थी प्रचारकों ने 28 जून से 1 जुलाई के बीच नागपुर से प्रस्थान किया।

अपना जीवन लक्ष्य पूर्ण होते देखने का अवसर विधाता ने डॉ. हेडगेवार को नहीं दिया। बरार प्रांत संघचालक बापू साहब सोहोनी के अनुसार डॉ. हेडगेवार को इस बात का दुःख था कि सन 1939 का विश्व युद्ध शुरू होने के बाद संघ का कार्य ठीक से स्थापित नहीं हुआ (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, Nana Palkar\Hedgewar notes -2 2_215)। मई, 1940 में घटित एक घटना का वर्णन आगे चलकर जनसंघ अध्यक्ष बने पं. बच्छराज व्यास ने किया है। व्यास बताते हैं, “जब डॉ. हेडगेवार से मिलने गया, तब उन्होंने कहा- यूरोप के राष्ट्रों ने दस-पंद्रह वर्षों में कितनी उन्नति की है और पंद्रह वर्षों में अपना संपूर्ण प्रयास करने के बाद भी अभी कितने ही प्रांतों में हमारा काम तक नहीं पहुंचा, यह देख कलेजा व्याकुलता से भर आता है। परंतु प्रयास करने के अतिरिक्त और कोई दूसरा मार्ग नहीं। शायद इस एक जन्म में देश के उद्धार का कार्य हो, यह ईश्वरीय इच्छा नहीं है। कितने ही दिन कार्य करना पड़े, फिर भी इस मार्ग के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं, क्योंकि सफलता इसी मार्ग से मिलेगी, यह मेरा विश्वास है” (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, Nana Palkar\Hedgewar notes -3 3_109)। अगले माह अर्थात 21 जून, 1940 को डॉ. हेडगेवार का निधन हो गया।

संघ तटस्थ पर स्वयंसेवक सहभाग के लिए मुक्त

हिंदू संगठन के नित्य कार्य को जरा भी अनदेखा न कर नि:शस्त्र प्रतिरोध के लिए जैसा आवश्यक हो, वैसा सहयोग देना डॉ. हेडगेवार के समक्ष एक चुनौती थी। संघ को आंदोलन से तटस्थ रखते हुए उसे व्यक्तिगत रूप में समर्थन देना एवं संघ स्वयंसेवकों को उसमे शामिल होने की छूट देने में डॉ. हेडगेवार की भूमिका थी। हाथ में लिया कार्य इस जन्म में पूर्ण न कर पाने की टीस मन में रखते हुए उन्होंने यह सब किया।

उनकी इस भूमिका का आकलन कुछ हिंदुत्वनिष्ठ नहीं कर पाए। इसके कारण डॉ. हेडगेवार पर टीका टिप्पणियां की गई। उनकी भूमिका पर कड़वी टिप्पणी करने वाले बारह लेख 14 मई, 1939 में मुंबई में स्थापित ‘हिंदू सैनिक दल’ के उपाध्यक्ष गोपाल गोविंद उपाख्य ‘दादा साहब अधिकारी’ ने ‘वंदे मातरम’ साप्ताहिक में लिखे (डॉ. हेडगेवार के देहावसान के पश्चात अधिकारी ने अत्यंत भावुक श्रद्धांजलि परक लेख लिखा)। इस टिप्पणी पर हिंदुत्वनिष्ठ साप्ताहिक ‘सावधान’ (27 मई, 1939) ने उत्तर दिया, “राष्ट्र विमोचन के लिए एक अंतिम प्रहार ही आवश्यक होता है। इस अंतिम समर क्षण के आगमन की पूर्व तैयारी राष्ट्र विमोचन का नित्य कार्य है एवं भागानगर जैसे आंदोलन राष्ट्र विमोचन के नैमित्तिक कार्य हैं। ये भिन्न-भिन्न कार्य करने वाली संस्थाएं पराधीन राष्ट्र में होती हैं। फिर भी ये दोनों कार्य समानांतर चल रहे हों या चलाने हों और नित्य कार्य में व्यवधान उत्पन्न हो, इस तरह से अपनी विशिष्टता तथा सर्वस्व शक्ति कोई भी नित्य संस्था नैमित्तिक कार्यों में खर्च नहीं कर सकती” (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, Nana Palkar\Hedgewar notes – 5, 5_151)।

संघ का समाज से पृथक अस्तित्व नहीं

नि:शस्त्र प्रतिरोध संग्राम में भाग लेने की अनुमति देने वाले पत्र डॉ. हेडगेवार ने संघ शाखाओं को नहीं लिखे। पर जिन्होंने भी संग्राम में जाने की इच्छा प्रकट की, उन्हें व्यक्तिगत रूप से धन्यवाद पत्र दे उनका अभिनंदन किया। डॉ. हेडगेवार ने कहा, “रा. स्व. संघ का स्वयंसेवक, जो हिंदू समाज का ही एक घटक होता है, संघ में आते समय समाज की सदस्यता से त्यागपत्र देकर नहीं आता। हिंदू समाज के ऐस प्रत्येक आंदोलन हेतु, जो कुछ भी आवश्यक है, वह करने के लिए स्वयंसेवक भी स्वतंत्र है” (रा. स्व. संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, registers/Register 1 DSC_0056)। डॉ. हेडगेवार की भूमिका के पीछे यह मूलभूत विचार था कि किसी भी आंदोलन में संघ स्वयंसेवकों को अपना संस्थागत अस्तित्व समाज में विलीन करते हुए समाज घटक के रूप में सहजता से सहभागी होना चाहिए।

संगठनात्मक दृष्टि से संघ की तटस्थता को बनाये रखते हुए भी आंदोलन को पर्याप्त संख्या में प्रतिकारक उपलब्ध कराने की जिम्मेदार डॉ. हेडगेवार ने ली। महाराष्ट्र प्रांतिक हिंदूसभा के कार्यवाह शंकर रामचंद्र दाते जी इस आंदोलन से बिलकुल शुरुआत से जुड़े हुए थे। सन 1933 में उन्होंने संघ की प्रतिज्ञा ली थी। निजाम शासित मराठवाड़ा की गुप्त रूप में निगरानी कर वहां के हिंदुओं की प्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त करने के लिए महाराष्ट्र प्रांतीय हिंदूसभा द्वारा नियुक्त तीन सदस्यीय समिति के वे एक सदस्य थे। मई, 1938 में जब डॉ. हेडगेवार हिंदू युवक परिषद हेतु पुणे आए हुए थे, उस वक्त उनसे हुई मुलाकात का वर्णन दाते ने किया है। डॉ. हेडगेवार को ‘सौजन्य तथा ध्येयवाद की साक्षात मूर्ति’ बताते हुए दाते लिखते हैं, “महाराष्ट्र से कम से कम 500 नि:शस्त्र प्रतिकारक आएं, ऐसा सुझाव उन्होंने (स्टेट कांग्रेस के प्रतिनिधि, आर्य समाजी तथा हिंदूसभावादी) रखा। निजाम राज्य से हजार से ज्यादा लोग सत्याग्रह में शामिल होंगे, ऐसा उनका अनुमान था। उनकी सूचना पर हमने हामी भरी। पर अब तक इतने बड़े पैमाने पर सत्याग्रह की कोई भी मुहिम हमने नहीं चलाई थी। इस कारण तथा हमारे पास इस प्रकार का सुव्यस्थित संगठन ना होने से हमने हेडगेवार के समक्ष यह प्रश्न रखने का निश्चय किया। इसके अनुसार उनके पुणे प्रवास के दौरान हम तीनों ने उनसे भेंट की तथा हमारे निरीक्षण में आई निजाम राज्य की परिस्थिति तथा वहां के नेताओं के साथ हुई बातचीत का निष्कर्ष भी बताया। हमारी बात का आशय उन्होंने तुरंत समझकर विश्वासपूर्वक कहा कि पांच सौ लोग सत्याग्रह के लिए भेजने हैं, इतना ही ना, उसकी चिंता ना करें। आप शेष तंत्र संभालें। जिस आत्मविश्वास से उन्होंने यह सारी बात कही और जो संवेदना व्यक्त की, उसका स्मरण मुझे आज भी है…आंदोलन की शुरुआत करने से पूर्व हेडगेवार ने इसे समर्थन दिया और काम बढ़ाने के लिए आत्मविश्वास जगाया” (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, Dr Hedgewar Athavani 2 0001-A to 0001-D; प्रस्तुत संस्मरण दाते ने 11 जुलाई, 1955 को लिखा है)।

नि:शस्त्र प्रतिरोध आंदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लेने वाले और उसका इतिहास लिखने वाले औरंगाबाद (महाराष्ट्र) के अधिवक्ता दत्तात्रय ग. देशपांडे उपाख्य ‘बाबूराव जाफराबादकर’ के अनुसार, “डॉ. हेडगेवार की नीति और आदेश के अनुसार सैंकड़ों नि:शस्त्र प्रतिकारक व्यक्ति नि:शस्त्र प्रतिरोध करने को तैयार हुए और उन्होंने कई गुटों में रियासत में घुसकर सत्याग्रह किया और कारावास स्वीकार किया। नागपुर विभाग में हिंदूसभा के कार्यकर्ता और रा. स्व. संघ के स्वयंसेवक, इनमें भेद नहीं था। प्रौढ़ स्वयंसेवक हिंदूसभा का सदस्य हुआ करते थे” (द.ग. देशपांडे, हैद्राबाद-वर्हाड मुक्तिसंग्राम, नवभारत प्रकाशन संस्था, मुंबई, 1987, पृ. 84,85)।

सावरकर-हेडगेवार सामंजस्य

नि:शस्त्र प्रतिरोध के प्रेरणा पुरुष स्वातंत्र्यवीर सावरकर थे। सावरकर और सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार में परस्पर स्नेह, आदर और सामंजस्य था। डॉ. हेडगेवार की भूमिका के बारे में सावरकरजी के क्या विचार थे? इसका अनुमान डॉ. हेडगेवार के जाने के बाद हिंदू महासभा के अध्यक्ष के रूप में सावरकर द्वारा 13 जुलाई, 1940 में  नए सरसंघचालक गोलवलकर गुरुजी को मूलत: अंग्रेजी में लिखे पत्र से होता है। डॉ. हेडगेवार के प्रति अत्यधिक स्नेह का उल्लेख करते हुए सावरकर लिखते हैं, “डॉ. हेडगेवार के जीवन काल में पूरे हिंदुस्तान में संघ की सैंकड़ों सभाओं को संबोधित करने का मुझे अवसर मिला। लेकिन संघ के विषय में कहना हो, तो किसी भी प्रश्न पर डॉ. हेडगेवार का ही शब्द अंतिम होना चाहिए और मुझे उनके बुद्धि विवेक पर पूर्ण आत्मविश्वास था” (संघ अभिलेखागार, हेडगेवार प्रलेख, Dr Hedgewar Miscellaneous\Mumbai\VD Savarkar 0001)।

महाराष्ट्र प्रांत संघचालक काशीनाथ भास्कर उपाख्य ‘काका लिमये’, सातारा जिला संघचालक शिवराम विष्णु उपाख्य ‘भाऊराव मोड़क’, सोलापुर जिला संघचालक रामचंद्र शंकर उपाख्य ‘रामभाऊ राजवाड़े’, अहमद नगर के संघचालक चिंतामण मोहनिराज उपाख्य ‘नानाराव सप्तर्षि’, वणी संघचालक डॉ. यादव श्रीहरी उपाख्य ‘तात्याजी अणे’, सावनेर संघचालक नारायण कृष्णाजी उपाख्य ‘नानाजी आंबोकर’ तथा डॉ. ल. वा. परांजपे, विश्वनाथ राव केलकर, मुंबई के डॉ. नारायण राव सावरकर, उमरखेड़ के नानासाहब नाईक सभी प्रमुख संघ स्वयंसेवक हिंदू महासभा के भी कार्यकर्ता थे और इन्होंने नि:शस्त्र  प्रतिरोध आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

डॉ. हेडगेवार के समर्थन से किन संघ स्वयंसेवकों ने नि:शस्त्र प्रतिरोध आंदोलन में भाग लिया, इसका उल्लेख आगामी लेखों में किया जाएगा।

(क्रमशः)


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