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‘सिंघसूरमा लेखमाला’ धर्मरक्षक वीरव्रति खालसा पंथ – भाग-10 – भाग-11

October 31, 2022 By Guest Author

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सिंघसूरमा लेखमाला

धर्मरक्षक वीरव्रति खालसा पंथ – भाग-10

विजयी सैन्य शक्ति के प्रतीक

‘पांच प्यारे’ और पांच ‘ककार’

नरेंद्र सहगल

The story of the Khalsa that came into existence on Baishakhi, which troubled Aurangzeb | बैशाखी के दिन अस्तित्व में आई उस खालसा की कहानी, जिसने औरंगजेब के छक्के छुड़ा दिए |

श्रीगुरु गोविंदसिंह द्वारा स्थापित ‘खालसा पंथ’ किसी एक प्रांत, जाति या भाषा का दल अथवा पंथ नहीं था। यह तो संपूर्ण भारत एवं भारतीयता के सुरक्षा कवच के रूप में तैयार की गई खालसा फौज थी। खालसा के प्रथम पांच प्यारे देश के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों, वर्गों एवं भाषाओं का प्रतिनिधित्व करते थे। जिस तरह आदि शंकराचार्य ने भारत के चारों कोनों में चार मठों की स्थापना करके भारत को एक सूत्र में पिरोया था, इसी तरह दशम् पिता ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों से पांच प्यारे चुनकर राष्ट्रीय एकता का नगाड़ा बजा दिया।

उत्तर भारत (लाहौर) से खत्री दयाराम, दक्षिण भारत (बीदर) से नाई साहब चंद, पूर्वी भारत (जगन्नाथपुरी) से कहार हिम्मतराय, पश्चिमी भारत (द्वारका) से धोबी मोहकम चंद, दिल्ली से जाट धर्मदास। इस तरह दशम् गुरु ने जाति, क्षेत्र, मजहब के भेदभाव को मिटाकर सभी भारतवासियों अर्थात हिंदू समाज का सैन्यकरण कर दिया। यह एक ऐसा क्रांतिकारी सफल प्रयास था जिससे एक भारत, अखंड भारत की भावना का जागरण हुआ। खालसा पंथ भारत की इसी भौगोलिक, सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का प्रतिबिंब है।

खालसा पंथ की साजना दशमेश पिता के संगठन-कौशल, बौद्धिक क्षमता, पूरे देश में उनके प्रभाव का विस्तार, उनके शिष्यों की गुरु के प्रति आस्था का दर्शन है। श्रीगुरु ने देशभर में इस समागम में पहुंचने के संदेश भेजें होंगे। पैदल चलकर अथवा घोड़ों की सवारी से और वह भी समय पर पहुंचकर अनुशासनबद्ध होकर एक स्थान पर बैठना, ठहरना और भोजन इत्यादि की व्यवस्था से श्रीगुरु की कार्यक्षमता का पता चलता है। कितनी सोची-समझी योजना थी यह।

जाति, भाषा, क्षेत्र में बटे हिन्दू समाज को एक स्थान पर एकत्रित करने का असहाय कारज दशमेश पिता ने कर दिखाया। इससे यह भी पता चलता है कि श्रीगुरु नानकदेव से श्रीगुरु तेगबहादुर तक सभी गुरुओं ने अपने परिश्रम एवं बलिदानों से सारे भारत में एक ऐसी धरातल त्यार कर दी थी, एक ऐसा ठोस अध्यात्मिक आधार बना दिया था, एक ऐसी बुनियाद रख दी थी जिस पर खालसा पंथ की साजना हुई।

दशम् गुरु ने खालसा पंथ (सिख सेना) के निर्माण के बाद अपने इन धर्मरक्षक सेनानियों को एक निश्चित मर्यादा (लक्ष्मण रेखा) की परिधि में रहने का आदेश दिया।

  • अमृत-पान करने के पश्चात बनने वाला प्रत्येक सिख अपने नाम के साथ सिंह शब्द जोड़ेगा। इसी तरह महिलाएं अपने नाम के साथ कौर (शेरनी) जोड़ेंगी। खालसा पंथ में महिला एवं पुरुष एक समान माने जाएंगे।
  • संगत एवं पंगत अर्थात एक पंक्ति, एक समूह और समान अधिकार के सिद्धांतों पर सभी सिख एक साथ चलेंगे। सिख पुरुष तथा महिलाएं किसी भी प्रकार का नशा (शराब,तंबाकू आदि) नहीं करेंगे।
  • राष्ट्र, समाज तथा धर्म की रक्षा करने के लिए गुरु के सिख सदैव तैयार रहेंगे।
  • सभी सिख (स्त्री पुरुष) बाल नहीं कटवाएंगे। अमृतसर का पवित्र हरि मंदिर एवं वहां का सरोवर सिखों का तीर्थस्थल होगा।
  • पांच सिखों के साथ खालसा पंथ पूर्ण माना जाएगा। पांच में परमेश्वर पर आधारित सिद्धांत के अंतर्गत पांचों सिख श्रीगुरु के रूप में होंगे और इस ‘पंच परमेश्वर’ को गैर सिखों को अमृत-पान करवाकर सिख सजाने का अधिकार होगा। अमृत-पान की इस व्यवस्था को पाहुल (प्रसाद) भी कहा जाता है।
  • खालसा पंथ में दीक्षित होने के बाद सिखों की जाति एवं वर्ण आदि सब भेदभाव समाप्त हो जाएंगे। सभी मनुष्य परमात्मा की संतान हैं। ‘एक पिता एकस के हम बालक।’
  • शस्त्र धारण करना, शस्त्र चलाना एवं युद्ध करना गुरु के सिखों का धर्म (कर्तव्य) होगा। जो सिंह युद्ध में लड़ते हुए स्वधर्म के लिए शहीद होंगे, वे महान सिख कहलाएंगे और अपने बलिदान के लिए ऊंची पदवी के हकदार होंगे।
  • प्रत्येक सिख कर्मकांडों से दूर रहकर भारत के पवित्र स्थानों, तीर्थों, वैचारिक आधार और संस्कारों को सम्मान देगा और इनकी रक्षा के लिए तत्पर रहेगा।
  • अमृत पान किए हुए सिखों के लिए पांच ककारों का धारण करना आवश्यक होगा यह पांचो ककार इस प्रकार हैं:-

सिख धर्म के पांच प्रतीक चिन्ह कौन से होते हैं? - Quora

प्रथम ककार ‘केश’

भारत की सनातन संस्कृति में जटाओं का विशेष महत्व है। अध्यात्मिक शक्ति के प्रकाश स्तंभ हमारे प्राचीन ऋषि मुनि केश एवं दाढ़ी रखते थे। यह प्रथा आज भी भारतीय संतों में प्रचलित है। खालसा पंथ के संस्थापक दशम् गुरु ने इसी सनातन परंपरा का अनुसरण करने का आदेश अपने सिखों को दिया है। यह परमपिता परमात्मा को तन-मन समर्पित करने की एक श्रेष्ठ प्रक्रिया है।

द्वितीय ककार ‘कड़ा’

कड़ा रक्षाबंधन का स्थाई संदेश है। स्वधर्म एवं राष्ट्र-समाज की रक्षा करने का एक संकल्प है यह कड़ा। कलाई पर पहना जाने वाला लोहे का यह बंधन गुरु के सिखों को यह सदैव स्मरण करवाता रहता है कि वह मर्यादित खालसा के रूप में धर्मरक्षक के नाते सदैव तैयार रहेंगे। इसे ही हमारे प्राचीन शास्त्रों में ‘नित्य सिद्ध शक्ति’ कहा गया है। परम पुरुष के द्वारा रचित कालचक्र का प्रतीक भी है यह कड़ा, जिसका ना कोई आदि है और ना ही अंत। इस प्रकार दशम् गुरु ने भारत अथवा हिन्दू की सशस्त्र भुजा खालसा पंथ को अमरत्व प्रदान करके उसे अमर कर दिया।

‘तृतीय ककार कृपाण’

सनातन हिंदू संस्कृति अथवा भारतीय जीवन पद्धति ‘शस्त्र और शास्त्र’ के सिद्धांत पर आधारित है। अर्थात शास्त्रों की रक्षा के लिए शस्त्र और शस्त्रों को मर्यादा में रखने के लिए शास्त्र। सृष्टि के आदि देव शिव ने अधर्म के अस्तित्व को मिटाने के लिए त्रिशूल धारण किया था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने राक्षसी आतंक को समाप्त करने के लिए धनुष-बाण उठाया था। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने असत्य का अंत करने के लिए सुदर्शन चक्र तक उठा लिया था। इसी वीर परंपरा को आगे बढ़ाते हुए दशम् गुरु ने धर्मरक्षक खालसा पंथ की सृजना की और प्रत्येक खालसा (सैनिक) को कृपाण धारण करने का आदेश दिया। कृपाण शक्ति की देवी दुर्गा के हाथों में शोभायमान है। श्रीगुरु द्वारा रचित ‘चंडी की वार’ में कृपाण की स्तुति की गई है। ‘प्रथम भगौती सिमरिए’ अर्थात सर्वप्रथम भगवती (तलवार) की आराधना कहकर कृपाण को दुष्ट दलन (दुष्टों का नाश) के लिए आवश्यक समझा गया है। भारत में सनातन काल से ही शस्त्र पूजन का विधान चला आ रहा है। वैसे भी एक सैनिक के लिए शस्त्र बहुत आवश्यक होता है।

चतुर्थ ककार ‘कंघा’

कंघा जहां केशों की सफाई के लिए जरूरी है वहीं पंच तत्वों से निर्मित मानव के शरीर की स्वच्छता का भी दिशानिर्देश है। युद्ध क्षेत्र में लड़ रहे सैनिक का शरीर यदि चुस्त-दुरुस्त नहीं होगा तो वह फुर्ती के साथ शत्रु के ऊपर प्रहार नहीं कर सकता। कंधे के द्वारा केशों की सफाई करने से दिमाग भी तरोताजा रहता है। दिमाग की स्वच्छता से ही युद्ध क्षेत्र में सही और तुरंत निर्णय लिया जा सकता है। इस तर्क का एक दूसरा पक्ष भी है। जैसा पहले कहा गया है कि ‘केश’ हमारी अध्यात्मिक ऋषि परंपरा के परिचायक हैं। इस परंपरा को शुद्ध सात्विक और समय के अनुकूल बनाए रखने का भाव भी इस कंघे से प्रकट होता है।

पंचम ककार कछैहरा (कच्छा)

घुटनों तक के लंबे कच्छे को पांचवी मर्यादा (ककार) के रूप में प्रस्तुत करने के पीछे सैन्य स्फूर्ति, चुस्त वेशभूषा, सुविधाजनक घुड़सवारी और आसान उपलब्धता जैसी व्यवहारिकता दृष्टिगोचर होती है। कछैहरे का भाव दृढ़ मानसिकता से भी है। रणक्षेत्र में मन डांवाडोल न हो। सैनिक का ध्यान किसी लालसा अथवा आकर्षण में ना फंस जाए। स्वयं की वृतियों पर नियंत्रण रखना सैनिक के जीवन का आवश्यक भाग होता है, इसी का एक गहरा दिशानिर्देश है यह पांचवा ककार कछैहरा।

अतः यह एक इतिहासिक सच्चाई है कि दशमेश पिता श्रीगुरु गोविंदसिंह द्वारा दीक्षित किए गए ‘पंज प्यारे’ (प्रारंभिक) और उनकी सैन्य वेशभूषा (पांच ककार) तथा उनका दर्शन शास्त्र ही वर्तमान खालसा पंथ का आधार है। इस आधार अर्थात नीव में भारत की सनातन संस्कृति की स्वर्णिय ईंटें जुड़ी हुई है।

———— क्रमश:

सिंघसूरमा लेखमाला

धर्मरक्षक वीरव्रति खालसा पंथ – भाग-11

गुरुपुत्रों ने रचा बलिदानों

का अतुलनीय इतिहास

नरेंद्र सहगल

सोने की चिड़िया कहलाने वाले समृद्ध एवं सुरक्षित भारत पर विदेशी आक्रान्ताओं की गिद्ध दृष्टि पढ़ते ही आक्रमणों का कालखंड शुरू हो गया। शकों हूणों एवं कुषाणों की प्रचंड और राक्षसी सैन्य वाहनियों को पराजित करके हिंदू सम्राटों ने इन भयंकर लड़ाकू जातियों को अपने धर्म में आत्मसात कर लिया। परंतु कालांतर में भारत की केंद्रीय सत्ता के अस्त-व्यस्त होने तथा हिंदुओं में धर्म विमुख्ता, आपसी फूट, एक-दूसरे को नीचा दिखाने और परास्त करने की राष्ट्र घातक मनोवृति के पनपने से इस्लामिक हमलावर भारत को तोड़ने, गुलाम बनाने में सफल होते चले गए।

मध्यकालीन भारत के प्रमुख राजवंश | Dynasties Rulers of Medieval India

भारतीय इतिहास के इस रक्तरंजित अध्याय में दो राजनीतिक अथवा सैनिक धाराएं चलती रही। पहली धारा मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनबी, मोहम्मद गौरी, तुगलक, खिलजी, बाबर, हुमायूं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां, औरंगजेब तक के दुर्दांत हमलावरों की है जिन्होंने हमारे विघटन का लाभ उठाकर अत्याचारों की आंधी चलाए रखी। और दूसरी धारा दाहिर, बप्पा रावल, राणा सांगा, राणा प्रताप, राणा राजसिंह, छत्रपति शिवाजी महाराज, छत्रसाल और श्रीगुरु गोविंदसिंह जैसे भारतीय शूरवीरों की है जिन्होंने हमलावरों के साथ जमकर टक्कर ली और असंख्य बलिदानों के बाद मुगल साम्राज्य को समाप्त करने में सफल भी हुए।

परंतु इसी समय हमारी ही भूलो एवं कमजोरियों के कारण आक्रांता अंग्रेज आए और भारत को लगभग 200 वर्षों तक अपना गुलाम बनाए रखने में सफल हो गए। (परंतु हम परतंत्रता के इस अध्याय पर चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि यह वर्तमान लेखमाला का विषय नहीं है।)

सर्वविदित है कि दस गुरुओं की परंपरा श्रीगुरु नानकदेव से प्रारंभ होकर दशमेश पिता श्रीगुरु गोविंदसिंह तक चलती है। और इसी के समकालीन मुगलिया दहशतगर्दी की परंपरा बाबर से लेकर औरंगजेब तक चलती है। इन दोनों विरोधी धाराओं में जमकर संघर्ष हुआ। सन 1500 से 1700 तक लगभग 200 वर्ष तक चले इस घोर अत्याचारी मुगल साम्राज्य के कफन का अंतिम कील पंजाब में बना था दशम् गुरु द्वारा सृजित खालसा पंथ।

मुगलिया दहशतगर्दी के पापों का घट जब लबालब भर गया तो विधाता ने इसे ठोकर मारने का काम दशमेश पिता को सौंप दिया। इस ईश्वरीय आदेश का पालन करते हुए खालसा पंथ का निर्माण करके श्रीगुरु गोविंदसिंह रणक्षेत्र में कूद पड़े। युद्ध का मैदान ही इस संत राष्ट्र पुरुष का कार्य स्थल बन गया। श्रीगुरु नानकदेव द्वारा प्रारंभ किया गया अध्यात्म आधारित भक्ति अभियान अब संत योद्धा कलगीधर, सरवंशदानी श्रीगुरु गोविंदसिंह के वीरव्रतम आधारित सैनिक अभियान में बदल गया। खालसा पंथ के सैनिकों ने शत्रुओं के शीश काटने और स्वधर्म की रक्षार्थ अपने बलिदान देने का इतिहासिक धर्मयुद्ध छेड़ दिया।

Chaar Sahibzaade movie review: Inspiring, but lacks dramatic edge!

दशम् पातशाह ने मुगलों के हिंदुत्व विरोधी कुक्रत्यों, औरंगजेब द्वारा फैलाए जा रहे अधर्म, कट्टरपंथी इस्लामिक कानून व्यवस्था के अंतर्गत हो रहे सामाजिक अन्याय के प्रतिकार के लिए अपने चारों पुत्रों (साहिबजादों) को भी कुर्बान कर दिया। उन्होंने अपने 42 वर्षीय जीवन काल में छोटी-बड़ी 14 लड़ाइयां लड़ी। यह सभी रक्तिम संघर्ष अकाल पुरुष की आज्ञा एवं उसी की विजय के मद्देनजर किए गए थे। श्रीगुरु ने इस वैचारिक सिद्धांत को बहुत ही सुंदर शब्दों में कहा है – “वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतेह”

अर्थात यह खालसा पंथ भी अकाल पुरुख का है और युद्ध में इसकी विजय भी उसी परमशक्ति की ही है। अतः श्रीगुरु का खालसा अथवा ‘खालसा फौज’ का अपना कोई निजी स्वार्थ नहीं था। स्वधर्म एवं राष्ट्र की रक्षा का कार्य ईश्वरीय कार्य था। जिसे बलिदान भाव से प्रेरित होकर संपन्न किया गया।

उस कालखंड में भारत में हिंदुओं की संख्या लगभग 98% थी, इसी समाज में से चयनित सिंह (सैनिक) सजाए गए थे। अमृत छकने और छकाने से पहले स्वयं श्रीगुरु भी गोविंदराय थे। प्रथम गुरु श्रीगुरु नानकदेव से दशम् गुरु तक की अध्यात्मिक भक्ति और शक्ति की इतिहासिक परंपरा सनातन भारतीयता पर ही आधारित थी।

इसलिए यह कहने में कोई भी अतिश्योक्ति नहीं होगी कि यह ‘खालसा पंथ’ भारतीयों का, भारतीयों के लिए, भारतीयों के द्वारा सृजित किया गया एक ऐसा सैन्य अभियान था जिसने युग की धारा को ही बदल दिया। पहले जो समाज अपनी ही ढिलाई की वजह से मार खाता था उसने अब हथियार उठाकर शत्रु पर प्रहार करने शुरू कर दिए। जो लोग मुगलिया अत्याचारों से भयभीत होकर घरों की चारदीवारी में दुबके बैठे माला फेरते रहते थे, वह सब अब सिंह बनकर माला फेरने की कर्मकांडी प्रथा को छोड़कर शस्त्र चलाने की शौर्य गाथाएं रचने लगे।

इन सभी सैनिक अभियानों में युद्ध नायक दशम् गुरु ने स्वयं और स्वयं के परिवार का बलिदान करने में अग्रणी भूमिका निभाई। अमृत-पान के समय श्रीगुरु ने अपने पांचों सिंहों को आश्वासन दिया था ‘आपने धर्म की रक्षा के लिए सर दिए हैं मैं सरवंश दूंगा।‘ भाई दयासिंह ने कहा ‘सच्चे पातशाह हमने तो शीश देकर अमृत-पान किया है। आप खालसा को क्या भेंट करोगे?’ तुरंत दशम् पातशाह ने उत्तर दिया ‘मैं अपने सभी सुत खालसा की भेंट चढ़ाऊँगा। मैं सदैव अपने पांच सिहों में उपस्थित रहूंगा।‘

खालसा मेरा रूप है खास,

खालसे महि हौ करौ निवास।

खालसा पंथ के रूप में दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही भारतीय सिंह शक्ति और उसके विजयी सैन्य अभियानों से घबराकर औरंगजेब ने इस शक्ति को समाप्त करने के लिए पहाड़ी हिंदू राजाओं की मदद लेने का षड्यंत्र रचा। यह राजा भी दशम् गुरु की सैन्य शक्ति से घबराए हुए थे। अब खालसा पंथ के सामने दो शत्रु थे। एक मुगल और दूसरे कुछ पहाड़ी हिंदू राजा।

Sahibzada 'Ajit Singh' and 'Jujhar Singh' at the ' by Pen-Tacular-Artist on DeviantArt

‘चमकौर की गढ़ी’ नामक स्थान पर मुगलों की लाखों की सेना के साथ मुट्ठी भर सिख सैनिकों का युद्ध इसलिए भी इतिहास का एक लोमहर्षक अध्याय बन गया क्योंकि इसमें दशम् गुरु ने अपने दोनों युवा पुत्रों साहिबजादा अजीत सिंह (18) और साहिबजादा जुझार सिंह (15) को युद्ध भूमि में भेजा। यह दोनों गुरु पुत्र अनेकों शत्रुओं को यमलोक पहुंचा कर वीरगति को प्राप्त हुए। धन्य हैं ऐसा दशमेश पिता जिसने अपने दोनों युवा पुत्रों को स्वधर्म के लिए बलिदान होने की प्रेरणा और स्वीकृति दी।

इस युद्ध के समय श्रीगुरु का सारा परिवार बिखर गया। इनके दोनों छोटे बेटे 8 वर्षीय जोरावर सिंह और 6 वर्षीय फतेह सिंह को उनकी दादी माता गुजरी सुरक्षित लेकर एक गांव में पहुंची। इस गांव में गुरु परिवार का भक्त गंगू रहता था। इस धोखेबाज ने गुरु पुत्रों को सूबेदार वजीर खान की कैद में पहुंचा दिया। इन्हें जब इस्लाम कबूल करने के लिए कहा गया तो दोनों ने गरजते हुए कहा “हम दशमेश पिता के पुत्र हैं और धर्म के लिए शहीद होने वाले दादा तेग बहादुर के पौत्र हैं हम जान दे देंगे धर्म नहीं छोड़ सकते।“

Sahibzadeh Zorawar Singh And Fateh Singh – entombed alive but held their faith. – shwetank's-pad

इन वीर बालकों को जीते जी दीवारों में चिन देने का आदेश दिया गया। दोनों बच्चों ने ऊंची आवाज में उद्घोष किए – ‘वाहेगुरु जी का खालसा वाहेगुरु जी की फतेह’ जैसे-जैसे दीवार ऊंची होती गई यह वीर बालक उद्घोष करते रहे। स्वधर्म के लिए शहीद हुए गुरु पुत्रों ने बलिदान का अनोखा और अतुलनीय इतिहास रच डाला।

बच्चों की शहादत का समाचार सुनकर इनकी दादी माता गुजरी ने भी प्राण छोड़ दिए। उधर जब श्रीगुरु गोविंदसिंह ने सुना कि उनके दोनों छोटे बच्चे भी स्वधर्म की बलिबेदी पर कुर्बान हो गए हैं तो उनके मुख से यह इतिहासिक शब्द निकले ‘मुगल साम्राज्य का शीघ्र विनाश होगा’। ———-– क्रमश:

नरेंद्र सहगल

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक


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