राजीव सचान
कोरोना की दूसरी लहर ने देश में दारुण दृश्य उपस्थित कर दिए हैं। चारों ओर से निराश-हताश करने वाले समाचार-सूचनाएं आ रही हैं। किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश करना कठिन है, जिसके घर-परिवार, निकट संबंधियों या मित्रों में कोई कोरोना पॉजिटिव न हो। संकट केवल अस्पतालों में बेड का ही नहीं, बल्कि ऑक्सीजन और कुछ खास दवाओं का भी है। इसके अलावा कोरोना जांच और विशेष रूप से आरटी-पीसीआर टेस्ट कराना और समय रहते उसकी रिपोर्ट हासिल करना भी मुश्किल है। स्वास्थ्य ढांचा चरमराता दिख रहा है। लोग बेहाल हैं। स्वास्थ्य ढांचा केवल इसलिए चरमराता नहीं दिख रहा कि यकायक कोरोना मरीज बहुत बढ़ गए हैं, बल्कि इसलिए भी दिख रहा, क्योंकि वह पहले से ही दयनीय दशा में था।
यदि स्वास्थ्य ढांचा बेहतर होता तो भी अधिक कोरोना मरीजों का बोझ अस्पताल सह नहीं पाता
सच यह भी है कि यदि स्वास्थ्य ढांचा बेहतर होता तो भी शायद वह इतने अधिक कोरोना मरीजों का बोझ सह नहीं पाता। आखिर यह तथ्य है कि चंद दिनों पहले इटली, अमेरिका, ब्रिटेन आदि देश भी कोरोना मरीजों की देखभाल में नाकाम साबित हो रहे थे। उनके पास भी दूसरी लहर से बचने के लिए तैयारियों का अवसर था, मगर वे भी चूक गए और भारत से कम आबादी और बेहतर स्वास्थ्य ढांचे के बावजूद वहां कहीं अधिक लोग मरे। नि:संदेह इसका यह मतलब नहीं कि हमारी सरकारों को स्वास्थ्य ढांचा सुधारने की जरूरत नहीं। यह तो आज की सबसे पहली और बड़ी जरूरत है।
बुरा वक्त बीत जाने के बाद सरकारें स्वास्थ्य ढांचे को बेहतर बनाने में जुटें
केवल नीति-नियंताओं ही नहीं, बल्कि आम जनता को भी इसकी फिक्र करनी होगी कि यह बुरा वक्त बीत जाने के बाद सरकारें स्वास्थ्य ढांचे को बेहतर बनाने का काम प्राथमिकता के आधार पर करें। इसी के साथ इसकी भी चिंता करनी होगी कि कोरोना संक्रमण के साथ नफरत और नकारात्मकता का जो वायरस फैल रहा है, उसे कैसे रोका जाए? फिलहाल यह वायरस भी बेलगाम है। मीडिया और राजनीति पर इसका असर कुछ ज्यादा ही है। कुछ दलों के आरोप-प्रत्यारोप से यह लगता ही नहीं कि देश गहन संकट से दो-चार है। कटाक्ष करने में अपनी ऊर्जा खपा रहे ये दल इस बुनियादी बात से अवगत ही नहीं जान पड़ते कि जब संकट गहरा हो और जीवन-मरण का प्रश्न खड़ा हो गया हो तो आपसी मतभेद भुलाकर उससे मिलकर लड़ने की कोशिश की जाती है।
कांग्रेस नकारात्मकता से ग्रस्त
कांग्रेस सरीखे कुछ दल इस कदर नकारात्मकता से ग्रस्त हैं कि सोनिया गांधी ने आधिकारिक रूप से यह बताना भी जरूरी नहीं समझा कि उन्होंने टीका लगवा लिया है? क्या इसलिए नहीं बताया कि इससे देश को यह संदेश जाता कि उन्हें उस वैक्सीन पर भरोसा है, जिसे सरकार ने जल्द उपलब्ध कराने की कोशिश की या इसलिए कि फिर मोदी सरकार को कोसने में कुछ समस्या आती?
कमजोर स्वास्थ्य ढांचे के लिए केंद्र और राज्य, दोनों बराबर के जिम्मेदार हैं
कई राजनीतिक दल और कुदारवादी किस्म के बुद्धिजीवी ऐसे व्यवहार कर रहे हैं, जैसे कमजोर स्वास्थ्य ढांचे के लिए केवल केंद्र सरकार ही जिम्मेदार है? यह प्रतीति तब कराई जा रही है, जब लोक स्वास्थ्य राज्य के अधिकार क्षेत्र वाला विषय है। चूंकि कमजोर स्वास्थ्य ढांचे के लिए केंद्र और राज्य, दोनों बराबर के जिम्मेदार हैं, इसलिए आलोचना दोनों की होनी चाहिए। जब कोई किसी एक को बख्श देता है और दूसरे पर नजला गिराता है तो वह बेईमानी कर रहा होता है। इन दिनों इस बेईमानी का घनघोर प्रदर्शन राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया का एक हिस्सा खूब कर रहा है। मीडिया का यह वर्ग स्वास्थ्य ढांचे और कोरोना से निपटने में लगे सरकारी अमले की कमियां उजागर करने के नाम पर सरकारों संग समाज का मनोबल गिराने में लगा हुआ है।
राजनीति और पत्रकारिता ने बुनियादी उसूल ताक पर रख दिए
एक तरह से देखें तो इस कठिन समय राजनीति और पत्रकारिता, दोनों के बुनियादी उसूल ताक पर रख दिए गए हैं। इन उसूलों की अनदेखी कर जैसा क्षुद्र आचरण किया जा रहा है, उससे केवल इसी नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि यह सब करने वाले दूसरों की पीड़ा से आनंदित होने यानी परपीड़क लोग हैं।
देसी–विदेशी मीडिया का एक हिस्सा भारत की त्रासदी से आनंदित
ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं कि देसी-विदेशी मीडिया का एक हिस्सा किस तरह भारत की त्रासदी से आनंदित हो रहा है, फिर भी कुछ का उल्लेख जरूरी है। झूठी खबरों के लिए कुख्यात एक वेबसाइट ने लिखा कि रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह कह रहे हैं कि रामचरितमानस का पाठ करने से कोरोना संकट दूर हो जाएगा। पोल खुली तो उसने माफी मांगी, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि ऐसी खबरों का जो दूसरे मीडिया माध्यम इस्तेमाल कर लेते हैं, वे न तो माफी मांगने की जरूरत समझते हैं और न ही खंडन-मंडन करने का। वास्तव में ऐसे शरारती देसी मीडिया माध्यम ही उन विदेशी मीडिया माध्यमों को कच्चा-पक्का माल उपलब्ध कराते हैं, जिनका मकसद है भारत को नीचा दिखाना।
अमेरिकी अखबार ने जलती चिताओं की फोटो को गजब करार दिया
इसी मानसिकता से ग्रस्त अमेरिकी अखबार वाशिंगटन पोस्ट की दिल्ली संवाददाता ने जलती चिताओं की फोटो को ‘स्टनिंग’ यानी गजब करार दिया। आलोचना पर लज्जा आई तो उन्होंने अपना ट्वीट हटा दिया, पर वे बिल्कुल झूठी, किंतु प्रकाशित हो चुकी खबरें कैसे हटाई जा सकती हैं जिनमें कहा गया कि भारतीय प्रधानमंत्री लोगों को न तो टीका लगवाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं और न ही टीके से जुड़े भ्रम का निवारण करने के लिए कुछ कर रहे हैं।
विदेशी मीडिया का एक हिस्सा झूठ के साथ जहर भी उगल रहा
विदेशी मीडिया का एक हिस्सा झूठ के साथ जहर भी उगल रहा है। बीबीसी की एक रिपोर्टर का कहना है कि भारत में लोग जानवरों की तरह मर रहे हैं। इसे साबित करने के लिए जलती चिताओं के फोटो दिखाए जा रहे हैं। दुखद यह है कि भारत के खिलाफ नफरत भरी ऐसी तमाम खबरें कुछ भारतीय भी लिख रहे हैं। नकारात्मकता में डूबे वे भी भारतीय ही हैं, जो 50 हजार डॉलर पीएम केयर्स फंड में देने का एलान करने वाले ऑस्ट्रेलियाई क्रिकेटर पैट कमिंस को बेशर्मी के साथ यह समझा रहे हैं कि अरे कहां, अपना पैसा बर्बाद कर रहे हो, किसी और संस्था को यह पैसा दो।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं )
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