डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री
सप्त-सिंधु क्षेत्र या पश्चिमोत्तर भारत में जम्मू कश्मीर ही ऐसा प्रदेश है जिसमें पंद्रह प्रतिशत जनजाति समुदाय के लोग हैं। जनजाति समुदाय में सबसे ज्यादा संख्या गुज्जरों या गुर्जरा की है जिनकी मातृभाषा गोजरी है। लेकिन सरकारी नौकरियों और विधानसभा में इनको किसी किस्म का आरक्षण नहीं दिया जाता, जिससे सचिवालय और विधानसभा में कब्जा कश्मीरियों की तथाकथित बड़ी जातियों का ही बना रहता है । कश्मीरियों की बड़ी जातियां यह सारा खेल अनुच्छेद 370 की आड़ में खेलती थीं । लेकिन अब 370 की यह छतरी हट जाने के कारण गुज्जरों को भी उनके सभी सांविधानिक अधिकार प्राप्त हो जाएंगे । जम्मू -कश्मीर में इसी प्रकार का दूसरा प्रताडि़त समुदाय पहाड़ी राजपूतों का है । ये सभी क्षत्रिय वर्ग के लोग हैं। जम्मू संभाग के पुंछ-राजौरी जिलों में और उत्तरी कश्मीर के बांदीपुर, कुपवाड़ा, बारामूला जिलों में इन पहाड़ी राजपूतों की बहुतायत है।
इनकी मातृभाषा पहाड़ी है। ये भी सभी प्रकार के आरक्षण अधिकारों से बंचित प्राणी हैं। लेकिन सबसे बुरी स्थिति गुरेज की शीना जनजाति की है। इनकी मातृभाषा शीना है जो सरकारी उपेक्षा के कारण लगभग लुप्त होने के कगार पर है। गुरेज के स्कूलों में कहीं भी इसके पढ़ाने की व्यवस्था नहीं है। गुज्जरों की तरह शीना जनजाति को भी आरक्षण का कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। गुज्जरों की जनसंख्या बहुत ज्यादा है, इसलिए वे अनेक बार अपने अधिकारों और भाषा के संरक्षण के लिए आंदोलन भी करते रहते हैं। उन्होंने जनजाति का दर्जा भी 1991 में एक लंबे आंदोलन के बाद ही प्राप्त किया था। लेकिन शीना समुदाय जनसंख्या में कम होने के कारण ऐसा भी नहीं कर सकता।
कश्मीरी उनके साथ भेदभाव करते हैं। लेकिन अब सरकारी नौकरियों में तो उन्हें आरक्षण का लाभ मिलेगा ही। विधानसभा में भी आरक्षित की गई सीटों पर वे चुने जा सकते हैं। कश्मीरी सवर्ण जातियों की सबसे बड़ी चिंता यही है कि अनुच्छेद 370 हट जाने के कारण अब तक की प्रताडि़त और वंचित जनजातियां भी उनके मुकाबले उठ कर खड़ी हो जाएंगी। दूसरा सबसे बड़ा तबका अन्य पिछड़ी जातियों यानि ओबीसी का है। पूरे देश में ओबीसी को सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्राप्त है, लेकिन जम्मू-कश्मीर राज्य में उच्च वर्ग के लोगों ने अनुच्छेद 370 की ढाल आगे करके अन्य पिछड़ा वर्ग की जातियों को सरकारी नौकरियों में उनकी उचित हिस्सेदारी की बात तो दूर, प्रदेश में उनकी शिनाख्त तक नहीं होनी दी। अब जब कश्मीर घाटी में ऐसे वर्गों की शिनाख्त का काम शुरू होगा तो यकीनन सैयदों के घरों में रुदाली शुरू हो जाएगी क्योंकि कश्मीर में सैयदों की जनसंख्या बमुश्किल एक-दो प्रतिशत से ज्यादा नहीं है, लेकिन नौकरियों में उनका अनुपात सारी हदें तोड़ता है। प्रताडि़त वर्ग व अन्य पिछड़ा वर्ग के लोग जब अपने अधिकारों की मांग करते हैं तो ये मुफ्ती सैयद मस्जिदों में बिठा कर उन्हें शरीयत का ज्ञान दे कर बेहोश किए रहते हैं। अब 370 खत्म होने से कश्मीर में जो नई हवा चली है , उसने 70 साल से बंद मकान के दरवाजे खोल दिए हैं और अंदर से सड़ांध बाहर निकल रही है।
ताजी हवा मकान के अंदर जानी शुरू हुई है। जाहिर है मजहब की गोलियां खिला- खिला कर बेहोश की गई जातियां अंगड़ाई लेने लगी हैं। उनकी यह अंगड़ाई ही सैयदों के वर्चस्व के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनती जा रही है। यही कारण है कि वे 370 की लाश को रो-रोकर घर में संभालने का हठ किए हुए हैं और सुपुर्दे ख़ाक करने से आनाकानी कर रहे हैं। कभी न कभी तो जम्मू-कश्मीर को इस षड्यंत्र से मुक्ति मिलनी ही थी। लेकिन इसके लिए जिस साहस की जरूरत थी, वह अब तक की सरकारों में से किसी ने नहीं दिखाया। नरेंद्र मोदी बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने उस षड्यंत्र का अंत कर दिया जिसकी शुरुआत नेहरू, माऊंटबेटन दम्पत्ति और शेख़ मोहम्मद अब्दुल्ला ने 70 साल पहले की थी।
वैसे भी भारत सरकार ने स्वच्छता अभियान चला रखा है। लगे हाथ अनुच्छेद 370 में भी साफ -सफाई कर ली जाए तो भाव और अर्थ दोनों की रक्षा हो जाएगी। यह अलग बात है कि जम्मू-कश्मीर में जिनका आर्थिक और राजनीतिक स्वार्थ अनुच्छेद 370 से ही चलता है, वे जरूर रुदाली रुदन करेंगे और उनके साथ बकरे भी मींगन करेंगे कि बिना भाव को छेड़े केवल सफाई से भी रियासत का दर्जा-ए-खास नष्ट हो जाता है। ऐसे लोगों के लिए इतना ही कि अल्लाह इन्हें स्वच्छता में रहने की तौफीक दे। महाराजा हरि सिंह ने तो जम्मू-कश्मीर को भी उसी तरह भारत की नई संघीय व्यवस्था का हिस्सा बनाया था, जिस प्रकार देश की दूसरी रियासतों के महाराजाओं ने अपनी रियासतों को बनाया था।
जहां तक केवल तीन विषय के मामले में ही संघीय संविधान के लागू होने की बात है, शेष रियासतों के शासकों ने भी वही किया था क्योंकि यह व्यवस्था उस समय की नेहरू सरकार ने स्वयं की थी। बाद में शासकों ने पूरे संविधान को लागू किए जाने को स्वीकार किया, लेकिन जम्मू-कश्मीर के मामले में नेहरू सरकार ने महाराजा हरि सिंह से संवाद बनाए रखने के बजाय शेख अब्दुल्ला के साथ मिल कर हरि सिंह को निर्वासित करने में पूरा जोर लगा दिया और उसमें सफलता हासिल की। यह नेहरू और शेख अब्दुल्ला की जोड़ी थी जिन्होंने राज्य के अधिकांश लोगों की इच्छा के विपरीत अपवित्र अनुच्छेद 370 को जन्म दिया था। पंडित जवाहर लाल नेहरू, माउंटबेटन और शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की रणनीति से जम्मू-कश्मीर में 1947 में ही विवाद पैदा हो गया था। नेहरू ने इसे संयुक्त राष्ट्र संघ में ले जाकर इसे अंतरराष्ट्रीय स्वरूप दे दिया था, जिस विरासत को सभी सरकारें आज तक ढोती रही हैं।
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लेखक हरियाणा साहित्य एवं संस्कृति अकादमी के कार्यकारी उपाध्यक्ष है
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