क्या है इसके बनने की पूरी कहानी
ISI Role in Pakistan ऑपरेशन सिंदूर ने पाकिस्तान के आतंकियों को सबक सिखाया और उसकी फौजी मशीनरी की पोल खोल दी। ISI की नाकामी पर पाकिस्तान को शर्मसार होना पड़ा। ISI की स्थापना 1948 में हुई थी। इसका मकसद फौज नौसेना और हवाई फौज के बीच खुफिया जानकारी का तालमेल बिठाना था। ISI चीफ का पद सेना प्रमुख और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री दोनों के लिए महत्वपूर्ण है।
11 जून, 2025 – नई दिल्ली : ऑपरेशन सिंदूर से भारतीय सुरक्षा बलों ने न सिर्फ पाकिस्तान के आतंकियों को सबक सिखाया, बल्कि उनकी फौजी मशीनरी की पोल भी खोल दी। भारत के इस अभूतपूर्व जवाबी हमले ने पाकिस्तानी सेना और उसकी खुफिया एजेंसी ISI को हर मोर्चे पर बेदम कर दिया। वो ISI, जो खुद के जासूसों और खुफिया जानकारियों का दंभ भरती है, वह भारत की रणनीति के आगे बेबस नजर आई।
इस कहानी का एक और किरदार है जनरल सैयद आसिम मुनीर, जिन्हें हाल ही में पाकिस्तान ने फील्ड मार्शल पद पर तरक्की दी गई है। आर्मी चीफ बनने के पहले आसिम मुनीर भी ISI हेड रह चुका है। ऑपरेशन सिंदूर की हार के बावजूद उनका ये तरक्की पाना हैरान करने वाला है।
वैश्विक मंच पर ISI की नाकामी की चर्चा ने पाकिस्तान को शर्मसार किया और ये सवाल उठने लगे कि दुनिया को अपनी साजिशों के जाल में उलझाने वाली एजेंसी चकमा कैसे खा गई?
SI कैसे बनीं और अब तक इसने क्या-क्या गुल खिलाए हैं?
ISI यानी इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस, पाकिस्तान की सबसे अहम और ताकतवर खुफिया एजेंसी है। इसकी बुनियाद 1948 में रखी गई थी, जो पाकिस्तान की आजादी के एक साल बाद था। शुरुआत में, इसका मकसद फौज, नौसेना और हवाई फौज के बीच खुफिया जानकारी का तालमेल बिठाना था।
लेकिन वक्त के साथ, ISI ने अपने किरदार को विस्तार दिया और अब यह पड़ोसी मुल्क की सुरक्षा और सियासी पॉलिसियों पर गहरी पैठ रखती है। यह रक्षा मंत्रालय के अधीन काम करती है, लेकिन असल में पाकिस्तानी फौज, खासकर फौज के प्रमुख के सामने जवाबदेह है। ISI का रवैया कई बार सरकार के खिलाफ हो जाता है, अतीत में ISI कई बार पाकिस्तानी सरकारों के लिए सिर दर्द बन चुकी है।
ISI चीफ एक ऐसा पद है, जिस पर बैठने वाले शख्स पर सेना प्रमुख और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री दोनों ही लगाम रखना चाहते हैं। 1999 में पाकिस्तान में पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ की सरकार का तख्तापलट होने के पीछे भी ISI चीफ की नियुक्ति का ही मामला था।
पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल मुशर्रफ की किताब ‘इन द लाइन ऑफ फायर’ में इसका जिक्र मिलता है। जनरल मुशर्रफ ने लिखा, “सरकार और सेना के बीच अनबन की शुरूआत ही इस बात पर हुई थी कि ISI का डीजी किसे बनाया जाए।”
ISI के बजट को कभी सार्वजनिक नहीं किया गया है, लेकिन वॉशिंगटन स्थित फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट्स की ओर से कई साल पहले किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, ISI में 10 हजार अधिकारी और स्टाफ काम करते हैं, जिनमें जासूसों और मुखबिरों का नाम नहीं जोड़ा गया है। जानकारी के मुताबिक, ISI छह से आठ डिवीजनों में काम करती हैं।”
ISI के लोगो के पीछे की कहानी
पाकिस्तान की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) ने पहले एक लोगो का इस्तेमाल करती थी जिसमें मार्खोर नामक जंगली बकरी को दिखाया गया था। मार्खोर की तस्वीर पाकिस्तान की सुरक्षा में एजेंसी की भूमिका का प्रतीक थी, क्योंकि मार्खोर को राष्ट्रीय पशु माना जाता है और इसे सांपों का शिकारी माना जाता है। पाकिस्तान में सांप को अक्सर दुश्मन के तौर पर देखा जाता है। 2020 में, ISI ने एक नया लोगो अपनाया, जिसमें एक गोलाकार हरे रंग के बैज पर एक सुनहरा चील दिखाया गया है।
ISI का इतिहास: जंग, जासूसी और सियासत का खेल
जर्मन राजनीतिक विशेषज्ञ डॉक्टर हेन एच. केसलिंग ने अपनी किताब ‘द आईएसआई ऑफ पाकिस्तान’ में ISI के अलग-अलग दौर का जिक्र किया है।
उन्होंने किताब में लिखा, “आईएसएआई अभी भी पाकिस्तान में एक शक्तिशाली ताकत है। यह भारत को कश्मीर पर अवैध नियंत्रण रखने वाले एक पुराने दुश्मन के रूप में देखता है, जबकि अफगानिस्तान को भारतीय संरक्षण में एक अमित्र देश के रूप में देखा जाता है। जो पाकिस्तान, विशेष रूप से बलूचिस्तान में आतंकवाद को बढ़ावा देने में सहायक है। इसके बाद में आईएसआई सेना की रणनीतिक के इशारों पर ही काम करती है। वह सेना के लिए सरकार के खिलाफ जा सकती है। आईएसआई सेना के लिए बाहरी और आंतरिक राजनीति में भी अहम हथियार के तौर पर काम कर ही है।”
किताब ‘द ISI ऑफ पाकिस्तान’। फोटो सोर्स- हार्पर कोलिंस
1948 में भारत-पाक युद्ध के बीच पाकिस्तान ने खुफिया एजेंसी ISI (इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस) का गठन किया। 1950-60 के दशक में ISI पाकिस्तानी सेना का अहम हथियार बनकर उभरी, जिसने रणनीतिक और खुफिया मोर्चों पर अपनी ताकत बढ़ाई।
1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान ISI की खुफिया चूक ने पाकिस्तान को भारी नुकसान पहुंचाया, जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश का गठन हुआ। 1979-90 के दौरान सोवियत-अफगान युद्ध में ISI ने बिचौलिए की भूमिका निभाई और अफगानिस्तान में विद्रोह को हवा दी।
हेन एच. केसलिंग ने अपनी किताब में लिखा, “जनरल जिया-उल-हक के शासन (1977-88) में ISI (इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस) ने महानिदेशक अख्तर अब्दुल रहमान के नेतृत्व में अभूतपूर्व विस्तार और प्रभाव हासिल किया। इस दौरान ISI ने अफगानिस्तान ब्यूरो की स्थापना की, जिसने सोवियत-अफगान युद्ध में 80,000 मुजाहिदीन को ट्रेनिंग दिया, उन्हें लाखों अमेरिकी डॉलर नकद और अत्याधुनिक हथियारों के टन मुहैया किए।”
केसलिंग लिखते हैं, “अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA ने इस ऑपरेशन में ISI के साथ मिलकर काम किया। 1987 में सोवियत संघ की अफगानिस्तान से वापसी और 1988 के जिनेवा समझौते के बाद अमेरिका ने क्षेत्र से ध्यान हटाया, यह मानते हुए कि उसका मिशन पूरा हो गया।”
“ISI के नए महानिदेशक हामिद गुल ने अफगानिस्तान और भारत के प्रति अलग रणनीति अपनाई। उनकी पैन-इस्लामवादी विचारधारा और पीपुल्स पार्टी विरोधी रुख ने ‘जलालाबाद आपदा’ जैसी घटनाओं को जन्म दिया। गुल के कट्टरपंथी दृष्टिकोण के कारण उन्हें 1989 में सेवानिवृत्त जनरल शम्सुर रहमान कल्लु से प्रतिस्थापित किया गया। इस नियुक्ति के जरिए प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने ISI को ‘घरेलू’ बनाने की कोशिश की, लेकिन यह कोशिश नाकामयाब रही। ISI का क्षेत्रीय और घरेलू प्रभाव लगातार बढ़ता रहा।”
हेन एच. केसलिंग, ISI ऑफ पाकिस्तान किताब में जिक्र
- 1990 के दशक में ISI ने अफगानिस्तान में तालिबान को समर्थन दिया और कश्मीर में आतंकियों को पनाह दी, जिससे क्षेत्रीय तनाव बढ़ा।
- 1999 के कारगिल युद्ध में ISI की खुफिया नाकामी के चलते पाकिस्तान को हार का सामना करना पड़ा।
- 2000 से 2011 तक ISI ने अमेरिका और तालिबान के बीच डबल गेम खेला।
- इस दौरान अल-कायदा सरगना ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में पनाह देने के लिए ISI की वैश्विक स्तर पर किरकिरी हुई।
- 2010 से अब तक ISI ने साइबर इंटेलिजेंस और जासूसों के नेटवर्क को मजबूत किया है, साथ ही पाकिस्तान की घरेलू राजनीति में भी गहरी दखलअंदाजी की है।
नवाज शरीफ की इंडिया पॉलिसी पर भारी थी ISI
‘ISI ऑफ पाकिस्तान’ किताब में लेखक केसलिंग लिखते हैं, “पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) सरकार ने भारत के साथ रिश्ते को सुधारने को कोशिश की थी, लेकिन इसके आड़े सेना और ISI आ गई। नवाज सरकार ISI पर काबू पाने के लिए एक नई खुफिया तंत्र का गठन करना चाहती थी, लेकिन आईएसआई की पैंतरेबाजी और सत्ता में गहरी रुचि की वजह से ऐसा मुमकिन नहीं हो सका। नवाज सरकार की ओर से आईएसआई को साइडलाइन करने की कोशिश पर बौखलायी एजेंसी ने पनामा पेपर लीक करवाया और न्यायपालिका को भी फैसले लेने का दवाब बनाया।”
सौजन्य : दैनिक जागरण
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