रामगोपाल
भव्य महाकुंभ के रूप में विश्व के सबसे विशाल आध्यात्मिक समागम का पड़ाव बने प्रयाग को तीर्थों में भी तीर्थराज कहा गया है। धर्मग्रंथों में भी तीर्थराज प्रयाग की अनंत महत्ता का वर्णन है। मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अयोध्या से वनवास जाते समय प्रयाग स्थित भारद्वाज ऋषि के आश्रम में अपनी सहधर्मिणी सीता एवं भाई लक्ष्मण के साथ पधारे थे। तीर्थराज प्रयाग में आकर श्रीराम को अत्यंत सुखद अनुभूति हुई थी।
श्रीराम के प्रयाग और मनुष्य के जीवन को भी प्रयाग समझा जाए तो उनमें बड़ी समानता दिखती है। प्रयाग का अर्थ हिंदी साहित्य के शीर्षस्थ समालोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उस स्थल के रूप में बताया है, जहां बहुत से यज्ञ होते हैं। प्रयाग शब्द की व्युत्पत्ति भी ‘प्र’ उपसर्ग और ‘याग’ शब्द से हुई है। ‘प्र’ उपसर्ग को प्रथम तथा ‘याग’ को यज्ञ कहा गया है। यहां ब्रह्मा जी ने प्रथम यज्ञ किया था। यदि देखा जाए तो मनुष्य जन्म पाना अत्यंत भाग्यशाली यज्ञ है, क्योंकि मनुष्य जीवन के लिए देवता भी तरसते हैं।
प्रयाग में गंगा-यमुना नदियों को मनुष्य जीवन में इड़ा-पिंगला नाड़ियों से जोड़ना सार्थक इसलिए प्रतीत होता है, क्योंकि मां के गर्भ से बाहर आने के बाद मंनुष्य इन्हीं नाड़ियों से सांस लेता है। जबकि गर्भ में मां की सांस पर पलता है। तीर्थराज प्रयाग की तीसरी धारा ऋषियों-मुनियों के ज्ञान की धारा है। संसार में आकर जब शिशु का बौद्धिक विकास होता है तो वह सरस्वती की धारा से जुड़ता है।
इस तरह मनुष्य का संसार में जन्म लेना भी किसी तीर्थस्थल जैसा तब हो जाता है, जब वह सात्विक जीवन जीते हुए ज्ञान की धारा से आबद्ध होता है। ज्ञान की उन्नत धारा के लिए अदृश्य सुषुम्ना नाड़ी को ‘योग-यज्ञ’ के जरिये जागृत कर जीवन को पवित्र बनाया जा सकता है। इसे कुंडलिनी जागरण भी कहा जा सकता है। प्रयाग में भी कल्पवास के दौरान कुंडलिनी जागरण का यत्न करना श्रेयस्कर माना गया है।
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