भारत के इतिहास में अनेक वीर योद्धा हुए हैं जिन्होंने अपनी तलवार से विदेशी आक्रांताओं को ललकारा, धर्म की रक्षा की, और मातृभूमि के लिए बलिदान दिया। लेकिन इनमें से कुछ नाम ऐसे हैं जो समय की गर्द में धुंधले नहीं पड़ते, बल्कि युगों-युगों तक प्रेरणा का स्रोत बने रहते हैं। सरदार जस्सा सिंह अहलूवालिया उन्हीं महापुरुषों में से एक हैं — एक सच्चे राष्ट्रभक्त, महान योद्धा और हिंदू धर्म के रक्षक।
प्रारंभिक जीवन और आध्यात्मिक परवरिश
सरदार जस्सा सिंह का जन्म 3 मई 1718 को लाहौर ज़िले के पिंड अहलू (जो आज पाकिस्तान में है) में हुआ। उनके पिता का नाम बदर सिंह और माता का नाम जीवन कौर था। बाल्यावस्था में ही पिता का देहांत हो जाने के बाद, वह अपनी माता के साथ दिल्ली चले गए, जहाँ उन्होंने माता सुंदर कौर जी की सेवा में सात वर्ष बिताए। वहीं पर उन्होंने गुरुबाणी, कीर्तन, और सिख मर्यादा में शिक्षा प्राप्त की।
सैन्य जीवन और दल खालसा का नेतृत्व
युवा अवस्था में ही जस्सा सिंह ने शिरोमणि अकाली बुढ़ा दल से जुड़कर अपने सैन्य जीवन की शुरुआत की। समय के साथ उनका पराक्रम और नेतृत्व कौशल इतना प्रभावशाली हुआ कि उन्हें बुढ़ा दल का चौथा जथेदार नियुक्त किया गया। 10 अप्रैल 1754 को श्री अकाल तख्त साहिब के सामने सरबत खालसा में उन्हें श्री अकाल तख़्त का जथेदार नियुक्त किया गया।
1761: जब 2200 हिंदू बेटियों को मुक्ति मिली
भारत के इतिहास की एक अत्यंत मार्मिक और गौरवपूर्ण घटना 1761 ई. में घटी, जब अहमद शाह अब्दाली ने पानीपत की लड़ाई में मराठों को हराकर उनके माल, खजाने और 2200 हिंदू महिलाओं को बंदी बना लिया।सरदार जस्सा सिंह अहलूवालिया ने दल खालसा का नेतृत्व करते हुए अब्दाली के काफिले पर धावा बोला और 2200 महिलाओं को मुक्त करवाकर सम्मानपूर्वक उनके घरों तक पहुँचाया।
यह घटना न केवल उनकी वीरता का प्रमाण है, बल्कि यह दिखाता है कि वे नारी सम्मान के रक्षक और भारत की अस्मिता के प्रहरी थे।
लाल किले पर केसरी निशान: एक ऐतिहासिक पल
11 मार्च 1783, भारतीय इतिहास का एक और स्वर्णिम अध्याय बना। सरदार जस्सा सिंह अहलूवालिया, सरदार बघेल सिंह, गुरदित्त सिंह और अन्य सिख सेनापतियों के साथ मिलकर दिल्ली के लाल किले पर विजय प्राप्त की। दिल्ली के तत्कालीन मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय को हराकर लाल किले की प्राचीर पर केसरी निशान साहिब फहराया गया। उसी दिन सरदार जस्सा सिंह को “ਸਲਤਨਤ–ਇ–ਕੌਮ” (पंथ का सुल्तान) की उपाधि मिली।
श्री हरिमंदिर साहिब (दरबार साहिब) की पुनः स्थापना
1762 में, जब अब्दाली ने अमृतसर पर हमला कर श्री हरिमंदिर साहिब को तोपों से उड़ा दिया, तो जस्सा सिंह अहलूवालिया चुप नहीं बैठे। उन्होंने संगत के सहयोग से 10 लाख रुपए का दान दिया और दरबार साहिब की दोबारा नींव रखी।
सिख नरसंहार और जस्सा सिंह की वीरता
5 फरवरी 1762, सिख इतिहास में ਵੱਡਾ ਘੱਲੂਘਾਰਾ के नाम से जाना जाता है। यह वह दिन था जब अब्दाली की विशाल सेना ने दल खालसा पर हमला किया, और लगभग 30,000 सिख पुरुष, महिलाएं और बच्चे शहीद हुए। इस विभीषिका में भी जस्सा सिंह अहलूवालिया ने नेतृत्व करते हुए 64 घाव सहन किए लेकिन पीछे नहीं हटे। अंततः उन्होंने शेष सेना को संगठित कर दुश्मन पर प्रतिघात किया और विजय प्राप्त की।
विद्वान, राजनीतिज्ञ और जनता के नायक
जस्सा सिंह को कई भाषाओं का ज्ञान था और वे एक कुशल प्रशासक भी थे। उन्होंने केवल युद्ध नहीं लड़े, बल्कि पंजाब से अटक, कांगड़ा, मुल्तान, सहारनपुर तक क्षेत्र को संगठित कर शांतिपूर्ण शासन की नींव रखी। उन्होंने जालिम हाकिमों को हटाकर धर्म और न्याय की नींव पर राज्य व्यवस्था स्थापित की।
अंतिम समय और विरासत
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में उन्होंने सार्वजनिक जीवन से दूरी बनाकर ज़्यादा समय श्री दरबार साहिब में सेवा और साधना में बिताया। उन्होंने अपने राज्य का प्रबंधन सरदार भाग सिंह को सौंप दिया। 20 अक्टूबर 1783 को उन्होंने अकाल चलाना किया। उनका अंतिम संस्कार बाबा अटल राय साहिब (अमृतसर) में किया गया।
सौजन्य : इन रिपोर्ट्स
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