BJP vs Opposition: लोक सभा चुनावों के लिए एक वर्ष से कम समय रह गया है और प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भाजपा को पराजित करने के लिए विपक्षी दल प्रयासरत है। कुछ हिचकिचाहट और आरंभिक अड़चनों के बाद पटना में विपक्षी दलों की बैठक हुई। इस बैठक का बिहार के मुख्यमंत्री और जद (यू) सुप्रीमो नीतीश कुमार ने नेतृत्व किया और इसमें शामिल होने वाले नेताओं में कांगे्रस पार्टी के चेहरे राहुल गांधी और इसके अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, तृणमूल सुप्रीमो और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, द्रमुक अध्यक्ष और तमिलनाडू के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, आप के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, झारखंड के मुख्यमंत्री और झामुमो नेता हेमन्त सोरेन, समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव, शिव सेना-उद्धव गुट के अध्यक्ष उद्धव ठाकरे, माकपा महासचिव सीताराम येचुरी और भाकपा महासचिव डी राजा के शामिल हुए। BJP vs Opposition
पिछले माह कर्नाटक विधान सभा चुनावों में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा स्वयं चुनाव प्रचार का नेतृत्व करने के बावजूद भाजपा की हार से विपक्षी दलों ने महसूस किया है कि 2024 की लड़ाई खत्म नहीं हुई है और भाजपा अपराजेय भी नहीं है। विपक्ष की सोच गलत नहीं है किंतु उसे इस बात को नहीं भूलना होगा कि उनकी पहली प्राथमिकता विपक्षी दलों में बिना किसी किंतु-परंतु के पूर्ण एकता बनाना होनी चाहिए। क्या यह संभव है?
यदि विपक्ष को भाजपा को पराजित करना है तो इसकी पूर्व शर्त है कि वे भाजपा के खिलाफ उन्हें एकमन होकर एकजुट होकर चुनाव लड़ना होगा। इस रणनीति के बारे में कुछ विपक्षी दलों जैसे ममता बनर्जी और नीतीश कुमार ने पहले ही अपने विचार व्यक्त कर दिए हैं। इस रणनीति के अनुसार जिन राज्यों में जो पार्टी मजबूत स्थिति में है वह भाजपा के खिलाफ चुनाव लडेÞ और लोक सभा चुनावों को द्विपक्षी लड़ाई बनाए ताकि भाजपा विरोधी मतों का बंटवारा न हो और यदि यह नीति लागू की जाती है तो अनेक राज्यों में भाजपा को हराना कठिन नहीं है। जैसा कि कर्नाटक के चुनावों में देखने को मिला कि पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौडा के जद (एस) के कारण भाजपा को आशा जगी थी कि भाजपा विरोधी वोट बंटेंगे किंतु ऐसा नहीं हुआ और कांग्रेस को कर्नाटक में भारी जनादेश मिला।
भाजपा का मत प्रतिशत 2018 के चुनावों के बराबर ही रहा किंतु जद (एस) के वोट कांग्रेस को मिलने से कांग्रेस को भारी जीत मिली। यह इस वर्ष त्रिपुरा विधान सभा चुनावों के विपरीत है जहां पर त्रिपुरा राजवंश के प्रद्युत देबबर्मा की त्रिपुरा मोथा ने भाजपा विरोधी वोटों को बांटा और जिसके वामपंथी तथा कांग्रेस गठबंधन की हार हुई और अंतत: भाजपा दूसरी बार त्रिपुरा में सत्ता में लौटी।
किंतु मुख्य समस्या यह है कि कुछ दल इस रणनीति को नहीं अपनाएंगे। कांग्रेस को ही लें। यदि भाजपा के विरुद्ध आमने-सामने की रणनीति को अपनाया जाता है तो कांग्रेस को अनेक सीटें छोड़नी होंगी। उसे उत्तर प्रदेश में अमेठी और रायबरेली छोड़कर और सीटें नहीं मिलेंगी। क्या पार्टी ऐसा कर पाएगी? क्या प्रदेश कांग्रेस नेता इसे स्वीकार करेंगे? हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस स्वयं इस बात को मानती है कि भाजपा के अलावा वह ही केवल एक राष्ट्रीय पार्टी है और उसे भाजपा के विरुद्ध मुकाबले में नेतृत्व करना चाहिए और कर्नाटक में बड़ी जीत के बाद उसकी यह धारणा और प्रबल हुई है। Opposition unity against BJP
कांगे्रस मुख्यालय और प्रदेश कांगे्रस नेताओं की अब आशाएं जगी हुई हैं और वे अन्य विपक्षी दलों के साथ कड़ी सौदेबाजी करेंगे। तथापि तृणमूल कांगेस और आप जैसी पार्टियां कांग्रेस के वर्चस्व को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। ममता और केजरीवाल ने इस बात का स्पष्ट संकेत दे दिया है कि वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं हालांकि तृणमूल कांग्रेस द्वारा पश्चिम बांगल से बाहर अपने जनाधार को बढ़ाने के प्रयास विफल हुए हैं और उसे हाल ही के चुनावों में हार का सामना करना पड़ा जिसके कारण उसका राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा वापिस लिया गया। आप की भी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाएं है और उसे राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिलने से उसके हौसले बुलंद है।
आप हिन्दी भाषी क्षेत्रों में कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगा रही है और पंजाब में कांग्रेस उसकी मुख्य प्रतिद्वंदी थी जहां पर पिछले वर्ष उसे हराकर आप सत्ता में आई। दूसरी ओर कांग्रेस की पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की प्रबल प्रतिद्वंदी माकपा के साथ साझीदारी है और कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी जो लोक सभा में पार्टी के नेता भी हैं, वे ममता बनर्जी के कटु आलोचक हैं। वर्ष 2021 में राज्य विधान सभा चुनावों में वामपंथी दलों को एक भी सीट नहीं मिली थी किंतु अब उसकी स्थिति मजबूत हो रही है। वह तृणमूल कांगे्रस और भाजपा दोनों को निशाने पर ले रही है। इसलिए भाजपा के विरुद्ध आमने-सामने की लड़ाई पश्चिम बंगाल में लागू करना कठिन है।
इसी तरह केरल में जहां पर माकपा और कांग्रेस परंपरागत प्रतिद्वंदी हैं, वहां पर भाजपा के विरुद्ध इस रणनीति को लागू करना संभव नहीं है। तेलंगाना में भी यही स्थिति है जहां पर कांग्रेस मुख्यमंत्री के. चन्द्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति को चुनौती देगी। इसलिए कुछ राज्यों में भाजपा विरोधी गठबंधन बनने की संभावना नहीं है। इससे केवल यह धारण मजबूत होगी कि विपक्षी दल बंटे हुए हैं और किसी वैकल्पिक दृष्टिकोण के बिना केवल भाजपा को हराने के लिए एकजुट हो रहे हैं और इस तरह की छवि से मतदाता विपक्षी दलों के पक्ष में मतदान नहीं करेंगे। विपक्षी दल भी जानते हैं कि कुछ राज्यों में उनमें एकजुटता होना संभव नहीं है और इसलिए वह न्यूनतम साझा कार्यक्रम की बात कर रहे हैं।
यदि विपक्षी दलों के बीच अच्छा समन्वय स्थापित भी होता है तो वह भाजपा को हराने के लिए पर्याप्त नहीं है। चुनाव केवल गणित नहीं है, यह केमिस्ट्री भी है किंतु ऐसा लगता है विपक्षी दल पिछले लोक सभा चुनावों के परिणामों को भूलकर केवल गणित पर कार्य कर रहे हैं जब भाजपा ने अपने छोटे सहयोगियों के साथ उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, कर्नाटक, अरूणाचल प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, गुजरात, अरूणाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली और झारखंड में 50 प्रतिशत से अधिक मत प्राप्त किए थे और इन सभी राज्यों से लोक सभा के लिए 241 सीटें आती हैं।
गठबंधन या सीटों के तालमेल से भाजपा विरोधी मतों का बंटवारा कम होगा किंतु जब तक विपक्षी दल भाजपा के जनाधार में सेंध लगाने में सफल नहीं होते हैं तब तक भाजपा को हराना मुश्किल है और हिन्दी भाषी क्षेत्रों में भाजपा की स्थिति काफी मजबूत है। भाजपा के मतों में सेंध लगाने के लिए विपक्षी दलों को मतदाताओं के समक्ष वैकल्पिक दृष्टिकोण रखना होगा। केवल भाजपा विरोधी या मोदी विरोधी विचारों को व्यक्त करने या केवल गणित पर ध्यान देने से विपक्षी दलों को सहायता नहीं मिलेगी क्योंकि मतदाता ऐसी सरकार चाहते हैं जो कार्य कुशल हो और विकास कार्य करे तथा साथ ही सरकार स्थिर भी हो। BJP vs Opposition
सागरनील सिन्हा, वरिष्ठ लेखक एवं स्वतंत्र टिप्पणीकार (ये लेखक के अपने निजी विचार हैं)
आभार : https://www.sachkahoon.com/opposition-unity-efforts-against-bjp/
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