एक तरफ भारत में हो रहे नित-नए संघर्ष और विरोध अंग्रेजों के माथे पर बल डाल रहे थे तो वहीं दूसरी तरफ देश गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए प्रतिबद्ध विदेश में रह रहे प्रवासी भारतीय भी ब्रिटिश सत्ता की नींव हिला रहे थे।
अनिल जोशी
एक तरफ भारत में हो रहे नित-नए संघर्ष और विरोध अंग्रेजों के माथे पर बल डाल रहे थे तो वहीं दूसरी तरफ देश गुलामी की जंजीरें तोड़ने के लिए प्रतिबद्ध विदेश में रह रहे प्रवासी भारतीय भी ब्रिटिश सत्ता की नींव हिला रहे थे। आजादी के अमृत महोत्सव के संदर्भ में उनके योगदान को स्मरण करना महत्वपूर्ण है। इसे रेखांकित करता अनिल जोशी का आलेख…
हम स्वतंत्रता संघर्ष के लिए महात्मा गांधी व अन्य प्रमुख नेताओं का हार्दिक अभिनंदन तो करते ही हैं। भारत में आजादी के संघर्ष के लिए इन नेताओं का योगदान महत्वपूर्ण है पर यहां यह जानना भी जरूरी है कि भारत की आजादी केवल शांति-अहिंसा से नहीं ली गई, बल्कि अंग्रेज जानते थे कि प्रवासी भारतीय भी दासता की जंजीरें तोड़ने के लिए प्रतिबद्ध हैं। भारत में आजादी के लिए जितने भी सशस्त्र संघर्ष हुए उसमें प्रवासी भारतीयों की भागीदारी, योगदान, त्याग और बलिदान अविस्मरणीय है।
चिंगारी को मिला गदर का बारूद
सबसे पहले बात करते हैं गदर आंदोलन की। वर्ष 1857 के बाद भारत की आजादी के लिए किया गया यह सबसे प्रमुख सशस्त्र संघर्ष था। प्रवासी भारतीयों ने विशेष रूप से पंजाबी सिखों ने 20वीं शताब्दी के शुरुआती दौर में कनाडा जाना शुरू किया था परंतु वहां जातीय भेद और असमानता को देखते हुए वे अमेरिका में कैलिफोर्निया चले गए। अमेरिका में डाक्टर हरदयाल के रूप में एक चिंगारी पहले ही मौजूद थी। यह बारूद का इंतजार कर रही थी। उन्होंने इन प्रवासी भारतीयों को संगठित किया और उन्हें एक उद्देश्य दिया- भारत की आजादी। जिसे उस समय उन्होंने गदर कहा।
पेसिफिक कोस्ट हिंदुस्तानी एसोसिएशन ने गदर पार्टी का स्वरूप लिया
भारतीयों के दिल में आजादी के लिए लगी आग के कारण अमेरिका में ‘पेसिफिक कोस्ट हिंदुस्तानी एसोसिएशन’ का गठन हुआ। बाद में इसने गदर पार्टी का स्वरूप लिया। सोहन सिंह भखाना इसके अध्यक्ष और लाला हरदयाल महामंत्री थे। इस पार्टी के साथ ही इनका मुख्यालय युगांतर आश्रम भी प्रसिद्ध हुआ। इसका मुख्यालय सैन फ्रांसिस्को में है, जिसके दर्शन का मौका मुझे वर्ष 2018 में मिला। इसकी ख्याति का एक बहुत बड़ा कारण इसकी पत्रिका थी जो किंचित अकबर इलाहाबादी की इन पंक्तियों पर विश्वास करती थी कि ‘अगर तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो’। गदर अंग्रेजी, उर्दू और हिंदी में निकलता था। क्या कोई कल्पना भी कर सकता है कि एक समय में गदर की छपने वाली प्रतियों की संख्या दस लाख थी!
छावनी में विद्रोह का बनाया प्लान
गदर पत्रिका के संपादकों में से एक थे करतार सिंह सराभा। वे और गदर पार्टी से जुड़े विष्णु गणेश पिंगले आजादी के दीवाने थे। अपनी संस्था और पत्रिका की लोकप्रियता के चलते उन्हें यह विश्वास हो गया था कि प्रथम विश्व युद्ध के समय जब अंग्रेजी सैनिक ब्रिटेन को बचाने में व्यस्त हैं वे अंग्रेजी फौज में काम कर रहे भारतीय सैनिकों के माध्यम से विद्रोह कर सकते हैं। योजना 8,000 प्रवासी भारतीयों के भारत आने की थी। यह बात केवल विचार तक सीमित नहीं थी बल्कि करतार सिंह सराभा अपने साथियों के साथ अमेरिका से पंजाब पहुंचे। उन्होंने यह भी प्रयास किया कि छावनियों में विद्रोह हो जाए ताकि उनके साथी, आजादी के मतवालों को गोला बारूद मिल सके। अंग्रेजी प्रशासन और जबर्दस्त जासूसी व्यवस्था के चलते वे सफल नहीं हो पाए।
इन मामलों में दो बार मुकदमे चले, जिन्हें लाहौर षड्यंत्र केस कहा गया। पहले मुकदमे में सितंबर, 1915 को गदर पार्टी के 24 नेताओं को मृत्युदंड और बाकियों को उम्रकैद दी गई। इसी प्रकार दूसरे मुकदमे में 30 मार्च, 1916 को पार्टी के सात सदस्यों को फांसी, 45 को उम्रकैद और अन्य सदस्यों को चार से आठ वर्ष का कठोर कारावास दिया गया। हालांकि जिन लोगों को फांसी हुई, उसमें से कइयों की सजा बाद में काला पानी के रूप में बदल दी गई। जिनको फांसी हुई, उनमें करतार सिंह सराभा प्रमुख थे। वह लेखक, कवि, रचनाकार, जो अपने लेखन के माध्यम से स्वतंत्रता का पैगाम सुनाया करता था, देश के प्रति अपनी दीवानगी के चलते फांसी के फंदे पर झूल गया।
नहीं मिला वह सम्मान
प्रवासी भारतीयों की यह दिलचस्प दास्तान बहुत हद तक दस्तावेजों में रही और उन नायकों को वह सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे। करतार सिंह सराभा जैसे क्रांतिकारियों द्वारा विरासत में दी गई चिंगारियों को इस तरह से समझा जा सकता है कि जब भगत सिंह का बलिदान हुआ जिसने पूरे भारत को हिला दिया तो उनके पर्स में जो चित्र निकला, वह करतार सिंह सराभा का था। भगत सिंह की मां कहती थीं कि यह चित्र भगत सिंह सदा अपने साथ रखते थे। जिस तरह से भगत सिंह ने परिणामों को जानते-बूझते हुए संसद में बम फेंका और दबे-कुचले लोगों के पक्ष में अदालत में सशक्त बयान दिया, उससे स्पष्ट है कि वह करतार सिंह सराभा का ही अनुकरण कर रहे थे।
पनपा दूसरे संघर्ष का बीज भारत में आने के बाद गदर पार्टी का नेतृत्व करने के लिए पार्टी ने रासबिहारी बोस को चुना। रासबिहारी बोस ने भारत की पहली निर्वासित सरकार विदेश में बनाई। इसके राष्ट्रपति महेंद्र प्रताप सिंह और बरकतउल्ला प्रधानमंत्री थे।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि भारत में सशस्त्र क्रांति के द्वारा भारतीय स्वतंत्रता स्थापित करने का सबसे प्रमुख प्रयास गदर आंदोलन के माध्यम से हुआ। जिसके प्रणेता प्रवासी भारतीय थे। विदेश से भारत की स्वतंत्रता के दूसरे संघर्ष का बीज इस पहले सशस्त्र संघर्ष में छुपा हुआ था।
रासबिहारी बोस बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में तो किंचित सफल नहीं हुए परंतु वह जापान पहुंचे और उन्होंने आजाद हिंद फौज की स्थापना की। वे संघर्ष का आधार तैयार कर रहे थे। पहले सशस्त्र संघर्ष के अनुभव और पृष्ठभूमि के आधार पर वे चाहते थे कि अगली लड़ाई के लिए ब्रिटेन के दुश्मन जापान और जर्मनी का सक्रिय सहयोग उन्हें मिले। इसी बीच नेताजी सुभाष चंद्र बोस 1941 में विदेश चले गए।
नेताजी जैसे चमत्कारिक व्यक्तित्व के विदेश आने पर आजाद हिंद फौज के आंदोलन को वह चमक मिली जो अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष का आधार बनी। सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिंद फौज की सरकार की घोषणा की। भारत की आजादी के लिए वे सिंगापुर आए, जहां उस समय जापान की कैद से मुक्त कराए गए लगभग 60,000 सैनिक आजाद हिंद फौज में शामिल हो गए। दुनिया के कई देशों से उन्हें सहयोग मिला। सारी दुनिया को असाधारण रूप से चकित करते हुए उनके सैनिकों ने अंडमान और निकोबार और कोहिमा जैसे स्थानों पर विजय प्राप्त की।
भाग खड़े हुए विदेशी
इसके बाद तो आजादी जैसे अंगड़ाई लेने लग गई। विश्व की घटनाओं का चक्र कुछ इस तरह से घूमा कि जर्मनी और जापान परास्त हो गए और इसी के साथ आजाद हिंद फौज की धार कमजोर हुई परंतु प्रवासी भारतीयों द्वारा प्रेरित और संचालित इन दोनों सशस्त्र क्रांतियों के द्वारा ब्रिटिश सरकार को यह मालूम पड़ गया कि अब भारत गुलाम नहीं रहने वाला और इस मुहिम में न केवल भारतीय बल्कि दुनिया के विभिन्न देशों में रहने वाले प्रवासी भारतीय सक्रिय और गतिशील रूप से शामिल हैं और इस उद्देश्य के लिए प्राणपण सर्वस्व करने को तैयार हैं। यह ब्रिटिश राज के लिए खतरे की घंटी थी, परिणामस्वरूप वे भारत से पलायन करने लगे।
प्रवासी भारतीयों के इस बलिदान से भारत आज भी प्रेरणा ले सकता है। भारत, भारतीयता और भारतीय हितों के संबंध में यह लगाव और चिंता हमें 100 साल पहले से दिखाई देती है। वह आज व्यापक रूप ले चुकी है। आजादी के इस अमृत महोत्सव के समय प्रवासी भारतीयों के विशिष्ट योगदान को याद कर उन्हें श्रद्धांजलि देना आजादी के अमृत महोत्सव का सम्यक मूल्यांकन होगा।
सौजन्य : दैनिक जागरण
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