मुकुल कानिटकर
‘‘हम भारतवासी, पूरी गंभीरता से भारत को एक सार्वभौम, लोकतांत्रिक गणराज्य के रुप में… अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करने का संकल्प करते हैं।’’ भारत के संविधान की मूल प्रस्तावना की यह प्रारम्भिक पंक्तियाँ हैं। 1975 में पूरे देश में आपातकाल थोपकर संविधान की हत्या करनेवाले 42वे संविधान संशोधन में इसमें ‘सार्वभौम’ के बाद ‘पंथनिरपेक्ष’ तथा ‘समाजवादी’ ये दो विशेषण और जोड़े गये।
संविधान की मूल प्रकृति तथा प्रावधान में किसी भी प्रकार के संशोधन के बिना ही उसके उद्देश्य में दो अनावश्यक संकल्पनाओं की पूछ जोड़ दी गई। अनावश्यक इसलिए कि यह भारत का मूल स्वभाव है। यूरोप के ऐतिहासिक अनुभूति से जन्मी सेक्युलर संकल्पना का अर्थ मूल रूप से चर्च से निरपेक्ष राज्य में है। चर्च के अतिहस्तक्षेप के विरुद्ध आंदोलन प्रोटेस्टंट विचार से सेक्युलर राज्य तथा व्यक्तिवादी नैतिकता का विकास हुआ। भारत में हिंदू विचार में विविधता का सम्मान केवल दर्शन और सिद्धांत में ही नहीं, अपितु व्यवहार में भी सब स्तर पर सुस्थापित रहा है।
‘एकं सत् विप्रा: बहुधा वदन्ति’ तथा ‘सर्व देव नमस्कारः केशवं प्रति गच्छति’ जैसे तत्व राज्य व्यवस्था में भी सदियों से अपनाये गए हैं। भारत में राज्य व्यवस्था किसी एक पंथ अथवा संप्रदाय के अधीन कभी नहीं थी। इस संकल्पना का प्रचलित अर्थ ‘सर्व पंथ समभाव’ है। यह भी हिंदू का स्वभाव है। ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ की प्रार्थना करनेवाला हिंदू समाज जब तक बहुसंख्य रहता है तब तक सभी पंथ सुरक्षित रहते हैं। किंतु विश्व में जहाँ भी अन्य किसी अब्राहमिक रिलिजन (हिंदी में अनुवाद संभव नहीं) का बाहुल्य होता है वहाँ अन्य पंथावलंबी असुरक्षित हो जाते हैं। अतः हिंदुत्व ही यथार्थ सेक्युलर है।
समाजवाद भी भारत के विकास प्रतिमान में अंतर्निहित है। प्रचलित समाजवादी राजनीति जिस लोकलुभावन वामपंथी विचारों से प्रेरित है वह शासन पर निर्भर विकास की बात करते हैं। भारत की परंपरा सहस्राब्दियों से समाज केंद्रित आर्थिक विकास को एक अत्यंत समृद्ध प्रतिमान के रूप में प्रतिष्ठित करती रही है। भारत का आदर्श है संस्कृति के साथ समृद्धि। अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव में हम इस वास्तविक समाजवाद की नीति को भुला बैठे। संविधान निर्माताओं ने चर्चा के बाद इन दोनों विशेषणों को संविधान के आमुख में नहीं रखा। उनके अनुसार भारतीय संस्कृति और समाज में ये दोनों संकल्पनाएँ अंतर्निहित होने से इनका अलग से उल्लेख आवश्यक नहीं था।
चुनावी विवशताओं के नाम पर इन्हें पुनः संशोधित करने का साहस कोई भी राजनैतिक दल आज तक नहीं दिखा पा रहा है। आपातकाल के बाद स्थापित जनता सरकार ने 44वे संविधान संशोधन से 42वे संशोधन द्वारा जनता मौलिक अधिकारों को स्थगित करनेवाले सभी प्रावधानों को तो निरस्त कर पूर्ववत् कर दिया किन्तु प्रस्तावना में की गई छेड़छाड़ को वैसे ही रखा। इन विशेषणों के जुड़ने के कारण ही आज हम राजनैतिक दलों को तुष्टिकरण की नित नई सीमाओं को लांघते हुए देखते हैं। सहिष्णुता का दायरा सिमटता जा रहा है और कट्टरता बढ़ती ही जा रही है। इन विषयों पर चिंतन करना इसलिए आवश्यक है क्योंकि इन बातों से गणतंत्र की नींव पर ही आघात हो रहे हैं।
गणराज्य का आधार है गण। गण अर्थात एक मन से कार्य करने वाला समूह। प्रबंधन के क्षेत्र में आजकल अत्यधिक प्रचलित अंग्रेजी शब्द है टीम। इसकी परिभाषा की जाती है, ‘‘एक कार्य के लिये गठित, एक लक्ष्यगामी दल’’। यह तात्कालिक होता है। कार्य की अवधि तक के लिये कार्य की पूर्णता का लक्ष्य लेकर यह कार्य करता है। ‘गण’ की संकल्पना अधिक गहरी है। अंग्रेजी में उपयुक्त Republic शब्द से भी बहुत गहरी। Republic में तो केवल राजतंत्र के ना होने का भाव है। लोकतंत्र के साथ शीर्ष पर राजा या रानी का होना या ना होना इतना ही अंतर अंग्रेज़ी संकल्पना में है। ब्रिटन, ऑस्ट्रेलिया, न्यूज़ीलैंड, जापान सहित अनेक देशों में लोकतंत्र के साथ राजा का शीर्षत्व स्वीकार किया गया है। अतः उसे लोकतांत्रिक राजशाही (Democratic Monarchy) कहा जाता है। भारत जैसे देशों में कार्यपालिका के शीर्ष पर चुनाव में लोगों द्वारा चयनित राष्ट्रपति होता है। इसे राजनीतिशास्त्र में Republic कहा गया। रोम के नगर रिपब्लिक से यह शब्द आधुनिक लोकतंत्र में जोड़ा गया। वहाँ भी इसका अर्थ सामान्य जनों के गणों का शासन नहीं था। नगर के प्रतिष्ठित (Noble) अर्थात् अमीर भद्रजनों को ही मतदान का अधिकार था। सामान्य जनता (Peasant) को कोई अधिकार नहीं थे। वामपंथी राजव्यवस्था ने भी इसे स्वीकार किया। सोवियत रशिया, चीन जैसे वाममार्गी देशों में रिपब्लिक है किंतु लोकतंत्र नहीं। वहाँ भी इसे कम्युनिस्ट पार्टी के पॉलिट ब्यूरो के नेतृत्व के शासन के रूप में ही लिया जाता है।
गणतंत्र का सही भाव भारतीय संविधान में ही निहित है। हिंदू जीवन में समष्टि ही निर्णायक होती है। उसी को गण कहाँ है। यह केवल व्यक्तियों का समूह नहीं होता अपितु एक इकाई होती है। गण एक पारंपरिक पारिभाषिक शब्द है। इसके राजनीति शास्त्र के उपयोग से भी पूर्व इसका आध्यात्मिक प्रयोग है। हमारी परंपरा में पूजा का पहला अधिकार गणेश जी का है जो गणों के ईश, गणनायक हैं। केवल शिवजी के गणों का नायक होने के कारण ही वे गणपति नहीं हैं। मानव का मानव से संबंध स्थापित करने की वैज्ञानिक आध्यात्मिक प्रक्रिया ‘गण’ के वे अधिपति हैं। मैं से हम की ओर जाने की प्रक्रिया है गण। और इस प्रक्रिया के लिए आवश्यक साधना के अधिपति गणपति।
भारतीय अध्यात्म विद्या में आगम व निगम की दोनों विधियों की मान्यता है। निगम विधि में जहाँ स्वयं को नकारकर शून्य बना दिया जाता है, ‘नेति नेति’ की विधि से अहंकार को शून्य कर शिवत्व से एकत्व की प्रक्रिया बतायी गई है, वहीं आगम विधि में अपने क्षुद्र अहं को विस्तारित कर सर्वव्यापी करने की प्रक्रिया द्वारा विराट से एकाकार होने की प्रक्रिया भी आध्यात्मिक साधना है। इस विधि में अपने व्यक्तिगत ‘मैं’ को सामूहिक ‘मैं’ के साथ क्रमशः एकाकार करते हुए स्वयं के स्वत्वबोध का विकास किया जाता है। यही अखण्डमण्डल की साधना है जो चराचर में व्याप्त ईश्वर का साक्षात्कार करवाती है। यह गण साधना है। ‘मैं’ को समूह में विसर्जित करने की साधना। गण के अंग का कोई व्यक्तिगत अस्तित्व ही नहीं रह जाता है, वह अपने गण परिचय से एकाकार हो बड़ी इकाई के रक्षार्थ अपने आप को समर्पित कर देता है
‘गण’ गठन की प्रक्रिया व्यक्ति की साधना के साथ ही समूह की भी साधना है। भारत में सामूहिक साधना का ही विशेष महत्व रहा है। हमारे सारे वेद मंत्र बहुवचन में प्रार्थना करते हैं। अहं का नहीं वयं का प्रयोग किया जाता है। मन, वचन, कर्म में सामूहिकता की प्रार्थना बार बार की गई है। हम एक मन से एक संकल्प के साथ एक दिशा में अग्रसर होते हुए साथ-साथ उत्कर्ष व कल्याण को प्राप्त करें। यह हिन्दुओं की सनातन वैश्विक प्रार्थना है। इस बात को हमने केवल दर्शन के सिद्धान्तों तक ही सीमित नहीं रखा अपितु कर्म, अथवा आचार की परंपरा में ढ़ालकर उसे जीवन का नियमित अंग बना दिया। यह भारतीय जीवन दर्शन की विशेषता है। प्रत्येक तत्व का कर्मकाण्ड के रुप में सघनीकृत संस्थापन (Concrete Institutionalisation) किया गया। यहीं अनेक आक्रमणों के बाद भी हमारे जीवित रहने का महत्वपूर्ण रहस्य है।
जीवन के प्रत्येक अंग में इस ‘गण’ संकल्पना को साकार किया गया। परिवार, वर्ण, ग्राम, नगर, जनपद तथा राष्ट्र इन सभी स्तरों पर गणों के गठन की विधि को हमने सदियों से विकसित किया है। धार्मिक, औपासनिक परंपराओं के साथ ही सामाजिक, आर्थिक व राजनयिक व्यवस्थाओं में गणों का विकास हिन्दुओं ने प्राचीनतम काल से किया है।
यह देश का दुर्भाग्य ही है कि स्वतंत्रता के बाद हमारे इन प्रचण्ड ऐतिहासिक अनुभूतियों को पूर्णतः दुर्लक्षित कर हमने विदेशी विचारों पर आधारित व्यवस्था को अपनाया। इतना ही नहीं सेक्युलर के नाम पर अपनी सभी प्राचीन परंपराओं को प्रभावी रुप से नकारने का काम किया। परिणामतः परिभाषा में गणराज्य होते हुए भी सामूहिक चेतना के विकास के स्थान पर हमने विखण्डित गुटों की राजनैतिक चेतना का विकास किया। पंथ, प्रांत, भाषा तथा जाति जैसी सामूहिक चेतना व्यक्ति के विस्तार का माध्यम बनने के स्थान पर हमारी प्रचलित राजनैतिक व्यवस्था में यह सभी परिचय विघटन का कारण बनते जा रहे हैं। समाज में धार्मिक स्तर पर आज भी जीवित ‘गण’ संकल्पना को ठीक से समझकर उसे व्यवस्थागत रूप प्रदान करना वर्तमान भारत की सबसे बड़ी चुनौती है।
गण के गठन के शास्त्र को हम समझने का प्रयत्न करते हैं तो हम पाते हैं कि इसका भावात्मक आधार ‘त्याग’ में है। त्याग से ही व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज व समाज से राष्ट्र के स्तर पर स्वत्वबोध का विस्तार सम्भव है। त्याग का संस्थागत स्वरुप है यज्ञ। यज्ञ के द्वारा हम सहजता से त्याग को परम्परा के रुप में ढ़ाल पाये हैं। आज भी हमारे घरों में गाय के लिये गो-ग्रास, तुलसी को पानी देने जैसी परंपराओं का प्रयत्नपूर्वक पालन किया जाता है। अतिथि भोजन जैसे भूतयज्ञ द्वारा समाज को आपस में बांध रखा था। अतः यज्ञ को समझने से ही गण के गठन का कार्य किया जा सकता है।
गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि यज्ञ के द्वारा ही प्रजा का सृजन कर प्रजापति ने लोगों को कहा कि यह यज्ञ ही आपकी कामधेनु है जिसके द्वारा आप अपनी सभी इच्छाओं की पूर्ति कर सकते हो।
सहयज्ञाः प्रजा सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वम् एष्वोSस्त्विष्टकामधुक्।।3.10।।
अगले दो श्लोकों में यज्ञ के द्वारा त्याग से कैसे परस्पर सामंजस्य बनाकर समुत्कर्ष की प्राप्ति हो सकती है इसका वर्णन है।
देवान्भवयतानेन ते देवा भवयन्तु वः। परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ।।3.11।।
यह भी कहा है कि बिना यज्ञ में हवि दिये अर्थात समाज, सृष्टि में अपने योगदान की श्रद्धापूर्वक आहुति दिये बिना जो भोग करता है वह तो चोर है।
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभावितः। तैर्दत्तान प्रदायेभ्यो यो भुन्क्ते स्तेन एव सः।।3.12।।
यह श्लोक तो इन पापियों के लिये और भी कठोर शब्दावली का प्रयोग करता है। यज्ञ के प्रसाद के रुप में भोग करनेवाले लोग सर्व पापों से मुक्त हो जाते हैं वहीं जो केवल अपने स्वार्थ के लिये ही भोग करते हैं वे तो पाप को ही खा रहे होते हैं।
यज्ञ अपने निर्माण में सबके योगदान को अधोरेखित कर अपने कर्म में उसके प्रति कृतज्ञता का व्यवहार लाने का संस्कार देता है। अतः यज्ञ के द्वारा ही गण का गठन संभव है। आज हमें पुनः यज्ञ संस्कारों के जागरण के द्वारा गण संस्कृति की पुनर्स्थापना करने की आवश्यकता है। इसी से वास्तव में हमारे संविधान का ध्येय गणतंत्र साकार हो सकेगा। संविधान में मौलिक अधिकारों के साथ मौलिक कर्तव्यों की भी बात की है। भारतीय संस्कृति में सदा कर्तव्य को ही महत्त्व दिया गया है। अधिकार को उसके परिणाम के रूप में ही देखा गया। यज्ञ का व्यावहारिक रूप कर्तव्य में ही प्रगट होता है। ‘स्वाहा’ मंत्र अपने कर्तव्यों की आहुति का परिचायक है। किन्तु भारतीय संस्कृति के स्थान पर विदेशी राज के प्रभाव में बने होने के कारण हमारे संविधान में मौलिक अधिकार तो न्यायालय में कार्यान्वित किये गए हैं किन्तु मौलिक कर्तव्यों का स्वरूप मात्र सुझावात्मक रखा गया है। इनकी अवहेलना को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। क्योंकि संविधान निर्माताओं की अपेक्षा है कि भारत का प्रत्येक राष्ट्रांग स्वयंप्रेरणा से इसका अनुपालन करेगा।
गण संकल्पना पर आधारित व्यवस्थाओं के निर्माण के लिये यज्ञ को और अधिक विस्तार से समझने की आवश्यकता है। इस गणतंत्र दिवस के अवसर पर हम गणत्व को जीवन में उतारने के लिये यज्ञ को समझाने व जीवन में उतारने का संकल्प ग्रहण करें।
test