आचार्य राघवेन्द्र प्रसाद तिवारी
मानव समाज निरंतर होने वाली घटनाओं से गतिमान रहता हैI सामान्य मानव जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से भी डरकर एवं भ्रमित होकर जीवन मूल्यों से च्युत हो जातें हैं, वहीं महामानव भीषण परिस्थितियों एवं संकटों से जूझते हुए भी संस्कार, धर्म एवं राष्ट्रभक्ति पर अडिग रहकर जनमानस का आदर्श बन जाते हैंI उनकी सूझ-बूझ, दृढ़ संकल्पना, अद्वितीय त्याग और बलिदान, साहस एवं राष्ट्रप्रेम से परिपूर्ण मनोवृत्ति उन्हें सामान्यजन के पथ-प्रदर्शक एवं महानायक के रूप में प्रतिष्ठापित करते हुए कालजयी बना देती हैंI भारतीय संस्कृति के विभिन्न कालखण्डों में ऐसे अनेकानेक महामानवों का अवतरण हुआ हैI परन्तु सबसे विलक्षण उदाहरण पंजाब की पावन भूमि पर अवतरित दशमेश पिता पूजनीय श्री गुरु गोबिंद सिंह जी एवं उनके पिता श्री गुरु तेग बहादुर जी, माता गुजरी जी तथा चारों साहिबजादों के बलिदान के रूप में जनमानस के लिए प्रेरणा, श्रद्धा और आस्था का केंद्र सदियों से बना हुआ हैI शहादत की इस शौर्य गाथा से आज की युवा पीढ़ी को परिचित कराना परम आवश्यक है जिससे समाज में व्याप्त समस्याओं के निराकरण हेतु उनका मार्ग प्रसस्त हो सकेI
औरंगजेब के शासनकाल में मुगलों का जुल्म एवं अत्याचार चरम पर थाI भारतवासियों को तलवार और धन के बल पर धर्मान्तरण हेतु विवश किया जाता थाI ऐसी विकट परिस्थिति में सिखों के नवम गुरु ‘हिन्द की चादर’ की उपाधि से सर्व-सम्मानित श्री गुरु तेग बहादुर साहिब जी ने इस अधर्म के विरुद्ध मोर्चा खोलाI कृपादास जी की अगुआई में जब कश्मीरी पंडित श्री गुरु तेग बहादुर जी के पास अपनी फरियाद लेकर आए तो उन्होंने धर्म-रक्षार्थ आत्मबलिदान का अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत कियाI उन्हीं के वंशज दशमेश पिता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने खालसा पंथ की स्थापना करके जन सामान्य में नवशक्ति, साहस एवं राष्ट्रभक्ति की भावना का संचार कियाI सन् 1704 में मुगल सेना एवं पहाड़ी राजाओं द्वारा आनंदपुर साहिब के किले पर आक्रमण के पहले उन्होंने कसम खाकर श्री गुरु साहिब जी को वचन दिया था कि आनंदपुर साहिब का किला छोड़ देने पर उन्हें अपनी सेना के साथ सुरक्षित निकल जाने दिया जाएगाI परन्तु जब श्री गुरु साहिब किला छोड़कर अपने परिवार और सिंह साहिबानो के साथ सरसा नदी (सतलुज की एक शाखा) को, जो उस वक्त पूरे उफान पर थी, पार कर रहे थे, तभी मुगल सेना ने कुठाराघात कर पौष माह की हड्डियों को चीरने वाली ठंडक में पीछे से आक्रमण कर दियाI फलस्वरूप श्री गुरु जी का परिवार तीन भागों में बंट गयाI एक तरफ उनकी बूढ़ी माता गुजरी जी के साथ दो छोटे साहिबजादे पश्चिम दिशा में नंगे पांव चल पड़े, दूसरी तरफ कलगीधर श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ दो बड़े साहिबज़ादे एवं 40 सिंह साहिबान दक्षिण दिशा की तरफ बढ़ गए एवं माता सुंदरी जी, कुछेक सिंहों के साथ दिल्ली की तरफ चल पड़ीI जब वह लोग सरसा नदी पार कर रहे थे तब काफी संख्या में ग्रन्थ नदी में बह गए थेI
चमकौर साहिब की कच्ची गढी़ में श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के साथी सिखों सहित दो बड़े साहिबजादों एवं मुग़ल सेना के बीच घमासान युद्ध हुआI इस कठिन दौर में श्री गुरु साहिब की प्रेरणा से उनके सिंहों में नई ऊर्जा एवं पक्के इरादे का संचार हुआI वे लोग पूरी ताकत के साथ “जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल” के जयकारे लगाने लगेI फलस्वरूप मुगलों को ऐसा प्रतीत हुआ कि श्री गुरु साहिब के साथ एक बड़ी सेना है एवं उनके मन में डर की आहट होने लगी I श्री गुरु साहिब अपनी कृति ज़फ़रनामा में लिखते हैं कि उस समय करीब दस लाख सैनिकों का नेतृत्व कर रहे मुगलों का सबसे शक्तिशाली सिपहसालार ख्वाजा महमूद डर के मारे दुबककर एक कोने में खड़ा हो गया थाI जबकि श्री गुरु साहब के बहादुर सिंह पांच-पांच की टोली बनाकर मुग़ल सेना से लड़ने लगेI इस लड़ाई में उनके सत्तरह वर्ष के साहिबजादे अजीत सिंह जी एवं चौदह वर्ष के साहिबजादे जुझार सिंह जी ने अद्वितीय साहस, पराक्रम एवं युद्ध कौशल का परिचय देते हुए शहादत का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत कियाI रात होने पर युद्ध खत्म हुआI श्री गुरु पुत्रों की शहादत के पश्चात गढ़ी के अंदर सभी गमगीन एवं निशब्द होकर बैठे थेI उनके दुःख को समझकर श्री गुरु महाराज ने कहा कि जिस परमेश्वर ने पुत्र दिए थे, शहादत के उपरांत वे उसी के चरणों में विराजमान हो गए, अतएव यह शोक मनाने का समय नहीं हैI इस ग़मगीन वातावरण में भी श्री गुरु जी ने भाई दया सिंह को “आनंद भया मेरी माय” शब्द का पाठ करने को कहा थाI
श्री गुरु गोबिंद साहिब जी जब स्वयं लड़ने के लिए तत्पर होते थे तो उनके साथी कहा करते थे कि आपको खालसा गुरु का हुक्म है कि आप स्वयं नहीं लड़ेंगे, क्योंकि आप ही हो जो हमारे जैसे कई और सिंह खड़े कर सकते होI लाखों सिख मिलकर भी एक गुरु गोबिंद सिंह नहीं बना सकते, लेकिन एक गुरु गोबिंद सिंह लाखों सिख तैयार कर सकते हैंI श्री गुरुजी जब कच्ची गढी़ से बाहर निकले तो सामने युद्ध भूमि में अपने दोनों पुत्रों की रक्तरंजित लाशों को देखाI साथी भाई दया सिंह भावुक होकर कहने लगे कि मेरे पास कमर पर बांधने वाला एक कपड़ा है, मैं साहिबजादों के मृत शरीर पर इसे कफन जैसे डाल देता हूंI श्री गुरु साहब जी तब तुरंत प्रश्न करते हैं, दया सिंह क्या जो और सिंह वीरगति को प्राप्त हुए हैं उनके शरीर पर डालने के लिए भी आपके पास ऐसा कपड़ा है? दया सिंह के इनकार करने पर श्री गुरु साहिब ने कहा कि मेरे लिए सभी सिंह एक समान हैं, सारे ही मेरे पुत्र हैं इसलिए साहिबजादे अजीत सिंह और साहिबजादे जुझार सिंह के शरीर पर कपड़ा नहीं डाला जाएगाI
उधर दूसरी तरफ सरसा नदी से बिछड़ने के बाद माता गुजरी जी, दो छोटे साहिबजादों तथा अपने रसोइये गंगा राम के साथ आगे बढ़ते हुए रास्ता भटक गईं। उन्हीं दिनों सरहिन्द के नवाब वज़ीर ख़ान ने गाँव-गाँव में ढिँढोरा पिटवा दिया कि श्री गुरू साहिब व उनके परिवार को पनाह देने वालों को सख्त सजा दी जायेगी और उन्हें पकड़वाने वालों को इनाम दिया जाएगा। गंगा राम की नीयत खराब हो गई एवं उसने मोरिंडा की कोतवाली में सूचना देकर इनाम के लालच में गुरु जी की माता जी के साथ साहिबजादों को पकड़वा दिया। वज़ीर खान ने श्री गुरू साहिब के मासूम साहिबजादों तथा वृद्ध माता जी को अपने कैदियों के रूप में देखकर अति प्रसन्न होकर अगली सुबह साहिबजादों को कचहरी में पेश करने हेतु फरमान जारी कर दिया। उसने सोचा कि गुरु पुत्रों को मुसलमान बनाने से अन्य लोगों को मुसलमान बनाने में सुगमता होगी I इस दौरान माता गुजरी जी, नौ वर्षीय बाबा जोरावर सिंह और सात वर्षीय बाबा फतेह सिंह को ठंडे बुर्ज में रखा गयाI उनके लिए मोती राम मेहरा द्वारा की गयी दूध की सेवा से क्रुद्ध होकर वज़ीर खान ने मोती राम मेहरा के पूरे परिवार को कोल्हू में पेरने का हुक्म सुनायाI छोटे साहिबजादों की धर्मनिष्ठता को डगमगाने हेतु उन्हें खांमची से मारा गया एवं उनकी हाथों को जलाया गयाI किन्तु अनेक प्रकार की शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़नाओं का साहिबजादों ने डटकर मुकाबला किया एवं वज़ीर खान के समक्ष आत्मसमर्पण नहीं कियाI
कचहरी में पेश करने पर थानेदार ने साहिबजादों को समझाया कि वे वज़ीर खान के दरबार में झुककर सलाम करें। उत्तर में साहिबजादों ने कहा कि अपना सिर हमने अपने पिता श्री गुरू गोबिन्द सिंह के हवाले किया हुआ है, इसलिए इसको कहीं और झुकाने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता है। वज़ीर खान ने तरह-तरह के प्रलोभन देकर उन्हें इस्लाम धर्म कबूल करने का दबाव डाला लेकिन दोनों वीरो ने उत्तर दिया हमें सिखी जान से अधिक प्यारी है एवं किसी भी तरह का लालच व भय हमें सिखी से विमुख नहीं कर सकता है। हम शेर के बच्चे हैं एवं शेरों की भांति किसी से नहीं डरते हैं। हम कभी भी इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं करेंगे। नवाब उनको मारने की बजाय उनके धर्मान्तरण के हक में था क्योंकि वह चाहता था कि इतिहास के पन्नों पर लिखा जाये कि गुरू गोबिन्द सिंह के बच्चों ने सिख धर्म से इस्लाम को अधिक अच्छा माना और मुसलमान बन गए। अपनी इच्छा की पूर्ति हेतु उसने गुस्से पर नियंत्रण कर कहा बच्चों जाओ अपनी दादी के पास। कल आकर मेरी बातों का सोच-समझ कर उत्तर देना। दादी माँ के पूछने पर कचहरी में हुए वार्तालाप के बारे में साहिबजादों ने उन्हें अवगत कराया किन्तु माता गुजरी जी भी इससे विचलित नहीं हुईं एवं उनका साहस बढ़ाया।
अगले दिन भी कचहरी में पहले जैसे ही सब कुछ हुआ, किन्तु निडर एवं दृढ़निश्चयी साहिबजादों ने लालच अथवा दबाव में न आकर इस्लाम स्वीकार करने से एकदम इनकार कर दिया। अब नवाब धमकियों पर उतर आया। गुस्से से लाल पीला होकर वज़ीर खान कहने लगा कि यदि इस्लाम कबूल न किया तो मौत के घाट उतार दिए जाओगे। फाँसी चढ़वा दूँगा। जिन्दा दीवार में चिनवा दूँगा। वह बोला क्या मन्जूर है– मौत या इस्लाम? साहिबजादों ने उत्तर दिया ‘हम गुरू गोबिन्द सिंह जैसी महान हस्ती के पुत्र हैं। हमारे खानदान की रीति है, ‘सिर जावे ताँ जावे, मेरा सिक्खी सिदक न जावे।’ हम धर्म परिवर्तन की बात ठुकराकर फाँसी के तख्ते को चूमेंगे’। तीसरे दिन पुनः साहिबज़ादों को कचहरी में लाकर डराया धमकाया गया। उनसे कहा गया कि यदि वे इस्लाम अपना लें तो उनका कसूर माफ किया जा सकता है एवं उन्हें शहजादों जैसी सुख-सुविधाएँ प्राप्त हो सकती हैं। किन्तु साहिबज़ादे अपने निश्चय पर अटल रहे। उनकी दृढ़ता को देखकर उन्हें किले की दीवार की नींव में चिनवाने की तैयारी आरम्भ कर दी गई किन्तु बच्चों को शहीद करने के लिए कोई जल्लाद तैयार न हुआ। अकस्मात दिल्ली के शाही जल्लाद साशल बेग व बाशल बेग अपने एक मुकद्दमें के सिलसिले में सरहिन्द आये। उन निर्दयी जल्लादों ने अपने मुकद्दमें में माफी का वायदा लेकर साहिबज़ादों को शहीद करना स्वीकार कर लिया।
पौष माह की 12 तारीख को दोनों साहिबज़ादे को पीपल के वृक्ष में बांधकर गुलेल से पत्थर मारने का आदेश दिया गया I अंत में मौलवी द्वारा दोनों साहिबज़ादों को दीवार में जिंदा चुनवाने का हुक्म सुनाया गया। दोनों भाई खड़े थे एवं दीवार खड़ी करने का दर्दनाक कार्य प्रारम्भ हुआ I इस दौरान दोनों साहिबज़ादों के घुटने दीवार के बीच में आ रहे थे I जालिम सूबा सरहिंद ने मिस्त्री से कहा, ईंट तोड़ने की वजाय इनके घुटनों को चप्पणी से काट दो I साहिबजादों ने मुस्कुराकर कहा हां-हां, हमारे घुटने काट दो, हम नहीं चाहते कि सिख धर्म की रक्षा हेतु बन रही दीवार में किसी भी प्रकार की कमी हो, वह बिल्कुल सीधी होनी चाहिए। दीवार बनते-बनते जब बाबा फतेह सिंह के सिर के निकट आ गई क्योंकि वे छोटे थे तो बाबा जोरावर सिंह दुःखी हुए। काज़ियों ने सोचा शायद वे घबरा गए हैं और अब धर्म परिवर्तन के लिए तैयार हो जायेंगे। बाबा फतेह सिंह ने उनसे दुःखी होने का कारण पूछा तो बाबा जोरावर बोले मृत्यु भय तो मुझे बिल्कुल नहीं। मैं तो यह सोचकर उदास हूँ कि मैं फतेह सिंह से पहले इस दुनियाँ में आया था, इसलिए यहाँ से जाने का हक़ भी पहले मेरा है। धर्म पर बलिदान हो जाने का सुअवसर मुझ से पहले फतेह सिंह को मिल रहा है। तभी तेज तूफान आया, दीवार गिर गयी और दोनों साहिबजादे निढाल होकर गिर गएI एक बार फिर मौलवी द्वारा कहा जाता है कि आखरी बार पूछ रहा हूं, मुसलमान बनना स्वीकार कर लोI दोनों साहिबज़ादे बोलने में असमर्थ होने के बावजूद गर्दन हिलाकर ना कह रहे थेI तभी जल्लादों ने दोनों छोटे साहिबजादों के शीश काट दिए I इस तरह धर्म की रक्षा हेतु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी के चारों साहिबजादों ने वीरगति प्राप्त कर शहादत दीI
स्थानीय निवासी दीवान टोडरमल को, जो श्री गुरु साहिब के श्रद्धालु थे, जब गुरु साहिब के बच्चों को यातनाएँ देकर कत्ल करने के हुक्म के विषय में ज्ञात हुआ तो वह अपना समस्त धन लेकर साहिबजादों को छुड़वाने के विचार से कचहरी पहुँचे, किन्तु तब तक उनको शहीद किया जा चुका था। उनने नवाब से अँत्येष्टि क्रिया के लिए साहिबजादों के शव माँगे। वज़ीर ख़ान ने कहा यदि तुम अंतिम संस्कार के लिए स्वर्ण मुद्राएँ खड़ी करके भूमि खरीद सकते हो तो तुम्हें शव दिये जा सकते हैं। टोडरमल ने स्वर्ण मुद्राओं को भूमि पर खड़ी करके एक चारपाई जितनी भूमि खरीद कर पार्थिव शरीरों की एक साथ अँत्येष्टि कर दी। जब 13 पौष तदानुसार 26 दिसम्बर 1705 ईस्वी को इस घटना का विवरण नूरा माही द्वारा श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी को सुनाया गया तो उस समय तीर की नोंक के द्वारा एक पौधे को जड़ से उखाड़ते हुए उन्होंने कहा– जैसे मैंने यह पौधा जड़ से उखाड़ा है, ऐसे ही मुगलों की जड़ें भी उखाड़ी जाएँगी।
यह सत्यकथा सिख गुरु साहिबानों के तीन पीढ़ियों की मानवता एवं धर्म की रक्षा हेतु बलिदान की अमर गाथा है। ‘हिन्द की चादर’ श्री गुरु तेगबहादुर साहिब जी ने मुगलों के अमानवीय अत्याचारों का बहादुरी से सामना करते हुए अपने तीन साथियों, भाई मति दास, भाई सती दास और भाई दयाला जी, सहित शहादत दी। उन्होंने अपने अनुयायियों को ‘निरभउ निरवैर’ जीवन जीने का सन्देश दिया। दशमेश पिता एवं खालसा पंथ के संस्थापक श्री गुरु गोबिंद साहिब जी की बहादुरी समझने हेतु यह शब्द ही पर्याप्त है कि “चिड़ियाँ नाल मैं बाज लड़ावाँ, गिदरां नुं मैं शेर बनावाँ। सवा लाख से एक लड़ावाँ, ताँ गोविंद सिंह नाम धरावाँ”।। उन्होंने अन्याय, अत्याचार, पाप के खात्में एवं धर्म की रक्षा हेतु मुगलों के साथ कई युद्ध लड़े। शिशु काल में जब सामान्य बालक सुख-सुविधाओं के आदी होते है, उस अल्प आयु में ही छोटे साहिबजादों ने बहादुरी एवं धर्मपरायणता की बेजोड़ मिसाल पेश कीI तमाम प्रलोभनों एवं प्रताड़नाओं के बावजूद उन्होंने अतुलनीय वीरता एवं साहस का परिचय देते हुए वज़ीर खान के प्रलोभनों को ठुकराया, उसके अत्याचारों का डटकर मुकाबला किया एवं अंत समय तक धर्म का मार्ग प्रशस्त करते हुए शहीद हुएI छोटे साहिबजादों ने यह प्रमाणित किया कि शहादत के लिए आयु महत्वपूर्ण नहीं होती अपितु निडरता, वीरता एवं धर्म निष्ठा का भाव ही सर्वोपरि होता हैI बार-बार प्रताड़ित करने के बाद भी जब छोटे साहिबजादों से पूछा जाता था कि यदि उन्हें आजाद कर दिया जाये तो वे क्या करना चाहेंगे, तब उनका उत्तर होता था कि हम पुनः लड़ेंगे एवं निर्दोषों पर जुल्म करने वालों का सर काटेंगेI इस सन्दर्भ में छोटे साहिबजादों के शहीदी के पूर्व आखिरी शब्द अत्यंत सारगर्भित हैं : सच को मिटाओगे तो मिटोगे जहान से, डरता नहीं है अकाल किसी शहंशाह की शान से। उपदेश यह सुन लो जरा दिल के कान से, कह रहे हैं हम तुम्हे खुदा की जुबान से (शहीदान-ए-वफा, स्टेंजा 96)। इससे ऐसा एहसास होता है कि मानों परमात्मा छोटे साहिबजादों के मुखारविंद से वज़ीर खान को स्वयं चेतावनी दे रहें हों। निःसंदेह छोटे साहिबजादों की शहादत उनके त्याग, पराक्रम, शौर्य एवं बलिदान की कालजयी गाथा है जो कि धर्म परायणता एवं मानवीय जीवन मूल्यों के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु भावी पीढ़ियों की प्रेरणापुंज बनी रहेंगीI भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री एवं जननायक श्री नरेंद्र मोदी जी के द्वारा छोटे साहिबजादों के शहीदी दिवस 26 दिसम्बर को वीर बाल दिवस के रूप में मनाकर उनकी शहीदी की सच्ची गाथा से वैश्विक सन्देश देने का पुनीत कार्य सर्वथा अभिनंदनीय हैI इसी तारतम्य में भारत एवं पंजाब सरकार से यह अनुरोध करना समीचीन होगा कि छोटे साहिबजादों के शहीदी की इस अमर गाथा को स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाये, जिससे विद्यार्थियों के मन-मस्तिष्क को राष्ट्रानुकूल सही मनोदशा एवं दिशा मिलती रहे।
इस संकलन हेतु सामग्री विविध स्त्रोतों से एकत्रित की गयी है।
(आचार्य राघवेन्द्र प्रसाद तिवारी – कुलपति, पंजाब केन्द्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा)
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