इकबाल सिंह लालपुरा
पंजाब के ऐतिहासिक काल को देखकर सहज ही यह महसूस किया जा सकता है कि गुरु साहिबान के समय से लेकर महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु (1839 ई.) तक हिन्दू-सिक्ख विभाजन कभी देखने को नहीं मिला। महाराजा सभी पंजाबियों के लिए आम थे। हिंदू परिवारों ने आमतौर पर सबसे बड़े बेटे को गुरु को सौंप, खालसा साज, ख़ुशी महसूस की। सिख धर्म एक अनूठा निर्मल धर्म/पंथ है, जिसमें कर्मकांडों से दूर रहकर “मानव की जाति सभै एको पहचानबो” के मार्ग पर चलकर प्रभु की आराधना की जा सकती है। गुरबाणी अपना संदेश संप्रेषित करते हुए गीता, वेद और पुराणों के अनेक विचारों पे मोहर लगती है और उन्हें जीवन में धारण करने का उपदेश देती है। खालसा अकाल पुरख की सेना है, जो मानवता का संरक्षक/सेवक और संत-स्वरूप है।
1839 ई महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने पंजाबियों को बांटना शुरू कर दिया। मुसलमान, जो खालसा राज्य का हिस्सा थे और बड़े रईस भी थे, जल्द ही अलग होने के लिए तैयार हो गए, लेकिन हिंदू-सिखों और सिखों को आपस मे लड़ाने और विभाजित करने के लिए अंग्रेजों को कड़ी मेहनत करनी पड़ी, एव एक नई नीति अपनानी पड़ी। मस्जिदों पर कोई प्रतिबंध नहीं था, लेकिन सिख गुरुधामों का प्रबंधन अंग्रेजों ने प्रोख रूप से ले लिया था। निर्मल पंथ में अनेकों डेरे एव बाबे नज़र आने लगे। गांव की धर्मशाला धार्मिक रीती रिवाज़ और कर्मकांड तक ही सीमित होकर रह गई। शुद्विकर्ण आदि अभियानों से मुसलमानों और हिन्दुओं में घर वापसी की बात होने लगी, जिसका सिक्खों पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा। साथ में महाराजा दलीप सिंह का ईसाई धर्म अपनाना और स. हरनाम सिंह अहलूवालिया ने भी धर्म परिवर्तन किया। कोई भी सिख नेता ऐसा नहीं था जिसने धार्मिक रूप से अंग्रेजों का विरोध किया हो।
गुरुद्वारा सुधार आंदोलन (1920-25 ई.) ने पंजाबियों और विशेषकर सिक्खों में एक जागृति पैदा की, लेकिन उस समय कांग्रेस के साथ शिरोमणि अकाली दल के गठजोड़ के कारण धर्म पर राजनीति का बोलबाला हो गया। आजादी के बाद, पंजाबी भाषा और पंजाबी भाषी क्षेत्र पंजाब के दो प्रमुख धर्मों/संप्रदायों में विभाजन का कारण बन गए। महा-पंजाब की बात करके प्रताप सिंह कैरों केंद्र में कांग्रेस सरकार के एक प्रमुख नेता बने। मास्टर तारा सिंह उस समय तक बेताज बादशाह थे। वह पंजाबी भाषा और पंजाबी राज्य की मांग को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे, जिसके लिए उन्होंने शिरोमणि अकाली दल का दो बार कांग्रेस में विलय किया, लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ।
कांग्रेसी संस्कृति में पले-बढ़े अधिकांश अकाली नेताओं ने देश के बजाय अपने व्यक्तिगत हित और परिवार को पहले रखा। सिख समाज की भावनाओं को भड़काकर उन्होंने आंदोलन का रास्ता निकाला और जीत हासिल की और व्यक्तिगत और जातिगत लाभ तक ही सीमित रहे। नौकरी में भ्रष्टाचार के आरोप में बर्खास्त किए गए कुछ सरकारी सिविल अधिकारियों ने भी सिख समुदाय को गुमराह करने में प्रमुख भूमिका निभाई। कई नेता सरकार में हों या बाहर, आज भी मुद्दे जैसे के तैसे हैं। मुद्दों को उठाना लेकिन उनके समाधान के लिए पहल न करना सिख राजनीतिक नेताओं की सत्ता हासिल करने की नीति रही है। पंजाब सामाजिक रूप से तीन भागों में बंटा हुआ है (1) सिख बड़ी संख्या में हैं (2) सनातनियों का दूसरा प्रमुख धर्म है और (3) रविदासिया और मजहबी सिख समुदाय भी आपस में बंटे हुए हैं। ईसाई समुदाय के कुछ लोगों पर धर्मांतरण का आरोप है, लेकिन वे चुनाव परिणामों को प्रभावित करने में सक्षम नहीं हैं।
पिछले 45 सालों से सिख धर्म पर हमले या दखल की बातें तो खूब होती रही हैं, लेकिन सिख नेताओं और धार्मिक संगठनों द्वारा धार्मिक प्रचार की योजना कहीं नजर नहीं आती. गुरु नानक के निर्मल पंथ का दर्शन आनंद, सम्मान, सेवा और शौर्य का मार्ग है, जिससे दूर होकर कर्मकांड मात्र बन चुके सिख अपनी अनमोल व निर्मल पहचान को धूमिल कर रहे हैं। अगर गुरु नानक साहिब जी के दर्शन और श्री गुरु गोबिंद सिंह साहिब जी के खालसा को सुमेल कर दिया जाए तो पंजाब की धरती सोना उगल देगी, प्यार और सेवा से सबको गले लगा लेगी, फिर किसी और को यह कह कर फूट डालने का मौका नहीं मिलेगा।
जुलाई 1982 में पंजाब में जरनैल सिंह भिंडरावाले के सहयोगी भाई अमरीक सिंह और थारा सिंह की रिहाई के लिए एक बड़ा आंदोलन खड़ा हुआ, लेकिन तत्कालीन शिरोमणि अकाली दल ने इसे राजनीतिक रंग देकर इसे धार्मिक धर्मयुद्ध में बदल दिया। जिसके साथ पंजाब की राजनीतिक मांगों के साथ सिख धर्म से जुड़ी कुछ बातों को शामिल किया गया। उनमें कुछ भी राष्ट्र-विरोधी नहीं था, लेकिन असामाजिक तत्वों ने इसे कानून-व्यवस्था की स्थिति बना दिया और पाकिस्तान ने हथियार भेजकर बाकी काम पूरा कर लिया। जिसमें पंजाब आज तक जल रहा है। लेकिन 10 अक्टूबर, 1983 को इससे भी बड़ा मुद्दा, दरबारा सिंह की कांग्रेस सरकार को कानून और व्यवस्था बनाए रखने में विफल रहने के कारण बर्खास्त करने के साथ, राष्ट्रपति शासन की एक लंबी अवधि रही है। पंजाब के अच्छे अधिकारियों को वापस बुलाकर बाहरी राज्यों और केंद्र से लाकर पंजाब की संस्कृति से पूरी तरह अनभिज्ञ अधिकारियों को कमान सौंप दिया गया।
पंजाब से लगी 550
पाकिस्तान की नशा तस्करी
किमी की सीमा पर कोई बड़ा कारखाना, कारोबार और रोजगार नहीं है। आजादी के ठीक बाद पाकिस्तान के साथ तस्करी का एक बड़ा कारोबार रहा है। मवेशी, कपड़ा, अफीम, सोना, चांदी, हथियार, हेरोइन, जो कुछ भी पैसा कमाया जा सकता है, वह चीजें सीमा पर बैठे लोग करते रहे हैं। 1988 के बाद यहां कांटेदार तार लगाने के बाद भी तस्करी नहीं रुकी। पहले ये तस्कर आतंकियों के लिए हथियार लाते थे वे अपने फायदे के लिए नशा तस्करी भी करते थे। आतंकवाद के कमजोर पड़ने से ये बड़े तस्कर पुलिस के मुखबिर बन गए और धीरे-धीरे सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनीतिक नेताओं के चहेते बन गए।
भू-माफिया, रेत माफिया, ड्रग माफिया, शराब माफिया और 1992 तक राष्ट्रपति शासन और कमजोर सरकारों के कारण होने वाले हर अपराध के लिए यही लोग जिम्मेदार हैं। इस गठजोड़ में पुलिस और राजनीतिक नेता भी शामिल हैं और इसका सबूत पंजाब, हरियाणा और सुप्रीम कोर्ट में एक-दूसरे के खिलाफ अधिकारियों और राजनीतिक नेताओं की याचिकाएं हैं। अगर जांच की जाए तो ये लोग पिछले 25-30 साल से पंजाब की सरकारी मशीनरी पर काबिज हैं, जिससे आम आदमी का विश्वास सरकारी मशीनरी पर से उठ रहा है. बढ़ती हत्याओं और लूटपाट से निजात पाने के लिए पंजाबियों को बुलडोजर राज्य ( यू पी की तर्ज़) की मांग करते देखा जा रहा है. एक अन्य पहलू धार्मिक डेरो में बाबाओं की बहुतायत है। राजनीतिक नेता और सामाजिक कार्यकर्ता भी लोगों से दूर हो कर केवल उन्हें खुश करने के लिए अपनी गतिविधियों को सीमित करते हैं, इसलिए वे लोगों के भरोसे के लाइक नहीं बन रहे हैं।
राजीव-लोंगोवाल समझौते के बाद लोग पंजाब में न्याय, समृद्धि और अपनी समस्याओं के समाधान के लिए कभी उग्रवादियों की ओर देखते थे तो कभी पंथ नेताओं की ओर। तब उन्हें भ्रष्टाचार और नशा उन्मूलन के लिए कांग्रेस का हाथ में गुटखा साहिब और खुंदा पसंद आया। अब शहीद-ए-आजम भगत सिंह की पगड़ी बांधकर लोगों को बहकाने का काम किया जा रहा है। राजनीतिक नेताओं और सरकारी अधिकारियों के भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई, जिसमें पिछले 30-32 वर्षों से सरकारी तंत्र का आनंद लेने वाले अधिकांश लोग फंस रहे हैं, जो मौजूदा पुलिस और सतर्कता प्रणाली के सामने घुटने टेकने को मजबूर करता हैं। बचने के लिए राजीनामा करे और उनके इशारे पर काम करे। वक्त की सरकार ने हर नेता की कमज़ोर रगों की पहचान की है। जब उसकी ओर इशारा किया जाता है तो उन नेताओं की आवाज धीमी हो जाती है।
1920-25 ईस्वी के गुरुद्वारा सुधार आंदोलन के बाद शायद यह पहली बार है कि सिख नेताओं पर सिखों पर गोली चलाने और श्री गुरु ग्रंथ साहिब का अपमान करने का आरोप लगाया गया है। वहीं गुरुद्वारा प्रशासन में भी भ्रष्टाचार और व्यभिचार के आरोप महंतों की तरह प्रशासकों पर भी लग रहे हैं. इस वजह से उन्होंने सिख धर्म को मानने वालों का विश्वास खो दिया है।
पंजाब की आर्थिक समस्याएं सभी के लिए समान हैं। कृषि को लाभ का साधन कैसे बनाया जाए, फैक्ट्रियां कैसे लगाई जाएं, कृषि से जुड़े उद्योग कैसे लगाए जाएं, इसके लिए हमें राज्य और केंद्र सरकारों के साथ मिलकर काम करना होगा। सिख धर्म के जिन कृत्यों से भावनाएं भड़कती हैं, उन्हें संबंधित राज्यों और व्यक्तियों से चर्चा कर सुलझाया जाना चाहिए। लेकिन अभी तक भावनाओं को सुलझाने की बजाय भड़काने की कोशिश होती रही है. लेकिन यह कभी सफल नहीं हुआ क्योंकि सामाजिक रूप से पंजाबी एक-दूसरे को रिश्तेदार मानते हैं, कोई अंतर नहीं है और कोई अंतर नहीं हो सकता है।पिछले 45 वर्षों में जिन युवाओं को गुमराह किया गया है, उन्हें मुख्यधारा से जोड़कर आर्थिक रूप से सशक्त बनाने की भी आवश्यक है। इसलिए सभी को उद्यम करना चाहिए। धर्म का प्रचार करना और धर्म को हृदय में बिठाना परिवारों और धर्मगुरुओं का काम है। पंजाबी नौजवान धर्म से क्यों भटक रहा है, इस पर विचार करने की जरूरत है। इसके बारे में गुरबाणी का सिद्धांत पारस के माध्यम से पारस बनना है, न कि पुरोहितत्व स्थापित करना।
भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने पंजाब और पंजाबियों के हितों के लिए कई काम किए हैं।सही सोच वाले लोग भी उन्हें सिख समुदाय का मसीहा मानते हैं। सिखों के प्रति प्रधानमंत्री की दयालुता के कार्यों की एक लंबी सूची है जो आजादी के बाद शायद ही किसी राजनीतिक नेता ने इतनी निस्वार्थ भाव से की हो। उनका धन्यवाद, स्तुति और विनती करके शेष कार्य कैसे करें? आम पंजाबी तक यह संदेश कैसे पहुंचाये और गांव में कौन इसकी चर्चा करे? यह एक ऐसा सवाल है, जो लोगों के मन को कचोटता है। वे लोग कहाँ से आए ? जो पंजाबियत की बात करे, नशा तस्करों के विरोधी और आम लोगों के नौकर हों।
मुट्ठी भर लोग हैं जो उग्रवाद और खालिस्तान की बात करते हैं। पंजाबी शांति और समृद्धि का जीवन जीना चाहते हैं। लोग न्याय और प्रगति चाहते हैं और विकास का रास्ता ही पंजाबियों को आकर्षित करेगा। पंजाब में न तो अच्छे लोगों की कमी है और न ही परिवरों की, यह सही सोच वाले ईमानदार 117 विधायक और 13 सदस्य संसद का चुनाव कर सकते हैं। केवल उसी पर ध्यान केंद्रित करने और पंजाबियों को प्रगति और प्रभाव का मार्ग दिखाने की जरूरत है।
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