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प्रखर राष्ट्रवादी शहीद भगत सिंह

September 28, 2020 By Sanjiv Kumar

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संजीव कुमार

एक छोटा बालक  खेत में तिनके बीज रहा था। पिता ने प्यार से पूछा “क्या कर रहे हो, बेटा,? उत्तर मिला -” बंदूके बीज रहा हूं ,जब बहुत सी बंदूके हो जाएंगी तो उनसे अंग्रेजों को देश से बाहर निकालेंगे? “यह बालक कोई और नहीं बड़ा होकर अमर शहीद क्रांतिकारी भगत सिंह के नाम से विख्यात हुआ।

भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर, 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर में बंगा गांव (जो अभी पाकिस्तान में है) के एक देशभक्त सिख परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम सरदार किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती कौर था।

यह एक सिख परिवार था । उनके परिवार पर आर्य समाज व महर्षि दयानंद की विचारधारा का गहरा प्रभाव था। भगत सिंह के जन्म के समय उनके पिता ‘सरदार किशन सिंह’ एवं उनके दो चाचा ‘अजीत सिंह’ तथा ‘स्वर्ण सिंह’ अंग्रेजों के खिलाफ होने के कारण जेल में बंद थे।

जिस दिन भगत सिंह पैदा हुए उनके पिता एवं चाचा को जेल से रिहा किया गया। इस शुभ घड़ी के अवसर पर भगत सिंह के घर में खुशी और भी बढ़ गई थी। भगत सिंह के जन्म के बाद उनकी दादी ने उनका नाम ‘भागो वाला’ रखा था। । बाद में उन्हें ‘भगत सिंह’ कहा जाने लगा।

उनके यज्ञओ पवीत के समय दादा अर्जुन सिंह ने दोनों पोतों को बाजुओं में लेकर घोषणा की ” मैं अपने दोनों पोतो को इस यज्ञ वेदी के सामने देश के लिए समर्पित करता हूं।,” अपने दादा की इस घोषणा को भगत सिंह ने ने अक्षरश: सत्य सिद्ध किया ।बचपन से ही भगत सिंह की पढ़ाई लिखाई में गहरी रुचि थी, अपनी प्राथमिक शिक्षा बंगा में पूरी की उसके बाद माध्यमिक पाठशाला लाहौर में पढ़ने के लिए  चले गए।

सन 1919 का साल था । पंजाब में एक बहुत ही दुखदाई घटना घटी। ब्रिटिश सैनिकों ने वैशाखी के दिन जलिया वाले बाग में इकट्ठे हुए  निहत्थे लोगों पर गोलियां बरसाई वहां रक्त की नदी बह गई। उस घटना से देश भर की जनता के दिल व दिमाग में आतंक व क्रोध फैल गया। इस नरसंहार ने पूरे विश्व का ध्यान अपनी और आकर्षित किया ।भगत सिंह की उम्र तब 12 वर्ष की थी इस घटना ने उनको गहरा सदमा दिया। उन्होंने मन ही मन इस अन्याय का प्रतिकार करने का संकल्प कर लिया।

वह 14 वर्ष की आयु से ही पंजाब की क्रांतिकारी संस्थाओं में कार्य करने लगे थे। डी.ए.वी. स्कूल से उन्होंने नौवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। डीएवी में पढ़ते हुए उन्होंने नियमित रूप से सुबह शाम घंटों गायत्री मंत्र का जाप किया ।  वीर सावरकर, गणेश शंकर विद्यार्थी ,मदनलाल ढींगरा ,करतार सिंह सराभा एवं लाला लाजपत राय से बहुत प्रभावित थे ।आर्य समाज की भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रीय विचारधारा को देश की मुक्ति के लिए आवश्यक मानते थे उन्होंने अपना लेखन राष्ट्रभाषा हिंदी में किया यही कारण था कि राष्ट्रभाषा और मातृभाषा के प्रश्नों पर खुलकर लिखा और इस नतीजे पर पहुंचे के स्वतंत्रता तभी सार्थक होगी जब भारतीय अपने सुख दुख अपनी भाषाओं में कह सकेंगे। उनकी संस्कृत पर भी अच्छी पकड़ थी इसकी जानकारी उनके द्वारा अपने दादा अर्जुन सिंह को लिखे एक पत्र से मिलती है ,”ओम “से शुरू  करके वह लिखते हैं “संस्कृत में मेरे 150 में से 110 नंबर हैं अंग्रेजी में 150से 68 “।कॉलेज में पढ़ते हुए भगत सिंह ने गीता रहस्य का अध्ययन भी किया ।हिंदी नाटकों में अभिनय भी किया। भारत के इतिहास भारतीय संस्कृति भारतीय धर्मों पर लंबी चौड़ी वार्ता भी की ओर अपना पक्ष डट कर रखा । गुरु गोविंद सिंह जी के आदर्श वी भगत सिंह के पथ प्रदर्शक थे। उन्होंने जेल में आत्मकथा, भारत में क्रांतिकारी आंदोलन, समाजवाद का आदर्श, मृत्यु के द्वार पर ,का उल्लेख किया। भगत सिंह ने अपने लेखन में अनेक समस्याओं का चिंतन किया, आशूत समस्या पर क्रांतिकारी विचार दिए उनका कहना था कि तुम उन्हें पशुओं की तरह गया गुजरा समझोगे तो वह अवश्य ही दूसरे धर्म में शामिल हो जाएंगे ।आज जरूरत है धर्मांतरण के संबंध में भगत सिंह के इन विचारों पर फिर से चिंतन किया जाए।1923 में इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद उन्हें विवाह बंधन में बांधने की तैयारियां होने लगी तो वह लाहौर से भागकर कानपुर आ गए। जहां वे एक क्रांतिकारी गणेश शंकर विद्यार्थी के संपर्क में आए उन्हें उनके दैनिक समाचार पत्र प्रताप के कार्यालय में जगह मिल गई और वही भगत सिंह बलवंत सिंह बन कर काम करने लगे। फिर देश की आजादी के संघर्ष में ऐसे रमें कि पूरा जीवन ही देश को समर्पित कर दिया।

फिर लाहौर के नेशनल कॉलेज की पढ़ाई शुरू की वो भी बीच में छोड़कर भगत सिंह ने भारत की आजादी के लिए “नौजवान भारत सभा” की स्थापना की।

दशहरे के अवसर पर हुए बम विस्फोट के झूठे आरोप  में भगत सिंह को गिरफ्तार किया गया। जमानत मिलने पर गांव में ही दूध की डेरी का काम शुरू किया ,जब जमानत  मिली फिर क्रांतिकारी कामों में लग गए।

भगत सिंह ने देश की आजादी के लिए जिस साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुकाबला किया, वह युवकों के लिए हमेशा ही एक बहुत बड़ा आदर्श बना रहेगा। भगत सिंह को हिन्दी, उर्दू, पंजाबी तथा अंग्रेजी के अलावा बांग्ला भी आती थी । जेल के दिनों में उनके लिखे खतों व लेखों से उनके विचारों का अंदाजा लगता है। उन्होंने भारतीय समाज में भाषा, जाति और धर्म के कारण आई दूरियों पर दुख व्यक्त किया था।

दिल्ली में सन 1927 मे क्रांतिकारियों की बैठक में शामिल होने के बाद भगत सिंह फिर कभी घर नहीं लौटे।

साइमन कमीशन का विरोध करने पर लाला लाजपत राय जी पर लाठियां बरसाई गई जिससे उनकी मृत्यु हो गई क्रांतिकारियों ने निश्चय किया कि वे लालाजी की मौत का बदला लेंगे । भगत सिंह, राजगुरु ,जय गोपाल ने 17 दिसंबर 1928 को सांडर्स को मारकर लाला लाजपत राय जी की मौत का बदला ले लिया।

उन्होंने समाज के कमजोर वर्ग पर किसी भारतीय के प्रहार को भी उसी सख्ती से सोचा जितना कि किसी अंग्रेज के द्वारा किए गए अत्याचार को।

काकोरी कांड में रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ सहित 4 क्रांतिकारियों को फांसी व 16 अन्य को कारावास की सजा से भगत सिंह इतने ज्यादा बेचैन हुए कि चंद्रशेखर आजाद के साथ उनकी पार्टी “हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन” से जुड़ गए और उसे एक नया नाम दिया ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’। इस संगठन का उद्देश्य सेवा, त्याग और पीड़ा झेल सकने वाले नवयुवक तैयार करना था।

इसके बाद भगत सिंह ने अपने क्रांतिकारी साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर  ब्रिटिश भारत की तत्कालीन सेंट्रल असेंबली के सभागार में 8 अप्रैल 1929 को अंग्रेज सरकार को जगाने के लिए बम और पर्चे फेंके। बम फेंकने के बाद वहीं पर उन दोनों ने अपनी गिरफ्तारी भी दी।

जेल में भगत सिंह ने जेलर द्वारा आखरी इच्छा पूछे जाने पर  जेल के सफाई कर्मचारी तेलू राम के हाथ की वनी रोटियां खाने की इच्छा व्यक्त करके छुआछूत पर गहरी चोट की।इसके बाद ‘लाहौर षडयंत्र’ के इस मुकदमें में भगत सिंह को और उनके दो अन्य साथियों, राजगुरु तथा सुखदेव को 23 मार्च, 1931 को एक साथ फांसी पर लटका दिया गया। ज्यादातर लोग फांसी का जिम्मेदार महात्मा गांधी को समझते थे जिसने इरविन समझौता करते समय भगत सिंह के साथियों की रिहाई की मांग तक नहीं की।फांसी की कोठरी की तरफ जाते हुए तीनों ने गीत गाया “दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फत, मेरी मिट्टी से भी खुशबू – ए – वतन आएगी।यह माना जाता है कि मृत्यु दंड के लिए 24 मार्च की सुबह ही तय थी, लेकिन लोगों के भय से डरी सरकार ने 23-24 मार्च की मध्यरात्रि ही इन वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी ।फांसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहां मिट्टी का तेल डालकर इनको जलाया जाने लगा।

गांव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गांव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया।आपको बता दें,  फांसी से पहले भगत सिंह किताब ही पढ़ रहे थे. भगत सिंह को पढ़ना बहुत पसंद था. वह एक ऐसे क्रांतिकारी थे जिसके पीछे पूरी अंग्रेज हुकूमत पड़ी थी. उनकी किताबों को लेकर दीवानगी हैरान करती है. लेकिन वह अपनी जिंदगी के आखिरी वक्त तक नई-नई किताबें पढ़ते रहे. वो किताबें पढ़ते वक्त नोट्स भी बनाया करते थे, जो कि आज ऐतिहासिक दस्तावेज की शक्ल ले चुके हैं. उन नोट्स से उस वक्त के हालात और भगत सिंह की देश और समाज के लिए सोच का पता चलता हैI

भगत सिंह की शहादत से न केवल अपने देश के स्वतंत्रता संघर्ष को गति मिली बल्कि नवयुवकों के लिए भी वह प्रेरणा स्रोत बन गए। सुभाष चंद्र बोस जी के अनुसार ,”वह एक व्यक्ति नहीं अपितु क्रांति की आत्मा के प्रतीक थे।”


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