भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला भारत में समाजव्यवस्था की मूल इकाई व्यक्ति नहीं, परिवार है। परिवार एकात्म संकल्पना का सामाजिक रूप है। व्यक्ति परिवार का अंग बनकर ही अपना व्यावहारिक जीवन व्यतीत कर सकता है। परिवार की रचना के साथ-साथ परिवार भावना की समाज में बहुत प्रतिष्ठा है। भारत में परिवार भावना और परिवार आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक बुद्धि का अनुपम आविष्कार है।
भारत में संस्कृति की शिक्षा है। हमारे यहाँ शास्त्र शिक्षा को छोड़कर सब प्रकार की शिक्षा देने की व्यवस्था परिवार में ही रही है। शास्त्र शिक्षा गुरुकुल में होती है। व्यवहार शिक्षा घर में होती है। गुरु-शिष्य और पिता-पुत्र के रूप में पुरानी और नई पीढ़ी का सम्बन्ध बनता है।
इस सम्बन्ध का मुख्य सूत्र ‘पुत्रात् शिष्यात् इच्छेत् पराजयम्’ है। अर्थात गुरु अपने शिष्य से तथा पिता अपने पुत्र से पराजित होने की कामना करता है। इसका सीधा सा अर्थ यह है कि शास्त्र में और व्यवहार में नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी से सवाई होनी चाहिए। जब एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी को ज्ञान, संस्कार व कौशल आदि हस्तान्तरित करती है तब कालबाह्य बातें दूर करने उसे समृद्ध बनाने और युगानुकूल रचना करने का कार्य होता है। यह परिष्कृति का लक्षण है।
हम भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा, आज के आधुनिक परिवार को पुनः भारतीय परिवार बनाकर ही कर सकते हैं। इस दृष्टि से परिवार को भारतीयता में कैसे ढ़ालना चाहिए, इसके कुछ प्रमुख बिन्दु यहाँ दिए जा रहे हैं।
परिवार को सामाजिक इकाई बनाना
हमारे यहाँ समाज की सबसे प्रथम इकाई परिवार है। जब परिवार के सभी सदस्य मिलकर एक-साथ रहते हैं, तब परिवार की इकाई बनती है। अतः परिवार का प्रत्येक सदस्य स्वयं को परिवार से स्वतन्त्र न मानकर उस परिवार का अभिन्न अंग मानें। जिस प्रकार हाथ, पैर, मस्तक, हृदय और फेफड़े आदि अंगों के अलग-अलग कार्य होते हैं, फिर भी वे शरीर से अलग नहीं होते। शरीर से स्वतन्त्र उनका कोई अस्तित्व नहीं होता। उसी प्रकार परिवार के प्रत्येक सदस्य का परिवार से अटूट सम्बन्ध होता है।
भारत में विवाह को तथा संतान के जन्म को सांस्कृतिक स्वरूप देना आवश्यक है। पाश्चात्य विचार में विवाह एक करार है, जबकि भारतीय विचार में विवाह एक संस्कार है। इस सूत्र को आग्रहपूर्वक व्यवहार में लाना चाहिए।
स्त्री–पुरुष समानता लाना
आजकल पुत्र और पुत्री समान हैं, स्त्री व पुरुष समान हैं। यह नारा बहुत जोर-शोर से चल पड़ा है। स्त्री-पुरुष समानता का यह सूत्र अच्छा व सही है, परन्तु इसका अर्थ सही नहीं जानते। वे पुत्री को पुत्र जैसा और स्त्री को पुरुष जैसा बनाना चाहते हैं। इसका यह अर्थ भी निकलता है कि समाज को पुरुष ही चाहिए और परिवार को पुत्र ही चाहिए। जब पुत्री पुत्र जैसी और स्त्री पुरुष जैसी होगी, तभी स्त्री व पुरुष में समानता होगी। इस प्रकार सही सूत्र का गलत अर्थ लगाया जाता है। हमें इस गलत अर्थ से बचना चाहिए।
परिवार तथा समाज में स्त्री व पुरुष दोनों चाहिए, किसी एक के न होने से अव्यवस्था फैल जाएगी। स्त्री व पुरुष दोनों की अपनी अलग-अलग भूमिका निर्धारित हैं, उनके कार्य भी अलग-अलग हैं। जब स्त्री पुरुष के कार्य करने लगेगी तो स्त्री के कार्य बाधित होंगे। इसलिए होना यह चाहिए कि पुत्री, पुत्री ही बनी रहकर और स्त्री, स्त्री ही बनी रहकर पुरुष के समान ही सम्मान की अधिकारी हो। अतः प्रत्येक परिवार में पुत्री को अच्छी पुत्री और पुत्र को अच्छा पुत्र बनाने की प्रक्रिया अपनानी चाहिए।
गृहस्थाश्रमी का धर्म निभाना
एक गृहस्थी होने के नाते घर में भारतीय वेश पहनना, भारतीय साज-सज्जा करना, भारतीय भाषा बोलना जैसे कार्यों को प्राथमिकता के साथ करना चाहिए। घर में आए अतिथि को घर के सदस्यों से अधिक अच्छी सुविधाएँ दी जानी चाहिए। घर के मुखिया को उसके साथ भोजन करना चाहिए। घर में कोई भी आए, उसका स्वागत प्रसन्नतापूर्वक करना चाहिए।
प्रत्येक घर का एक कुल देवता या कुलदेवी होती है। इसी प्रकार घर का एक सम्प्रदाय भी होता है। कुल देवी या देवता का पूजन-अर्चन करना, सम्प्रदाय के आचारों का पालन करना और नई पीढ़ी को पूजन, अर्चन और आचार सिखाना माता-पिता का कर्तव्य है। इस विषय में माता-पिता का कोई विकल्प नहीं है।
गृहस्थाश्रमी का धर्म
सुदृढ़ परिवार बनाना
परिवार में रहना प्रत्येक सदस्य का जन्मजात अधिकार है। परिवार में कोई किसी का स्वामी नहीं, कोई किसी का आश्रित नहीं होता। कोई किसी पर उपकार नहीं करता, कोई किसी का ऋणी नहीं होता। एक सुदृढ़ परिवार में कभी हिसाब किताब नहीं होता, परिवार में तो अपनापन होता है, आत्मीयता होती है। सभी सदस्यों को मिलकर इस प्रकार का परिवार बनाना, उसे सुदृढ़ करना सभी सदस्यों का सम्मिलित कर्तव्य है।
परिवार सुदृढ़ बनाने हेतु पति-पत्नी का सम्बन्ध एकात्म होना आवश्यक है। इस एकात्मता का विस्तार माता-पिता और सन्तानों के तथा भाई -बहन के सम्बन्धों में होता है। पति-पत्नी ही एकात्म सम्बन्ध विकसित होने की प्रक्रिया के संरक्षक होते हैं। परिवार में खूब काम करो, खूब कमाओ, खूब उपभोग करो और उससे भी ज्यादा दान करो।
परिवार में संतान को जन्म देना एक ओर संस्कृति के प्रवाह को अखण्डित रखना है तो दूसरी और समाज को एक उत्तम व्यक्ति देना भी है। संतान को जन्म देना परिवार की संस्कृति सेवा और समाज सेवा है। इस सेवा के फलस्वरूप सृष्टिचक्र अबाधित हो निरन्तर चलता रहता है। इसी प्रकार परिवार के किसी सदस्य की उपलब्धि व्यक्तिगत नहीं होती, पूरे परिवार की उपलब्धि मानी जाती है।
घर को पवित्र बनाना
हमारे यहाँ कहा गया है – ‘घर एक मंदिर है।’ जैसे मंदिर में पवित्रता होती है, वैसी ही पवित्रता घर में भी होनी चाहिए। घर का मुख्य भाग रसोई होता है।
इसलिए जिस घर में रसोई को पवित्र स्थान माना जाता हो, गृहिणी को अन्नपूर्णा माना जाता हो, आहार शुद्धि को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता हो, भोजन को यज्ञ माना जाता हो और भोजन बनाने वाले का सबसे अधिक सम्मान होता हो, ऐसे घर में संस्कारों की कभी कमी नहीं रहती।
घर में आँगन हो, उसमें पशु-पक्षी आवें, वहाँ उन्हें दाना-पानी मिले, भिक्षुक व संन्यासी आवें, वहाँ उन्हें भिक्षा मिले, वे दो घड़ी बैठकर विश्राम करें, आँगन में पेड़-पौधे हों, जिनकी आत्मीयतापूर्वक देखभाल होती रहे, घर में गौमाता हो, जिसकी सेवा सब करते हों, ऐसा पवित्र घर भाग्यवानों को ही मिलता है।
परिवार को संस्कृति वाहक बनाना
संस्कृति समाज के माध्यम से व्यक्त रूप धारण करती है। संस्कृति परम्परा के रूप में काल के प्रवाह में जीवित रहती है। परम्परा को बनाए रखना परिवार का प्रमुख कार्य है और परम्परा को खण्डित न होने देना परिवार का दायित्व है। जीवन अखण्ड है, निरन्तर चलता रहता है, इस निरन्तरता को बनाए रखने के लिए संस्कृति प्रयासरत होती है। इस रूप में परिवार को आध्यात्मिक दायित्व मिला है।
भारतीय संस्कृति में त्याग की महिमा अधिक है। जब सभी परिजन एक दूसरे के लिए त्याग करते हैं, तभी परिवार में सुख व शान्ति आते हैं। इसलिए अपनी संतानों को त्याग करना सिखाना चाहिए। स्वयं त्याग करना और दूसरे व्यक्ति ने हमारे लिए त्याग किया है तो उसे सदैव याद रखना और उसके प्रति आदर का भाव रखना चाहिए।
आजकल शयनकक्ष (बेडरूम) की संख्या के आधार पर घर का वैभव आँका जाता है। अर्थात घर में बेडरूम कल्चर के स्थान पर लिविंग रूम कल्चर अपनाने की आवश्यकता है। घर की रसोई बड़ी बने, उसका कोठार बड़ा बने। घर के व्यक्तियों के साथ बाहर का कोई न कोई व्यक्ति भोजन हेतु नित्य साथ रहे। घर में अतिथियों का आना-जाना नित्य बना रहे। घर का काम सब मिलकर करें।
पारिवारिक विघटन के कारण दूर करना
अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा प्राप्त करना, बड़ी आयु में विवाह करना, एक ही सन्तान होना आदि सांस्कृतिक दूषण हैं। ये दूषण ही पारिवारिक विघटन के कारण बनते हैं। पारिवारिक विघटन आगे जाकर सामाजिक विशृंखलता और देशभक्ति के अभाव में परिणत होता है। विचारपूर्वक और साहसपूर्वक इन दूषणों को दूर करने का प्रयास करना चाहिए। साधु-सन्तों द्वारा इस विषय में प्रबोधन होते रहने चाहिए।
परिवारों में विवाह विषयक संकट बढ़ गए हैं, उन पर उचित पद्धति से पुनर्विचार की आवश्यकता है। बड़ी आयु में विवाह होना व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन में अस्थिरता और असन्तुलन पैदा करती है। बड़ी आयु में विवाह होने के परिणामस्वरूप सन्तान होने में संकट उपस्थित होता तथा असन्तोष व असन्तुलन के कारण विवाह विच्छेद की संख्या में वृद्धि होना आम बात हो गई है। हमें इस विषय को सामाजिक स्तर पर विचार कर समाधान निकालना चाहिए।
परिवार को स्वायत्त बनाना
हमें ऐसा व्यवसाय नहीं करना चाहिए, जिससे अन्य लोगों की रोजी-रोटी छिन जाय। ऐसा व्यवसाय भी नहीं करना चाहिए, जिससे व्यक्ति एवं प्रकृति दोनों के स्वास्थ्य की हानि हो। जिस व्यवसाय से संस्कारों की हानि होती हो, ऐसा व्यवसाय भी नहीं करना चाहिए। प्लास्टिक, बनी-बनाई (रेडीमेड) वस्तुएँ, होटेलिंग आदि व्यवसाय सांस्कृतिक अनिष्ट हैं। इनका प्रचलन दिन प्रतिदिन बढ़ रहा है। हमें इनसे पूर्णरूपेण बचना चाहिए।
मन के सद्गुण व सदाचारों से सम्बन्धित बातें घर में ही सिखाई जाती है तो वे संस्कार बनती हैं। भोजन और शिशु का लालन-पालन, ये दो ऐसे काम हैं जो घर में ही होने चाहिए। इन कामों में बाजार का प्रवेश होते ही संस्कारों का ह्रास होने लगता है। घर धर्मशाला नहीं है, होटल नहीं है और सदाव्रत भी नहीं है। हम घर की कर्मयुक्त सेवाकर ही घर को एक सुसंस्कृत घर बना सकते हैं। यह भाव सिखाना भी माता-पिता का ही दायित्व है।
स्त्री बनी रहकर
एकात्म परिवार व्यवस्था बनाना
एक परिवार में अपनी संतानों को पति-पत्नी बनने की, गृहस्थ और गृहिणी बनने की और माता-पिता बनने की शिक्षा मिलनी चाहिए। इस रूप में परिवार सांस्कृतिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। इस सूत्र को लेकर विचार करने पर ध्यान में आता है कि परिवार की वर्तमान स्थिति में बहुत कुछ बदल करने की आवश्यकता है।
उसका प्रथम चरण है, पुत्री को पुत्री की तरह और पुत्र को पुत्र की तरह विकसित और शिक्षित करना चाहिए। परिवार को स्वायत्त, स्वतन्त्र और स्वावलम्बी होना चाहिए। परिवार कैसे चलेगा, यह परिवार के सदस्य तय करेंगे। उनका निर्वाह कैसे होगा, इसका दायित्व परिवार के सभी सदस्यों का साँझा होगा।
घर गृहिणी का होता है। घर स्त्रियों से चलता है। पारिवारिक कलह का कारण भी अधिकतर घरों में स्त्रियाँ होती हैं। इससे घर की शान्ति और सुख नष्ट होते हैं। इस दृष्टि से पुत्रियों की शिक्षा की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए। पारिवारिक समरसता बनाने और उसे बनाए रखने में घर की स्त्रियों की भूमिका क्या हो? यह शिक्षा का विषय बनना चाहिए। यह शिक्षा घर में घर की पुरानी पीढ़ी की महिलाओं को और साधु-सन्तों को देनी चाहिए।
परिवार में कभी-कभी किसी सदस्य के स्खलन की घटना घट जाती है। कभी किसी को व्यसन की लत पड़ जाती है। ऐसे समय में विवेकपूर्ण व्यवहार की आवश्यकता होती है। दोष यदि व्यक्तिगत स्तर पर है तो उसे दूर करने में कठोरता, परामर्श, सहानुभूति आदि का प्रयोग कर उसे दूर करना चाहिए। परिवार के अन्दर ही एक दूसरे के प्रति क्षमाशीलता और उदारता का पुट भी होना चाहिए।
घर को सद्गुणों का केन्द्र बनाना
संयम और ब्रह्मचर्य की शिक्षा का केन्द्र तो घर ही है। लड़के-लड़कियों का निजी व्यवहार, लड़कों की मित्र-मंडली में होने वाली बातचीत, लड़कियों की वृत्तियाँ, लड़के-लड़कियों का परस्पर व्यवहार जैसी छोटी-छोटी बातें भी माता-पिता की जानकारी में रहनी चाहिए। उन पर पहरा न रखते हुए भी नियमन, नियंत्रण, निषेध आदि यथा आवश्यकता होने चाहिए। उन्हें उचित शिक्षा, उचित पद्धति से मिले ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए।
जिस प्रकार माता घर के सभी सदस्यों के लिए स्वाभाविक रूप से भोजन बनाती है, उसी प्रकार दस वर्ष की आयु तक बच्चों को माता-पिता ही पढ़ाएँ, यह भी उतना ही स्वाभाविक रूप से होना चाहिए। आज तीन वर्ष के बच्चों की शिक्षा को लेकर अनेक प्रकार की समस्याएँ आ रही हैं, वे सब समाप्त हो जायेंगी।
दान और तप के समान यज्ञ भी भारतीय परिवार के दैनन्दिन जीवन का अविभाज्य अंग बनना चाहिए। दान करना गृहस्थ का परम धर्म है। सुपात्र को आवश्यकता के अनुसार दान देना चाहिए। अपनी कमाई का दस प्रतिशत हिस्सा दान करना चाहिए। दान सात्त्विक होना चाहिए। किसी ने कुछ माँगा तो हमारे मुँह से ना नहीं निकलना चाहिए।
यज्ञ को सही कर्मकाण्ड से करने के साथ-साथ यज्ञ का वैज्ञानिक महत्त्व और यज्ञ भावना का विकास भी करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय है। दान के समान ही तप परिवार जीवन में एक महत्त्वपूर्ण आचार है। मन को संयमित करने के अनेक उपाय छोटे सदस्य बड़ों से प्रेरणा के रूप में ग्रहण करें, ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए। दूसरों के लिए अपनी रुचि को ढ़ालना अथवा अपनी प्रिय वस्तु का त्याग करना सिखाना चाहिए। किसी को देते समय खराब वस्तु न देकर अच्छी वस्तु देने का सहज स्वभाव बनना चाहिए।
आधुनिकता की हवा में न बहना
हमारे देश में अधिकांश लोग धनी व्यक्तियों की देखा-देखी करते हैं। वे इतना भी नहीं सोचते कि हम जिन कार्यों की नकल कर रहे हैं, वे कार्य हमारे स्वास्थ्य और प्रकृति के पर्यावरण को हानि पहुँचाने वाले तो नहीं हैं।
आज लोगों की मानसिकता यह बन गई है कि ये लोग गरीब हैं इसलिए इनके घरों में ये अत्याधुनिक वस्तुएँ नहीं हैं। अनेक लोग इस गरीबी की हीन भावना से ग्रसित भी हो जाते हैं। हमें परिवार में गरीबी की शर्म नहीं होनी चाहिए। गरीब होना कोई पाप नहीं है, परन्तु गरीब होने के कारण जूते, कपड़े या गहने माँगकर पहनना या मिठाई खाने के लिए बिना निमंत्रण के किसी भोज में चले जाना, दूसरों के पहने हुए कपड़े पहन लेना या नकली आभूषण पहनना आदि कर्म हमें नहीं करने चाहिए। इन कर्मों को करने में लज्जा का अनुभव अवश्य होना चाहिये।
परम्परा निभाने की मानसिकता बनाना
हमारे घर में श्रम प्रतिष्ठा, उद्यमशीलता और सेवा परायणता का वातावरण बनाना चाहिए। प्रसन्नता, उत्साह, सृजनशीलता का वावावरण निर्मित करना चाहिए। हास्यविनोद, वार्तालाप, सहयोग और सहभागिता आदि बातें भी होनी चाहिए। परिवार में कोई आश्रित नहीं होता। इसलिए हमारे होते हुए परिवार के किसी भी सदस्य को निराश्रित न रहना पड़े। घर में ऐसे सगे-सम्बन्धियों को आश्रय मिलना चाहिए और घर के सदस्य की भाँति उसे भी सम्मान देना चाहिए।
घर में परम्परा निभाने के कर्तव्य स्वरूप छोटे सदस्यों को अपने पूर्वजों का परिचय देना चाहिए। उनसे हमें क्या-क्या प्राप्त हुआ है, उन्होंने कैसे-कैसे श्रेष्ठ कार्य किए हैं,उनकी कौनसी मूल्यवान बातें हमें विरासत में मिली हैं? ऐसी सभी बातों की जानकारी हमें नई पीढ़ी को अवश्य देनी चाहिए। इसके साथ-साथ घर के छोटे सदस्यों को आज्ञाकारिता, संस्कारिता, अनुशासन, शिष्टाचार, सदाचार, विनय और सेवाभाव आदि सिखाना घर के बड़ों का ही काम है। ‘बच्चे हमारा कहना नहीं मानते’ ऐसी शिकायत करने का अवसर आना बड़ों की असमर्थता का ही द्योतक है।
हमें अपने पड़ौसी के साथ आत्मीयतापूर्ण सम्बन्ध बनाने चाहिए। यथा आवश्यकता पड़ौसी की सहायता करना और उनसे सहायता लेना चाहिए। परन्तु यह सब बिना उपकार की भावना से करना चाहिए। खान-पान की सामग्री पड़ौसी के साथ बाँटनी चाहिए। परस्पर प्रेम व सेवा का आदान-प्रदान होते रहना चाहिए।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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