प्रशांत पोळ
नारायण दाभाडकर जी
समाज के सभी घटकों की चिंता करना, उनके लिए त्याग का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करना और प्रचार – प्रसिध्दी की चकमकाहट से दूर रहकर समाज में उदात्त भाव जागृत करना, यह इस मिट्टी का, इस देश का स्वभाव हैं. किन्तु *जहां भी उदात्त भाव जगता हैं, वहां कम्युनिस्ट विचारधारा के अनुयाइयों को बड़ा असहज लगता हैं. उनको सुई चुभती हैं, ऐसे विचारों से.* वर्ग संघर्ष में विश्वास रखने वाले ये लाल झंडाबदार लोग, ‘ऐसे उदात्त विचार इस देश में हो सकते हैं’, इस बात पर विश्वास ही नहीं रखते. और फिर गिध्द जैसे टूट पड़ते हैं, ऐसे सरल, सीधे, ईश्वरतुल्य लोगों पर. और ऐसा हमला करते हुए वे रसातल में पहुंचने की, नीचता की सारी सीमाएं तोड़ देते हैं.
प्रसंग हैं, नागपुर के नारायण दाभाडकर जी के आत्मार्पण का ! ८५ वर्ष के इस वृध्द ने, कोविड संक्रमित होने के बाद, बड़ी मुश्किल से मिली हुई अपनी ऑक्सिजन बेड, एक चालीस वर्ष के युवक को दे दी, उसकी जान बचाने के लिये. वे घर चले गए और कृतार्थता के साथ, दो दिन बाद उन्होने अपना नश्वर शरीर त्याग दिया.
*यह उदात्तता की पराकाष्ठा का उदाहरण हैं. ये देश, अपनी हड्डियाँ गलाकर नवसृजन का रास्ता बनाने वाले दधीचि ऋषि का देश हैं.* स्वाभाविक हैं, की सारे देश में यह समाचार गया और लोगों ने श्रद्धापूर्वक इस समाचार को आगे बढ़ाया. देश की लगभग सारी प्रिंट मीडिया ने उसे अपनी महत्वपूर्ण पृष्ठों पर स्थान दिया. *एक संघ स्वयंसेवक की सेवा-समर्पण की भावना का अत्युच्च बिन्दु सारे लोगों तक पहुंचा.*
किन्तु इस समाचार मे, इस स्टोरी में एक वाक्य ऐसा था, जिससे सारे समाजवादी – साम्यवादी लोगों की नींद हराम हुई – ‘नारायण राव दाभाड़कर संघ के स्वयंसेवक थे’ ! बस. ये सारी गैंग काम पर लग गई. और दुर्भाग्य से इस देश की मानवता शर्मसार हुई. नारायण राव की इस उदात्त भावना का मखौल उड़ाया गया. ‘इस प्रकार की घटना हुई ही नहीं’ ऐसा भी कहा गया. नारायण राव का यह कृत्य याने आत्महत्या हैं, ऐसा लिखा गया…
समाज में मात्र एक या दो प्रतिशत की संख्या में रहने वाले इन समाजवादी – साम्यवादी लोगों ने, इनके इको सिस्टम ने, सारे समाज को विषाक्त बना दिया. यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण हैं. इन लोगों ने सारे समाज का अपमान किया हैं, अनादर किया हैं. हमारी समृध्द संत परंपरा, ऋषि परंपरा को न केवल दुत्कारा हैं, वरन उसे रौंदने का प्रयास भी किया हैं.
दिनांक २२ अप्रैल को, सायं ६ बजे के लगभग, नारायण दाभाड़कर जी को उनके दामाद, नागपुर के गांधी नगर में स्थित ‘इंदिरा गांधी अस्पताल’ में भर्ती करते हैं. नारायण राव को खिड़की के पास वाली बेड मिलती हैं. खिड़की के बाहर एक युवा दांपत्य को रोते हुए ये देखते हैं. पत्नी गिड़गिड़ाकर रो – रो कर भीख मांग रही हैं, उसके पति के लिए एक बेड की. नारायण राव का स्वयंसेवक मन विचलित होता हैं. वे बड़ी मुश्किल से, बिटिया, उसके दामाद और डॉक्टर को समझाकर यह बेड छोड़ते हैं की ‘मेरे से ज्यादा उस युवा दंपत्ति को इस बेड की आवश्यकता हैं’. घर में जाकर उनकी तबीयत बिगड़ती हैं. और वह दो दिन के बाद चल बसते हैं.
उनके परिवार वालों को इस में कोई बहुत बड़ी बात नहीं लगती. उनके लिए तो समाज में जीने का यही ढंग हैं. ये सारा परिवार संघ का हैं. बेटी आसावरी कोठीवान ने कार सेवा में भी भाग लिया हैं. इसलिए बाहर इस घटना की वाच्यता होती ही नहीं.
दो दिन के पश्चात, उनकी पारिवारिक मित्र, शिवानी दाणी, नारायण राव की बेटी आसावरी जी को फोन लगाती हैं. तब उसे पता चलता हैं की नारायण राव नहीं रहे. शिवानी आसावरी जी से कहती हैं, “आपने बताया नहीं?” तब आसावरी जी कहती हैं, “बड़ी मुश्किल से, बहुत प्रयास करने के बाद पिताजी के लिए बेड मिला था. लेकिन उनको वहां पर एक चालीस वर्ष के व्यक्ति का दर्द देखा नहीं गया. और ‘मैंने तो पूरा जीवन जी लिया’ ऐसा बोलकर वे घर निकल आए.”
दाभाड़कर और कोठीवान परिवार को प्रचार – प्रसिध्दी से दूर – दूर तक कोई लेना देना नहीं हैं. वह तो सहज रूप से यह अत्युच्च त्याग सामने आया और पूरे देश में यह एक मिसाल बन गया. इस समय कोठीवान परिवार के अधिकांश सदस्य कोरोना से संक्रमित हैं.
*इंदिरा गांधी अस्पताल, जहां दाभाड़कर जी को दो घंटे के लिए भर्ती किया गया था, उसके कोविड इंचार्ज डॉ. अजय हरदास जी ने कहा हैं,
“Though Narayan Rao got the bed, he sacrificed his bed for the patient with family responsibilities. We consider this as a great act of compassion and generosity. Though he died, he became immortal.” – Lokmat Times, 28th April, 2021
इस देश की संत परंपरा, ऋषि परंपरा निभाने वाले नारायण राव दाभाड़कर जी के आत्मार्पण का मखौल उड़ाने आले लोगों के लिए हम शर्मिंदा हैं. देश शर्मिंदा हैं.
*किन्तु, जैसा डॉ. अजय हरदास जी ने कहा हैं, ‘नारायण राव दाभाडकर अमर हो गए हैं !*
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