23 मार्च को क्यों मनाया जाता है शहीद दिवस? और क्या है इसका महत्व
23 मार्च, 2023 – नई दिल्ली : भारत में शहीदों के सम्मान और देश के लिए दिए गए उनके बलिदान को याद करने के लिए हर साल शहीद दिवस मनाया जाता है। इस दिवस पर भारत के गौरव, शान और आजादी के लिए लड़ने वाले भगत सिंह और उनके साथी राजगुरु, सुखदेव को श्रद्धांजलि दी जाती है। शहीद दिवस देश के लिए बहुत खास और भावुक दिन होता है। 23 मार्च को भारत के सपूतों शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु ने देश के लिए हंसते-हंसते फांसी की सजा को गले लगा लिया था। उनकी शहादत को देश का हर नागरिक सच्चे दिल से सलाम करता है।
क्यों मनाया जाता है शहीद दिवस ?
23 मार्च को तीन स्वतंत्रता सेनानियों भगत सिंह, शिवराम राजगुरु और सुखदेव थापर को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया था। कम उम्र में इन वीरों ने देश के आजादी की लड़ाई लड़ी और अपने प्राणों की आहुति दे दी। इसी के साथ भारतीयों के लिए भगत सिंह, शिवराम राजगुरु, सुखदेव प्रेरणा के स्रोत बने हैं। उनकी क्रांति और जोश आज युवाओं की रगों में बहता है। यही कारण है कि इन तीनों महान क्रांतिकारियों को श्रद्धांजलि देने के लिए भारत हर साल 23 मार्च को शहीद दिवस मनाया जाता है।
वीरों के लिए की जाती है प्रार्थना
शहीद दिवस के मौके पर भगत सिंह, सुखदेव और शिवराम राजगुरु को श्रद्धांजलि अर्पित की जाती है। विभिन्न शिक्षण संस्थाएं और सरकारी तथा गैर सरकारी संगठनों द्वारा इस मौके पर मौन सभा का आयोजन किया जाता है और वीरों की आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की जाती है। कई जगहों पर तो 23 मार्च शहीद दिवस पर निबंध लेखन तथा सार्वजनिक भाषण का भी कार्यक्रम आयोजित किया जाता है।
सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने के बाद सुनाई गई सजा
देश की आजादी के लिए कई वीर सपूतों भगत सिंह, शिवराम राजगुरु, सुखदेव ने अपने प्राणों की कुर्बानी दी थी। अंग्रेजी हुकूमत की खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करते हुए उन्होंने च्पब्लिक सेफ्टी और ट्रेड डिस्ट्रीब्यूट बिलज् के विरोध में सेंट्रल असेंबली में बम फेंके थे। जिसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और फांसी की सजा सुना दी गई। 23 मार्च यह वही दिन है, जब अंग्रेजी सरकार ने देश के तीन वीर सपूतों को फांसी दी थी।
वीर सपूतों के बारे में
भगत सिंह : – मातृभूमि के लिए प्राण न्यौछावर करने वाले भगत सिंह का जन्म पंजाब के लायलपुर में 28 सितम्बर 1907 को हुआ था। चन्द्रशेखर आजाद व पार्टी के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर भगत सिंह ने भारत की स्वतंत्रता के लिए अभूतपूर्व साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का साहस से मुकाबला किया। वह मार्क्स के विचारों से काफी प्रभावित थे। भगत सिंह का ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा काफी प्रसिद्ध है। यह नारा देशवासियों में जोश भरने का काम किया था। इसका मतलब है कि क्रांति की जय हो।
शहीद सुखदेव :- सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907 को पंजाब को लायलपुर पाकिस्तान में हुआ। भगतसिंह और सुखदेव के परिवार लायलपुर में पास-पास ही रहने से दोनों वीरों में गहरी दोस्ती थी। यही नहीं दोनों लाहौर नेशनल कॉलेज के छात्र भी थे। सांडर्स हत्याकांड में सुखदेव ने भगत सिंह तथा राजगुरु का साथ दिया था।
शहीद राजगुरु :- शहीद राजगुरु का 24 अगस्त, 1908 को पुणे जिले के खेड़ा में राजगुरु का जन्म हुआ। राजगुरु शिवाजी की छापामार शैली के प्रशंसक होने के साथ-साथ लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से भी प्रभावित थे।
30 जनवरी को मनाए जाने वाले शहीद दिवस से कैसे है अलग
आपको बता दें शहीदों के सम्मान में भारत में हर साल कुल सात शहीद दिवस मनाए जाते हैं। यह अलग-अलग तारीख और महीने में पड़ते हैं। यह सात दिन 30 जनवरी, 23 मार्च, 19 मई, 21 अक्टूबर, 17 नवंबर, 19 नवंबर और 24 नवंबर है। बात यदि 30 जनवरी और 23 मार्च को मनाए जाने वाले शहीद दिवस की करें तो इन दोनों में अंतर है। जी हां 30 जनवरी 1948 को भारत को आजादी मिलने के ठीक पांच महीने बाद नई दिल्ली में बिड़ला हाउस परिसर में नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी के सीने और पेट में तीन गोलियां मारी थी। वहीं 23 मार्च 1931 को शहीद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के बलिदान को याद किया जाता है, जब अंग्रेजों ने फांसी की सजा दे दी थी।
12 घंटे पहले फांसी दी, खाना भी नहीं खा सके: अधजले शव फेंक आए अंग्रेज; भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु से जुड़े किस्से
24 मार्च 1931 को भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दी जानी थी। भगत इस फैसले से खुश नहीं थे। उन्होंने 20 मार्च 1931 को पंजाब के गवर्नर को एक खत लिखा कि उनके साथ युद्धबंदी जैसा सलूक किया जाए और फांसी की जगह उन्हें गोली से उड़ा दिया जाए।
22 मार्च 1931 को अपने क्रांतिकारी साथियों को लिखे आखिरी खत में भगत ने कहा- ”जीने की इच्छा मुझमें भी है, ये मैं छिपाना नहीं चाहता। मेरे दिल में फांसी से बचने का लालच कभी नहीं आया। मुझे बेताबी से अंतिम परीक्षा का इंतजार है।”
फांसी के लिए तय वक्त से 12 घंटे पहले ही 23 मार्च 1931 को शाम 7 बजकर 33 मिनट पर भगत, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गई। इस घटना को आज 92 साल पूरे हो चुके हैं। हम इन क्रांतिकारियों के फांसी तक पहुंचने और आखिरी दिनों के कुछ किस्से पेश कर रहे हैं…
लाला की हत्या और भगत की कसम
कहानी शुरू होती है जब चौरी-चौरा के बाद 1922 में महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। इससे नाराज होकर भगत, चंद्रशेखर और बिस्मिल जैसे हजारों युवाओं ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियारबंद क्रांति का रुख कर लिया था। चंद्रशेखर आजाद की लीडरशिप में भगत सिंह ने भी हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) नाम का ग्रुप जॉइन कर लिया था।
30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध में एक जुलूस निकला, जिस पर पंजाब पुलिस के सुपरिनटैंडैंट जेम्स ए स्कॉट ने लाठीचार्ज करा दिया। इस लाठीचार्ज में लाला लाजपत राय बुरी तरह घायल हो गए और 18 दिन बाद इलाज के दौरान 17 नवंबर 1928 को उनका निधन हो गया।
भगत सिंह , सुखदेव और राजगुरु ने लालाजी की हत्या का बदला लेने की कसम खाई और स्कॉट की हत्या का प्लान बनाया। ठीक एक महीने बाद 17 दिसंबर 1928 को तीनों प्लान के तहत लाहौर के पुलिस हेडक्वार्टर के बाहर पहुंच गए। हालांकि स्कॉट की जगह असिस्टेंट सुपरिनटैंडैंट ऑफ पुलिस जॉन पी सांडर्स बाहर आ गया। भगत और राजगुरु को लगा कि यही स्कॉट है और उन्होंने उसे वहीं ढेर कर दिया।
JNU के पूर्व प्रोफेसर चमन लाल के मुताबिक सांडर्स पर सबसे पहले गोली राजगुरु ने चलाई थी। उसके बाद भगत सिंह ने सांडर्स पर गोली चलाई।
आजाद ने ही भगत सिंह को गिरफ्तार होने से बचाया
भगत सिंह और राजगुरु ने सांडर्स को इस्लामिया कॉलेज के सामने गोली मारी थी, फिर DAV कॉलेज में कपड़े बदले थे। इस प्लान में बैकअप देने का जिम्मा आजाद के पास था।
राजगुरु और भगत सिंह दोनों ने अपनी बंदूकें सांडर्स पर खाली कर दी थीं। इसी दौरान सिपाही चानन सिंह भगत सिंह को पकड़ने के बेहद करीब था, लेकिन आजाद ने उसे भी ढेर कर दिया।
सांडर्स की हत्या के बाद क्रांतिकारी जिस तरह लाहौर से बाहर निकले, वह भी बेहद रोचक किस्सा है। भगत सिंह एक सरकारी अधिकारी की तरह ट्रेन के फर्स्ट क्लास डिब्बे में श्रीमती दुर्गा देवी बोहरा (क्रांतिकारी शहीद भगवतीचरण बोहरा की पत्नी) और उनके 3 साल के बेटे के साथ बैठ गए। वहीं राजगुरु उनके अर्दली बनकर गए। ये लोग ट्रेन से कलकत्ता भाग गए, फिर आजाद ने साधु का भेष बनाया और मथुरा चले गए।
भगत सिंह की गिरफ्तारी और जेल में भूख हड़ताल
भगत सिंह को फांसी भले ही लाहौर सेंट्रल जेल में हुई, लेकिन उनकी गिरफ्तारी दिल्ली की सेंट्रल असैंबली में हुई थी। यहां ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ और ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ पर चर्चा हो रही थी। ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ पहले ही पास हो चुका था, जिसके तहत मजदूरों की हड़तालों पर पाबंदी लगा दी गई। वहीं ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ के जरिए ब्रिटिश हुकूमत संदिग्धों पर बिना मुकदमा चलाए हिरासत में रख सकती थी।
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त 8 अप्रैल 1929 की सुबह 11 बजे असैंबली में पहुंचकर गैलरी में बैठ गए। करीब 12 बजे सदन की खाली जगह पर दो बम धमाके हुए और फिर भगत सिंह ने एक के बाद एक कई फायर भी किए। धमाके के वक्त सदन में साइमन कमीशन वाले सर जॉन साइमन, मोतीलाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना, आरएम जयकर और एनसी केलकर भी मौजूद थे।
दिल्ली असैंबली में बम फेंकने के बाद जो पर्चे उछाले गए थे, उन पर लिखा था- ‘बेहरों को सुनने के लिए जोरदार धमाके की जरूरत होती है।’ ये पहले से तय था कि भगत सिंह और बटुकेश्वर गिरफ्तारी देंगे।
सांडर्स केस के लिए भगत सिंह को लाहौर जेल भेजा गया
12 जून 1929 को ही भगत को असैंबली ब्लास्ट के लिए आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई थी। हालांकि, जो बंदूक असैंबली में भगत सिंह ने सरेंडर की थी, वो वही थी जिससे सांडर्स की भी हत्या की गई थी। इसकी भनक पुलिस को लग चुकी थी। इस केस के लिए भगत सिंह को लाहौर की मियांवाली जेल में शिफ्ट किया गया था।
लाहौर जेल पहुंचते ही भगत सिंह ने खुद को राजनीतिक बंदियों की तरह मानने का और अखबार-किताबें देने की मांग शुरू कर दी। मांग ठुकरा दिए जाने के बाद 15 जून से 5 अक्टूबर 1929 तक भगत सिंह और उनके साथियों ने जेल में 112 दिन लंबी भूख हड़ताल की।
10 जुलाई को सांडर्स हत्या केस की सुनवाई शुरू हुई और भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव समेत 14 लोगों को मुख्य अभियुक्त बनाया गया। 7 अक्टूबर 1929 को इस केस में भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी की सजा सुनाई गई।
फांसी से पहले आखिरी घंटों में भी लेनिन को पढ़ते रहे भगत
BBC की एक रिपोर्ट के मुताबिक भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु को जल्दी फांसी देने का फैसला सुरक्षा की दृष्टि से लिया गया था। जेल के नाई बरकत ने जब ये खबर कुछ कैदियों को दी तो उन्होंने उससे भगत सिंह का कोई भी सामान निशानी के तौर पर ले आने के लिए कहा। बरकत भगत सिंह की कोठरी में गया और उनका पेन और कंघा लाकर दे दिया। कैदियों ने ड्रॉ निकालकर इन्हें आपस में बांट लिया।
भगत सिंह जेल की कोठरी नंबर-14 में बंद थे। फांसी दिए जाने से दो घंटे पहले उनके वकील प्राण नाथ मेहता उनसे मिलने आए।
भगत सिंह को फांसी का एहसास था, लेकिन उन्होंने मेहता से पूछा कि आप मेरी किताब ‘रिवॉल्यूशनरी लेनिन’ लाए या नहीं? जब मेहता ने उन्हें किताब दी तो वो उसे उसी समय पढ़ने लगे। मेहता ने उनसे पूछा कि क्या आप देश को कोई संदेश देना चाहेंगे? भगत सिंह ने किताब से अपना मुंह हटाए बिना कहा- सिर्फ दो संदेश… साम्राज्यवाद मुर्दाबाद और इंकलाब जिंदाबाद!
इसके बाद भगत सिंह ने उनसे कहा कि वो नेहरू और सुभाष बोस को मेरा धन्यवाद पहुंचा दें। जिन्होंने मेरे केस में गहरी रुचि ली थी। मेहता जब राजगुरु से मिले तो उन्होंने कहा- हम लोग जल्द मिलेंगे, आप मेरा कैरम बोर्ड ले जाना न भूलें।
आखिरी बार पसंद का खाना भी न खा पाए भगत
भगत सिंह को पता था कि 24 मार्च को उन्हें फांसी होनी है। ऐसे में उन्होंने जेल के मुस्लिम सफाई कर्मचारी बेबे से अनुरोध किया था कि वो उनके लिए एक दिन पहले शाम को घर से खाना लाएं। हालांकि, उन्हें वो खाना कभी नसीब नहीं हो पाया। भगत सिंह को जब पता चला कि उन्हें 23 की शाम को ही फांसी होने वाली है तो उन्होंने कहा- क्या आप मुझे इस किताब (रिवॉल्यूशनरी लेनिन) का एक चैप्टर भी खत्म नहीं करने देंगे?
फांसी के तख्ते पर भी नहीं डिगे भगत
जेलर चरत सिंह ने फांसी के तख्ते पर खड़े भगत सिंह के कान में फुसफुसा कर कहा कि वाहे गुरु को याद कर लो। भगत सिंह ने जवाब दिया- पूरी जिंदगी मैंने ईश्वर को याद नहीं किया। असल में मैंने कई बार गरीबों के क्लेश के लिए ईश्वर को कोसा है। अगर मैं अब उनसे माफी मांगू तो वो कहेंगे कि इससे बड़ा डरपोक कोई नहीं है। इसका अंत नजदीक आ रहा है, इसलिए ये माफी मांगने आया है।
फांसी देने के लिए मसीह जल्लाद को लाहौर के पास शाहदरा से बुलाया गया था।
जैसे ही तीनों फांसी के तख्ते पर पहुंचे तो जेल ‘सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है…’, ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ और ‘हिंदुस्तान आजाद हो’ के नारों से गूंजने लगा और अन्य कैदी भी जोर-जोर से नारे लगाने लगे। सुखदेव ने सबसे पहले फांसी पर लटकने की हामी भरी थी। वहां मौजूद डॉक्टरों लेफ्टिनेंट कर्नल जेजे नेल्सन और लेफ्टिनेंट कर्नल एनएस सोधी ने तीनों के मृत होने की पुष्टि की।
डरे अंग्रेजों ने जेल की पिछली दीवार तोड़ी और शव ले गए
चमन लाल के मुताबिक जेल के बाहर भीड़ इकठ्ठा हो रही थी। इससे अंग्रेज डर गए और जेल की पिछली दीवार तोड़ी गई। उसी रास्ते से एक ट्रक जेल के अंदर लाया गया और उस पर बहुत अपमानजनक तरीके से उन शवों को एक सामान की तरह डाल दिया गया।
अंतिम संस्कार रावी के तट पर किया जाना था, लेकिन रावी में पानी बहुत ही कम था, इसलिए सतलज के किनारे शवों को जलाने का फैसला लिया गया। हालांकि, लोगों को भनक लग गई और वे वहां भी पहुंच गए। ये देखकर अंग्रेज अधजली लाशें छोड़कर भाग गए। बाद में परिजनों ने उनका अंतिम संस्कार किया। तीनों के सम्मान में तीन मील लंबा शोक जुलूस नीला गुंबद से शुरू हुआ। पुरुषों ने विरोध में अपनी बाहों पर काली पट्टियां बांध रखी थीं और महिलाओं ने काली साड़ियां पहन रखी थीं।
इसके 16 साल बाद यानी 15 अगस्त 1947 को ब्रिटिश हुकूमत को हमेशा के लिए भारत छोड़कर जाना पड़ा।
सौजन्य : दैनिक भास्कर
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