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सरकार और किसान अब करें सीधा संवाद

November 24, 2021 By Guest Author

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डॉ. वेदप्रताप वैदिक का कॉलम: कृषि कानूनों की असफलता का रहस्य समझ में आ जाए तो देश का काफी भला होगा

Farmer Protest will End Today: आज खत्म होगा किसान आंदोलन?

24 नवम्बर, 2021 – तीन कृषि-कानूनों की वापसी की घोषणा करके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सराहनीय काम किया है। हालांकि, सवाल यह उठता है कि आखिर ये कृषि कानून विफल क्यों हुए? किसानों का यह आंदोलन भी कई सीख देने वाला है। किसान नेताओं को अपेक्षित व्यापक जन-समर्थन तो नहीं मिल पाया लेकिन आजादी के बाद देश में ऐसा अहिंसक और दृढ़व्रती आंदोलन शायद ही चला हो। हालांकि, मुझे याद नहीं पड़ता कि किसी आंदोलन में लगभग 700 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा हो।

लेकिन लोग पूछ रहे हैं कि प्रधानमंत्री ने अचानक यह घोषणा कैसे कर दी? इसका मूल कारण तो यही दिखाई पड़ता है कि अगले कुछ माह में पांच राज्यों के चुनाव सिर पर आ रहे हैं। किसान आंदोलन के बहाने विपक्षियों को जबर्दस्त प्रचार मिल रहा है। यदि पंजाब, उत्तरप्रदेश, हरियाणा और उत्तराखंड में भारतीय जनता पार्टी फिसल गई तो 2024 में दिल्ली का भी भाजपा के पास टिके रहना मुश्किल हो सकता है। राजनेताओं के लिए तो सत्ता ही ब्रह्म है। यह उसी ब्रह्म की साधना है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस घोषणा के बावजूद किसान नेताओं ने अपना आंदोलन जारी रखने का संकल्प प्रकट किया है। उन्हें संदेह है कि सरकार अपना वायदा पूरा करेगी या नहीं? वे कह रहे हैं कि जब तक संसद इस कानून को रद्द नहीं करेगी, वे अपना आंदोलन जारी रखेंगे। किसानों को यह संदेह इसलिए भी हो सकता है कि उनके साथ 11 बार ऐसा हुआ जब सरकार का संवाद निष्फल रहा। फिर सर्वोच्च न्यायालय ने भी जो विशेषज्ञ नियुक्त किए थे, उनकी रपट प्रकाशित नहीं की गई। फिर कहा गया कि ये कानून बने हुए तो हैं लेकिन अभी इन्हें लागू नहीं किया जाएगा।

किसान नेताओं को लग रहा था कि ये कानून कुछ पूंजीपतियों के फायदे के लिए लाए गए हैं। इसीलिए इन्हें येन-केन-प्रकारेण मोदी सरकार लागू करके ही रहेगी। लेकिन अब केंद्रीय मंत्रिमंडल और संसद, इन दोनों की मोहर भी इस घोषणा पर लगनी तय हो गई है। इसमें अब किसी संदेह की गुंजाइश नहीं है। यदि इस घोषणा के बावजूद मंत्रिमंडल या संसद में कोई दांव-पेंच किया जाएगा तो क्या प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा धूमिल नहीं हो जाएगी? हम जरा सोचें कि ऐसा कौन है, जो नरेंद्र मोदी को अपना वचन भंग करने के लिए मजबूर कर सके?

यदि कानून-वापसी की इस घोषणा में कोई दांव-पेंच होता तो क्या सारे विपक्षी दल इसका एक स्वर से स्वागत करते? स्वयं किसान नेताओं ने इसका स्वागत किया है और उनके अनुयायियों ने मिठाइयां बाटी हैं। सभी लोग मान रहे हैं कि इन कानूनों की वापसी की घोषणा उचित और उत्तम है। हरियाणा और पंजाब के आम आदमी भी खुश हैं कि किसानों के धरनों से अब उन्हें परेशान नहीं होना पड़ेगा।

Farmers Protest Kisan Andolan Update: Narendra Modi Modi Address Nation | PM  Modi Announced Govt Will Repeal Three Farm Laws | किसान जीते, सरकार हारी;  प्रकाश पर्व पर PM मोदी का कानून

लेकिन लोग आश्चर्यचकित हैं कि उक्त घोषणा करते वक्त प्रधानमंत्री ने इतनी अधिक विनम्रता, शिष्टता और पश्चाताप का परिचय क्यों दिया? ऐसा रुख तो वर्ष 1962 में चीनी हमले के बाद जवाहरलाल नेहरु और आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी ने भी नहीं अपनाया था। उन्होंने अपने संबोधन में ज्यादा समय यही बताने पर खर्च किया कि पिछले सात साल में उनकी सरकार ने किसानों के लिए जितने हितकारी कदम उठाए, उतने किसी भी अन्य सरकार ने नहीं उठाए। ये कानून भी इसीलिए बनाए थे कि भारतीय खेती का आधुनिकीकरण हो और किसानों की आमदनी में बढ़ोतरी हो। उन्हें अफसोस है कि वे अपने इरादों को किसानों को समझाने में असफल रहे।

वे क्यों असफल रहे? यह रहस्य समझ में आ जाए तो देश का काफी भला होगा और भाजपा को भी ताकत मिलेगी। कृषि-कानून जिस तरह से लाया गया, वही बताता है कि यह सरकार कोई भी निर्णय कैसे करती है। ये कानून सबसे पहले जून 2020 में अध्यादेश के जरिए लाए गए।

संविधान की धारा 123 के अनुसार अध्यादेश तभी लाए जाने चाहिए, जब कोई आपात स्थिति हो या संसद का सत्र बहुत बाद में होने वाला हो। ये दोनों स्थितियां घोषणा के समय नहीं थीं। इन दोनों विधेयकों पर किसी संसदीय समिति ने भी विचार-विमर्श नहीं किया।

संसद के दोनों सदनों में भी बिना गहरी बहस के इन पर आनन-फानन में ठप्पा लगवा लिया गया। किसानों का यह संदेह मजबूत हुआ कि कोरोना-काल के दौरान इसे इसीलिए लाया गया कि इसके विरुद्ध कोई आंदोलन नहीं हो पाएगा। जिस धड़ल्ले से इस सरकार ने शुरू-शुरू में भूमि अधिग्रहण और बाद में नोटबंदी, जीएसटी और कृषि-कानून आदि के फैसले किए, उनसे क्या नतीजा निकलता है? क्या यह नहीं कि इन फैसलों में कहीं ना कहीं चूक रही।

संभवत: विशेषज्ञों से राय नहीं ली गई। ना ही विपक्ष को महत्व दिया गया। विश्वास और भरोसे की जमीन तैयार नहीं की गई। कमोबेश ऐसी ही प्रवृत्ति ने हमारी विदेश नीति को भी जकड़ रखा है। यदि कृषि-कानूनों को लाने के पहले किसानों का विश्वास प्राप्त कर लिया जाता तो इन कानूनों को वापस लेने की यह नौबत ही क्यों आती?

किसानों ने अब अपनी जो छह मांगें सरकार के सामने रख दी हैं, उन पर भी सरकार उनके साथ सीधा संवाद करे, यह जरूरी है। कुछ मांगें तो इतनी जायज हैं कि उन्हें तत्काल मानने में सरकार को शायद संकोच नहीं होगा लेकिन उपजों की एमएसपी यानी सरकारी कीमत को कानूनी रूप देने की मांग काफी पेचीदा है।

अभी सिर्फ 23 चीजों पर यह कीमत लागू है लेकिन सरकार किसानों से ज्यादातर गेहूं और चावल ही खरीदती है। इन दोनों अनाजों को बाजार भाव से ज्यादा कीमत पर खरीदने का नतीजा यह है कि सरकारी भंडारों में लाखों टन अनाज सड़ रहा है और किसान अन्य फसलें उपजाने पर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं।

मालदार किसान चाहते हैं कि लगभग 200 फसलों की भी सरकारी कीमतों को कानूनी रूप दे दिया जाए। सरकार ने इस मुद्दे पर विचार के लिए जो कमेटी बनाई है, उसमें किसान प्रतिनिधि को अवश्य शामिल किया जाना चाहिए। इस दौरान सरकार छोटे मेहनतकश किसानों का सबसे ज्यादा ध्यान रखे, यह जरूरी है। इस समय किसानों और सरकार के बीच खुला और सौहार्दपूर्ण संवाद जरुरी है ताकि करोड़ों किसानों को उनकी सदियों से चली आ रही दुर्दशा से मुक्त किया जा सके।

6 मांगों पर विचार हो
किसानों ने अब अपनी जो छह मांगें रखी हैं, उन पर भी सरकार उनसे सीधा संवाद करे, यह जरूरी है। कुछ मांगें तो इतनी जायज हैं कि उन्हें तत्काल मानने में सरकार को शायद संकोच नहीं होगा लेकिन उपजों की एमएसपी यानी सरकारी कीमत को कानूनी रूप देने की मांग काफी पेचीदा है। अभी सिर्फ 23 चीजों पर यह कीमत लागू है लेकिन सरकार ज्यादातर गेहूं और चावल ही खरीदती है। इन दोनों अनाजों को बाजार भाव से ज्यादा कीमत पर खरीदने का नतीजा यह है कि सरकारी भंडारों में लाखों टन अनाज सड़ रहा है और किसान अन्य फसलें उपजाने पर ध्यान ही नहीं दे रहे हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

सौजन्य : दैनिक भास्कर


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