सिंघसूरमा लेखमाला
धर्मरक्षक वीरव्रति खालसा पंथ – भाग-8
अमृत शक्ति-पुत्रों का
वीरव्रति सैन्य संगठन
नरेंद्र सहगल
संपूर्ण भारत को ‘दारुल इस्लाम’ इस्लामिक मुल्क बनाने के उद्देश्य से मुगल शासकों द्वारा किए गए और किए जा रहे घोर अत्याचारों को देखकर दशम् गुरु श्रीगुरु गोविंदसिंह ने सोए हुए हिंदू समाज में क्षात्रधर्म का जाग्रण करके एक ऐसे शक्तिशाली सैनिक संगठन की स्थापना करने का निश्चय किया जो धर्मान्ध, अत्याचारी और पाप के झंडाबरदार मुस्लिम शासकों के तख्त को मिट्टी में मिला दे।
दशमेश पिता ने अपने बाल्य काल में अपने पिता तथा नवम् गुरु श्री तेगबहादुर को हिंदू समाज के स्वाभिमान की रक्षा के लिए आत्म-बलिदान देने के लिए प्रेरित किया था। विश्व के इतिहास में ऐसा उदाहरण कहीं मिलता। अपने पिता के कटे हुए शीश को देखते ही उनकी नन्ही सी मुठ्ठी तलवार पर जम गई थी। इस बालक ने पांचवे गुरु श्री अर्जुनदेव पर हुए गैर इंसानी जुल्मों और उनके बलिदान की लोमहर्षक कथा भी सुनी थी। इन्होंने छठे गुरु श्री हरगोविंद द्वारा समाज की रक्षा के लिए मीरी और पीरी की तलवार धारण करने के समय का अध्ययन भी किया था।
अतः इन सब परिस्थितियों में अपने देश और स्वधर्म को बचाकर रखने के लिए श्रीगुरु के पास अब एक ही रास्ता था कि संत सिपाही तैयार किए जाएं। एक हाथ में माला और दूसरे हाथ में तलवार के सिद्धांत पर आधारित एक ऐसी जत्थेबंदी तैयार की जाए जो शांति के समय प्रभु का सिमरन करें अर्थात माला फेरे और युद्ध के समय माला फैंक कर तलवार उठा ले। द्वापर युग में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने भी समय की आवश्यकता के अनुसार अपनी बांसुरी को वृंदावन में छोड़कर कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में सुदर्शनचक्र उठा लिया था।
अतः दशमेश पिता ने भारतवर्ष की सशस्त्र भुजा धर्म रक्षक खालसा पंथ की साजना का निश्चय करके देशभर में फैले अपने सभी अनुयायियों को आनंदपुर साहिब (पंजाब) में एकत्रित होने का आदेश दिया। 30 मार्च 1699 के वैसाखी पर्व पर आयोजित इस विशाल समागम में भारत के कोने-कोने से लगभग 80 हजार सिख शिष्य पहुंच गए। इसी समय दशम गुरु ने एक वर्ष तक चले अपने आदिशक्ति दुर्गा के पूजन का सतत् अनुष्ठान समाप्त किया। उनके द्वारा समस्त सामग्री एक साथ हवन कुंड में डालने से पर्वत शिखर पर ऊंची ज्वालाएं उठी।
इन ज्वालाओं में से नंगी तलवार लेकर दशमेश पिता बाहर आए और उन्होंने समागम के ऊंचे विशालकाय मंच पर आकर सिंह गर्जना की ‘आज मेरी तलवार एक सिख का शीश चाहती है।‘ संगत में सनसनी फैल गई। श्रीगुरु तो एक कौतुक (लीला) रच रहे थे। उन्होंने सपष्ट कहा कि बिना बलिदान के न देश बचेगा और ना ही स्वधर्म। जो धर्म में विश्वास करता है और गुरु का सच्चा सिख है वह अपना जीवन मुझे समर्पित कर दें। जब एक सिख ने उठकर अपना शीश देने की पेशकश की तो श्रीगुरु उसे लेकर मंच के पीछे बने एक तंबू में ले गए। फिर पुनः खून से लथपथ तलवार लेकर आए और एक और शीश मांगा। इस तरह श्रीगुरु ने 5 शिष्यों के शीश मांगे। हर बार वे पीछे तंबू में जाते और खून से लथपथ तलवार को लेकर मंच पर आकर एक और शीश की मांग करते।
इस तरह पांच सिख शिष्यों ने अपने शीश दशम् गुरु की सेवा में समर्पित कर दिए। तभी अचानक विशाल समागम में बैठी संगत आश्चर्यचकित रह गई जब श्रीगुरुजी इन पांचों शिष्यों को सिंह सजाकर पुनः मंच पर ले आए। इन पांचों बलिदानी सिखों ने लंबा कुर्ता, सिर पर केसरी पगड़ी, बगल में तलवार, कुर्ते के नीचे कछैहरा (कच्छा) पहना हुआ था। यही पाँच सिंह पंज प्यारे कहलाए।
अब श्रीगुरु ने लोहे के बाटे (बर्तन) में पानी और शक्कर का शरबत बनाकर सभी पांचों सिक्खों को ‘अमृत’ पिलाया और बाद में इनके हाथों से स्वयं भी वही अमृत पिआ। दशम् गुरु ने इस अवसर पर घोषणा की कि आज से हम सब लोग ‘खालसा’ हो गए। हमारा अकाल तख्त के साथ आस्था एवं विश्वास का नाता है। यह हमारा ‘खालसा’ सारी मानवता की भलाई के लिए एवं स्वधर्म की रक्षा के लिए अपने प्राण न्योछावर करने के लिए सदैव तत्पर रहेगा
उल्लेखनीय है कि खालसा पंथ की सिरजना (स्थापना) के समय दशम् गुरु ने 5 प्यारों के रूप में सारे देश की एकता का अनूठा संगठित स्वरूप प्रकट कर दिया। इन पांचों प्यारों का संबंध किसी एक प्रांत, जाति या भाषा से नहीं था। वर्तमान पंजाब से तो एक भी नहीं था। एक लाहौर, दूसरा मेरठ, तीसरा कर्नाटक, चौथा द्वारका और पांचवा जगन्नाथपुरी से था। सारे भारत के लोग इस महान राष्ट्रीय उत्सव में आए थे। श्रीगुरु गोविंदसिंह द्वारा दिया गया पंच ककार बाणा (कच्छ, कड़ा, किरपाण, कंघा, केस) पूर्णतया सनातन भारतीय संस्कृति पर आधारित है। (अगले लेख में इसका विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है)
पूर्व काल में राष्ट्र की अवश्यकत्ता के लिए इसी प्रकार से नए क्षत्रिय (सेना) उत्पन्न करने की प्रथा प्रचलित थी। एक समय पर यही क्षात्रधर्म सम्राट पुष्यमित्र के रूप में प्रतिष्ठित हुआ था। इसी तरह ही जब ब्राह्मणों ने आबू पहाड़ पर महान यज्ञ करके राजस्थान के जंगलों में रहने वाले वनवासियों में से अग्निकुल राजपूत उत्पन्न किए थे। उस समय पर हिन्दू समाज ने अपने को बप्पा रावल के नेतृव में संगठित किया था।
छत्रपति शिवाजी ने भी माता भवानी देवी की पूजा करके मराठा क्षत्रियों की सेना तैयार की थी, उन्होंने श्रुद्र वर्ग में से क्षत्रिय (सैनिक) तैयार किए थे। शिवाजी को स्वपन में माता भवानी ने तलवार भेंट की थी, जो अधर्म के नाश की प्रतीक थी। दशमेश पिता का ‘खालसा’ भी सभी वर्गों में से तैयार किया गया, क्षत्रियों का नया पंथ था, जिसे खालसा-पंथ कहा गया।
दशम् पातशाह श्रीगुरु गोविंदसिंह ने अन्य भारतीय महापुरुषों की भांति खालसा-पंथ की स्थापना को ईश्वरीय कार्य की संज्ञा दी। हमारे धर्म की मान्यतानुसार जब भी धरा पर पाप बढ़ने लगता है तो परमात्मा की योजना एवं आज्ञा से किसी राष्ट्र पुरुष का अवतरण होता है। उसी के प्रयत्न से संगठित शक्ति का उदय होकर धर्म की स्थापना होती है। खालसा पंथ की स्थापना के समय दशमेश पिता ने भी इसी की घोषणा की थी। – “आज्ञा भई अकाल की, तभी चलायो पंथ।“ खालसा पंथ को श्रीगुरु ने अपनी सेना अथवा व्यक्तिगत राज्य की स्थापना के लिए नहीं सजाया था।
उपनिषदों में समाज के कार्य के लिए तैयार होने वाली संगठित शक्ति को ‘अमृत शक्तिपुत्र’ कहा गया है। अतः दशम गुरु महाराज ने भी पाँच प्यारों को अमृत छका कर हिन्दू समाज का कायाकल्प करने हेतु खालसा पंथ बनाया। श्रीगुरु ने अपने आपको पाँच प्यारों की सनातन अमृत परंपरा के आगे समर्पित कर उसे आदेश दिया कि वे गुरुजी को भी अमृत पान करवाए। अपने शिष्यों के हाथों अमृतपान करके श्रीगुरु ने इस संस्था की सर्वकालिक श्रेष्ठता सिद्ध कर दी।
खालसा पंथ में हिन्दू समाज के विविध वर्गों तथा वर्णों के लोगों को क्षात्रधर्म में दीक्षित किया गया है। अतः यह जन-जन व्यापि पंथ सम्पूर्ण हिन्दू समाज एवं सम्पूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है। इसे हिन्दू समाज से भिन्न एक अलग कौम या राष्ट्र कहना उन साहिब श्रीगुरु गोविंदसिंह का अपमान करना है, जिन्होंने अमृतपान करवा कर स्वयं भी अमृतपान करके शक्ति पुत्रों का अमर संगठन बनाया और भारत राष्ट्र समेत समस्त मानवता को समर्पित कर दिया।
अतः स्पष्ट है कि खालसा पंथ को दशम् गुरु ने एक ऐसी सेना के रूप में संगठित किया जिसका उद्देश्य प्रांत, भाषा और जाति की सीमाओं तक सीमित न होकर सार्वभौम और सार्वकालिक था। ———– क्रमश:
सिंघसूरमा लेखमाला
धर्मरक्षक वीरव्रति खालसा पंथ – भाग-9
“सवा लाख से एक लड़ाऊँ
तबे गोविंदसिंह नाम कहाऊँ”
नरेंद्र सहगल
‘मानवता-घातक’ राक्षसी वृति से ओत-पोत मुगल शासकों ने खून की नदियां बहाकर समस्त हिंदू समाज को इस्लाम में धर्मांतरित करके एक समय के विश्वगुरु भारत को दारुल हरब (कट्टर इस्लामिक देश) बनाने के लिए इंसानियत की सभी हदें पार कर दी थी। दशमेश पिता श्रीगुरु गोविंदसिंह जी ने इसी पाशविक मुगलिया दहशतगर्दी को सीधी चुनौती देकर खालसा पंथ की स्थापना की थी। समस्त भारत में यह एक सशस्त्र क्रांति के नए युग की शुरुआत थी।
प्राचीन काल की तरह इस कालखंड में भी हिंदू जातिवाद की सकीर्ण दीवारों में बटां हुआ था। इस छुआछूत तथा इसी प्रकार के अन्य भेदों ने हिंदू समाज को भय और कायरता की चरम सीमा तक पहुँचा दिया था। यह भीरुता ही वास्तव में हिंदुओं के संगठन में बाधक थी। एकत्रित होकर शस्त्र धारण करके विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने की बजाए आपस में ही एक दूसरे को नीचा दिखा कर अपनों का ही खून बहाने के असंख्य उदाहरण मिल जाते हैं।
इन सभी कारणों से हिंदुओं का आत्मविश्वास और कुछ कर गुजरने की भावना पूर्णतया लुप्त हो रही थी। इस प्रकार की हीन भावना का भयंकर परिणाम यह हुआ कि लोग दिल्ली पर राज करने वालों को ही एक प्रकार से परमात्मा समझने लग गए। उस समय एक प्रचलित कहावत पर लोग विश्वास करने लगे – ‘दिल्लीश्वरो ही जगदीश्वरो’ अर्थात देश में जो कुछ भी हो रहा है वह ईश्वर की मर्जी से ही हो रहा है।
इस प्रकार की हीन भावना से ग्रस्त हिंदू समाज को क्षात्रधर्म में दीक्षित करने के लिए ही दशम् गुरु ने खालसा पंथ की सिरजना की थी। पंच प्यारों के हाथों स्वयं अमृतपान करते ही श्रीगुरु ने तलवार को हवा में ऊंची लहराते हुए सागर्व ललकार भरी। “सवा लाख से एक लड़ाऊं, चिड़ियों से मैं बाज मराऊं, तबे गोविंद सिंह नाम कहांऊ।“
मुगल शासक हिंदुओं को चिड़ियों का झुंड समझते थे। जैसे बाज के आने से चिड़िया भाग जाती है, उसी तरह मुगलों के हमले से हिंदू तित्तर-बित्तर होकर पलायन कर जाते थे। विदेशी आक्रान्ताओं को लगने लगा था कि वे हिंदुओं को लूटने, मारने, प्रताड़ित करने, अपमानित करने, और इनकी बहन-बेटियों का अपहरण करने का कार्य आसानी से कर सकते हैं।
इस माहौल ने दशमेश पिता को हथियार उठाने के लिए बाध्य कर दिया। तभी उन्होंने प्रतिज्ञा की “मैं तभी गोविंदसिंह कहलाऊंगा, जब इन चिड़ियों (हिंदुओं) में वह शक्ति उत्पन्न कर दूंगा, जिससे वह बाजों को मारकर उन्हें खाने लग जाएंगी। साथ ही एक चिड़िया में वह शक्ति होगी कि वह सवा लाख शत्रुओं को मार सके”
उल्लेखनीय है कि श्रीगुरु ने अपने समय में इस प्रतिज्ञा पर कार्य करना प्रारंभ कर दिया था। श्रीगुरु के ब्रह्मलोक में गमन करने के पश्चात उनकी इस वीरव्रति परंपरा को बंदासिंह बहादुर, महाराजा रणजीतसिंह, हरिसिंह नलवा, भाई मनीसिंह, जत्थेदार बघेलसिंह, जस्सासिंह, श्यामसिंह अटारी वाले इत्यादि सिख शूरवीरों ने मुगलों की ईंट से ईंट बजाकर अत्याचारी हाकमों के पांव उखाड़ दिए। इन सभी सिख बहादुरों ने हिंदुओं के मंदिरों, तीर्थ स्थलों और उनके रीतिरिवाजों की रक्षा के लिए ना केवल बलिदान ही दिए अपितु थोड़ी संख्या में होते हुए लाखों शत्रुओं को मारकर दशम गुरु की प्रतिज्ञा की लाज रखी ली – “सवा लाख से एक लड़ाऊं…..”
खालसा पंथ के अस्तित्व में आते ही उत्तर भारत विशेषतया सनातन पंजाब (अविभाजित पंजाब) में हिंदू समाज में जागृति आई। निराशा विश्वास में बदलने लगी। श्रीगुरु की इस शक्ति एवं सामर्श्य का आधार वह अध्यात्मिक शक्ति थी जिसकी आधारशिला प्रथम गुरु श्रीगुरु नानकदेव ने भक्ति आंदोलन (अभियान) के रूप में रखी थी। दशम गुरु द्वारा जाग्रत की गई शक्ति की नीव में त्याग, समर्पण और बलिदान की वह भावना थी जिसे श्रीगुरु ने आदिशक्ति दुर्गा के पूजन से प्राप्त किया और तत्पश्चात इस शक्ति का संचार अपने पांचों प्यारों (आदि शिष्यों) में कर दिया।
उत्तर भारत के हिंदू अब दुर्गा के उस स्वरूप के दर्शन करने लगे जो हाथ में तलवार लेकर सिंह की सवारी करती थी। श्रीगुरु के इस ‘खालसा अभियान’ के परिणाम स्वरुप हिंदू समाज में पुनः आदिशक्ति दुर्गा की पूजा होने लग गई। दुर्गा युद्ध की अधिष्ठात्री देवी है। परंतु आदिशक्ति की पूजा केवल मंत्रजाप अथवा माला फेरने से नहीं हो सकती। इसके लिए तो अखंड यज्ञ करना होता है। यज्ञ भी वह जिसमें मनुष्य स्वयं के शीश की बलि दे। श्रीगुरु गोविंदसिंह ने वही यज्ञ किया, पांच शिष्यों के ‘शीश बलिदान’ के बाद खालसा पंथ की सिरजना करके स्वधर्म एवं राष्ट्र के लिए मरने मारने वाले सिंह (क्षत्रिय) तैयार कर दिए।
प्रसिद्ध इतिहासकार डॉक्टर सतीष मित्तल ने अपने ग्रंथ ‘भारत में राष्ट्रीयता का स्वरुप’ में लिखा है – “गुरुगद्दी पर आसीन होते ही दशम गुरु ने श्री आनंदपुर साहिब और तत्कालीन पंजाब (जिसमें पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश तथा अब पाकिस्तान बन चुका पश्चिमी पंजाब भी शामिल था) की वीरभूमि को राष्ट्रीयता एवं सांस्कृतिक एकता के सूत्र में गूँथने के एक विराट प्रकल्प की कार्यभूमि बनाने के प्रयास शुरू कर दिए।
राष्ट्रीय उत्थान का जो कार्य आचार्य शंकर ने दर्शन के माध्यम से और संत तुलसीदास ने साहित्य के माध्यम से संपन्न किया था, उसी को दशमेश पिता ने अपने व्यवहारिक आदर्श कर्मयोग द्वारा आगे बढ़ाया। उन्होंने मृत प्राय हिंदू समाज एवं राष्ट्र को आत्म बलिदान का पाठ पढ़ा कर सिंह बना दिया। एक ओर, उन्होंने अपने समय के घोर आततायी मुगल-शासन की अनीतियों का विरोध शस्त्रशक्ति से किया, तो वहीं दूसरी ओर स्वयं को असहाय समझने वाले हिंदू मानव में अपनी तेजस्वी वाणी से अद्भुत उत्साह तथा उत्सर्ग की भावना का संचार किया।“
उल्लेखनीय है कि अपने ही पांचों सिहों (शिष्यों) के हाथों स्वयं अमृतपाल करने वाले दशम गुरु ने पांचों को इतिहासिक आदेश देते हुए कहा – “अब आप पहले वाले सिख न होकर मेरे सिंह (शेर) हो। जो व्यक्ति धर्म की खातिर स्वयं को कुर्बान करने के लिए तत्पर रहता है, वह मौत को भी जीत लेता है। वह कभी नहीं मरता। आज से हम सब खालसा हैं। खालसा ही हमारी जाति-बिरादरी है। इसमें ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं। हम सूरमा क्षत्रिय हैं। हमारा कार्य ना किसी पर जोर जबरदस्ती करना है और ना ही जोर जबरदस्ती को सहन करना है अर्थात खालसा ना जुल्म करेगा और ना ही जुल्म सहेगा।
लोहे के बाटे, इस्पात के खंडे तथा गुरुबाणी से त्यार किए गए जिस अमृत को हमने पान किया है, उससे निश्चय ही हमारा शरीर लोहे का हो गया है। भविष्य में जो भी यह अमृतपान करेगा उसमें यह गुणा आ जाएंगे। निस्वार्थ सेवा और लोकहित हमारे जीवन के लक्ष्य हो जाएंगे।“
इस ऐतिहासिक प्रसंग के बाद श्रीगुरु ने अमृतपान की प्रथा को समस्त हिंदू समाज में प्रचलित करके खालसा पंथ के अनुयायियों (खालसा सैनिकों) का भर्ती अभियान प्रारंभ कर दिया। पंजाब की हिंदू माताओं ने अपना एक-एक पुत्र खालसा पंथ में दीक्षित करने की प्रतिज्ञा की। देखते ही देखते हजारों युवक सिंह सजने लगे। ———– क्रमश:
नरेंद्र सहगल
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक
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