हितेश शंकर

यह संघर्ष मुसलमान बनाम ईसाई या हिंदू बनाम मुस्लिम का नहीं है। यह संघर्ष कट्टरपंथ बनाम लोकतंत्र, चरमपंथ बनाम नागरिक समाज का है। कोलोन की महिलाएं, रॉदरहम की बच्चियां, जर्मनी का असंतोष और पोलैंड की ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति, ये सब चेतावनियां हैं।
गत 13 सितंबर को लंदन की सड़कों पर टॉमी रॉबिन्सन के नेतृत्व में ‘यूनाइट द किंग्डम’ रैली में उमड़े जन समूह ने अवैध प्रवासियों, इस्लामी कट्टरपंथ और बढ़ते अपराध के विरुद्ध गहरा असंतोष व्यक्त किया। बीबीसी रिपोर्ट (14 सितंबर, 2025) के अनुसार, इस रैली में अनुमानतः 1.25 लाख से अधिक लोग शामिल हुए। यूरोप में जनसंख्या विस्थापन और सांस्कृतिक टकराव की यह लड़ाई अब दुनिया की सुरक्षा, पहचान और लोकतंत्र के अस्तित्व का सवाल बन गई है।
इस गुस्से की जड़ें और गहरी हैं। नागरिकों को लगता है कि अवैध प्रवासियों और बढ़ते इस्लामी कट्टरपंथ ने न केवल कानून-व्यवस्था को चुनौती दी है, बल्कि समाज की मूलभूत संरचना को भी कमजोर करना शुरू कर दिया है। सार्वजनिक जगहों पर खुलेआम शरिया कानून की मांग, जिहादी नारों और हिंसात्मक विचारधाराओं की पैरवी अब यूरोप के कई हिस्सों में दर्ज की गई है (UK Home Office Crime Data, 2023)। इन सबने नागरिकों के उस भरोसे को तोड़ दिया है कि सरकार उनकी रक्षा कर पा रही है।
लंदन की सड़कों पर गूंजा यह स्वर ब्रिटेन तक सीमित नहीं रहा। जब एलन मस्क जैसे वैश्विक प्रभाव वाले व्यक्तित्व ने एक वीडियो में जनसंख्या असंतुलन पर टिप्पणी करते हुए कहा, ‘‘Numbers don’t lie’’ (X/Twitter Post, सितंबर 2025)-तो संदेश साफ था कि लंदन का संकटअब केवल स्थानीय समस्या नहीं रहा, बल्कि यह पश्चिमी देशों के भीतर पैदा हो रहे सांस्कृतिक संघर्ष और असंतोष का प्रतीक है।
लंदन, जिसे कभी दुनिया के सबसे सुरक्षित शहरों में गिना जाता था, अब अपराध और भय की छाया में डूबा दिख रहा है। मेट्रोपोलिटन पुलिस के आंकड़े (2018-2024) बताते हैं कि सिर्फ घड़ी चोरी के मामलों की संख्या 43,000 से ऊपर जा चुकी है। अरबपति सर जिम रैटक्लिफ तक सार्वजनिक रूप से अपनी मंहगी घड़ियां पहनना बंद कर चुके हैं। यह सिर्फ अपराध की गिनती नहीं, बल्कि उस अराजकता का प्रमाण हैं जो ढीली नीतियों और अवैध घुसपैठियों ने लंदन पर थोप दिया है।
फ्रांस की स्थिति तो और भयावह है। Le Monde (2024) की रिपोर्ट बताती है कि प्रवासियों के हमलों और नस्लभेदी छींटाकशी से तंग आकर कई महिलाएं अपने बाल काले करवा रही हैं ताकि कम आकर्षक दिखें और बच सकें। सोचिए! पेरिस, जो कभी स्वतंत्रता और खुलेपन का प्रतीक था, वहां की महिलाएं अब अपनी पहचान को छुपाने पर मजबूर हैं।
प्यू रिसर्च (2017, 2020) के अनुसार, 2050 तक यूरोप में मुस्लिम आबादी दोगुनी हो जाएगी। अराजकता और उपद्रव से स्थानीय समाज अब आक्रोशित होने लगा है। जर्मनी के ARD DeutschlandTrend Survey (2025) में 68 प्रतिशत नागरिकों ने कहा है कि इन शरणार्थियों का प्रवाह अब रुकना चाहिए।
711 ई. में स्पेन पर उमय्यदों के हमले और उसके बाद 700 वर्ष तक चले संघर्ष का उदाहरण बताता है कि यह केवल युद्ध नहीं, बल्कि सभ्यता की परीक्षा थी। अरब सेनाओं का अल-अंदालुस शासन और उसके बाद रिकॉनक्विस्ता (पुनः विजय) इस ऐतिहासिक वास्तविकता का प्रमाण है।
आज संघर्ष का स्वरूप बदल गया है। अब इसे तलवार से नहीं, बल्कि जनसंख्या और संस्कृति के स्तर पर लड़ा जा रहा है। सैमुअल पी. हंटिंगटन ने 1996 में Clash of Civilizations में इसी स्थिति की भविष्यवाणी की थी। डगलस मरे (The Strange Death of Europe, 2017) भी इसी बात को रेखांकित करते हैं कि संख्या और संस्कृति का गणित ही यूरोप के संकट का केंद्र है।
जर्मनी में 2015 में नए साल की रात को लगभग 650 महिलाओं का यौन उत्पीड़न हुआ (Der Spiegel, Jan 2016)। ब्रिटेन के रॉदरहम (1997-2013) में लगभग 1,400 से अधिक बच्चियों के साथ सुनियोजित यौन शोषण के मामले सामने आए (UK Independent Inquiry Report, 2014)। ये घटनाएं दिखाती हैं कि यह संकट महज अपराध नहीं, बल्कि संगठित सामाजिक असंतुलन का परिणाम है।
एंजेला मर्केल की उदार प्रवासन नीति के परिणामस्वरूप जर्मनी की सामाजिक सेवाओं और स्वास्थ्य व्यवस्था पर असहनीय बोझ पड़ा। OECD Migration Outlook (2022) के अनुसार, प्रवासन के कारण बेरोजगारी और आवास संकट में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। इसी वजह से शरणार्थियों को लेकर असंतोष 35 प्रतिशत से बढ़कर 68 प्रतिशत तक पहुंच गया।
फ्रांस में मैरीन ले पेन की पार्टी National Rally को हाल सर्वेक्षणों में 37 प्रतिशत से अधिक समर्थन मिल रहा है (IFOP Poll, Aug 2025)। यह बताता है कि उदारवाद और इस्लामोफोबिया की बहस से परे, आम नागरिक अपनी सुरक्षा, संस्कृति और जीवन स्तर को बचाने के लिए विकल्प तलाश रहे हैं।
किंतु बड़ा प्रश्न यह कि इस सब में भारत के लिए अनुभवों से सीखने वाली बात क्या है! भारत ने पारसियों और यहूदियों जैसे समुदायों को सहजता से अपनाया, लेकिन रोहिंग्या और बांग्लादेशी घुसपैठ जैसी चुनौतियों पर सतर्क रहते हुए इसकी कड़ी रोकथाम करनी ही होगी। UNHCR Data (2023) दिखाता है कि भारत में दर्ज रोहिंग्या शरणार्थियों की संख्या 40,000 से ऊपर है। सवाल यह है कि क्या हमारी सहिष्णुता लोकतंत्र और सुरक्षा पर बोझ तो नहीं बन पाएगी?
शिक्षा और सांस्कृतिक संस्थानों में मजहबी दबाव, जैसे पाठ्यक्रम बदलवाने की मांग, राष्ट्रगीत से इनकार या समानांतर शरिया काउंसिल-संवैधानिक ढांचे के लिए गंभीर चुनौती हैं।
यह समझने वाली बात है कि यह संघर्ष मुसलमान बनाम ईसाई या हिंदू बनाम मुस्लिम का नहीं है। यह संघर्ष कट्टरपंथ बनाम लोकतंत्र, चरमपंथ बनाम नागरिक समाज का है। कोलोन की महिलाएं, रॉदरहम की बच्चियां, जर्मनी का असंतोष और पोलैंड की ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति, ये सब चेतावनियां हैं।
यह मुद्दा अब केवल मानवीयता का नहीं, बल्कि सभ्यता, सुरक्षा और सामाजिक अस्तित्व का प्रश्न बन गया है। यह अब केवल पेरिस या लंदन का नहीं, लोकव्यवस्था का प्रश्न बनकर उभर रहा है। X@hiteshshankar
पांचजन्य के संपादक