5 जुलाई, इतिहास का वह दिव्य दिवस है जब श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने “मीरी” और “पीरी” — सांसारिक सत्ता और आध्यात्मिक शक्ति — के अद्भुत संतुलन की स्थापना की। यह दिन सिर्फ एक धार्मिक घोषणा नहीं, बल्कि सत्ता के अन्याय के विरुद्ध आत्मरक्षा का वैदिक उद्घोष था।
‘अकाल पुरख की फौज’… सिख धर्म के लोगों को सदियों से एक फौज के रूप में देखा गया है। वे बहादुर हैं, ताकतवर हैं और किसी से डरते नहीं ऐसा माना जाता है। इसका सबसे बड़ा कारण है स्वयं सिख गुरु, जिन्होंने धर्म की खातिर अपनी जान कुरबान कर दी। केवल गुरु ही नहीं, बल्कि उनके बाद भी इतिहास के पन्नों पर अपना सुनहरा नाम लिखवाने वाले बहादुर योद्धाओं ने भी यही दास्तां दोहरायी।
आज के इस युग में भी सिख कौम को बहादुरों के नाम से ही जाना गया है। शायद यही कारण है कि भारत देश की सेना में जवानों की सबसे बड़ी संख्या सिखों की ही है। लेकिन जिस धर्म को सहज स्वभाव वाले गुरु नानक देव जी ने आरंभ किया, अपने उपदेशों के बल पर उन्होंने इस धर्म की नींव रखी, एक ऐसे ही गुरु को मानने वालों ने तलवार कब उठा ली?
‘सतिगुरु नानक प्रगटिया, मिट्टी धुंध जग चानन होआ’… गुरु नानक देव जी ने हमेशा ही अंधकार में उजाला लाने का काम किया। लोगों को सही मार्ग दिखाया, लोगों में प्रचलित विभिन्न अंधविश्वासों को खत्म किया इसलिए उनके उपदेश ही सिख कौम के लिए काफी थे। लेकिन गुरु नानक की हर एक सीख प्रत्येक गुरु में पाई गई।
शायद यही कारण है कि उनके बाद जितने भी गुरु हुए उनको उनके नाम से सम्बोधित करने से पहले ‘दूसरे नानक’, ‘तीसरे नानक’ या फिर ‘दसवें नानक’ कहा जाता रहा है। परन्तु केवल उपदेश या फिर सिमरन के नाम पर चलने वाले गुरुओं ने कब और क्यों शस्त्रों को धारण कर युद्ध में उतरने का फैसला किया, इसका इतिहास बेहद प्रभावशाली है।
इतिहास के मुताबिक इस धर्म में कुल 10 गुरु रहे जिनके बाद आखिरी गुरु ‘गुरु ग्रंथ साहिब’ हुए जिसमें 10 गुरु साहिबान के उपदेश तथा कुछ महान कवियों के भी कथन शामिल किए गए। दसवें नानक गुरु गोबिंद सिंह जी का आदेश था – ‘सब सिखन को हुकुम है, गुरु मानियो ग्रंथ’। अर्थात् अब इसके बाद कोई भी मानवीय रूह गुरु नहीं बन सकती, केवल यह महान ग्रंथ ही सबको गुरु के होने का एहसास दिलाएगा। क्योंकि इसमें उनकी हर एक परेशानी का समाधान है। जीवन के हर एक पड़ाव पर व्यक्ति अपनी परेशानी के सुझाव को इस महान ग्रंथ में पा सकता है।
सिख धर्म के पहले गुरु नानक देव जी के बाद, दूसरे गुरु हुए ‘गुरु अंगद देव जी, जिन्होंने गुरु नानक देव जी के ही सिद्धांतों को लोगों तक पहुंचाया। इसके बाद तीसरे थे ‘गुरु अमरदास जी’ जिन्होंने लोगों को ‘लंगर’ का महत्व समझाया। एक ही कतार में बैठकर, सभी धर्मों के लोगों के साथ फिर चाहे वह हिन्दू है या मुसलमान, उनके साथ बैठकर गुरु का लंगर खाना सिखाया।
इसके बाद थे ‘गुरु रामदास जी’ जिन्होंने अमृतसर की नगरी बसाई और संगतों को ‘श्री हरिमंदिर साहिब’ जैसा सुंदर धार्मिक स्थल प्रदान किया। अगले एवं पांचवें नानक थे ‘गुरु अर्जन देव जी’ जिनकी शहादत को सारा संसार जानता है। धर्म ना बदलने पर तथा मुगलों के सामने सिर ना झुकाने वाले गुरु अर्जुन को दर्दनाक सजाएं दी गईं।
यह तब की बात है जब पुरातन पंजाब में गुरु जी काफी प्रसिद्ध हो गए थे। गुरु जी की शरण में आने वाला कोई भी भक्त, फिर चाहे वह किसी भी धर्म से ताल्लुकात रखता हो, वह अपनी फरियाद लेकर आता और उसका सही सुझाव पाता। धीरे-धीरे करके ना जाने कितने ही लोग इस धर्म के साथ जुड़ने लगे और यह बात मुगल सरकार को अंदर ही अंदर खाए जा रही थी।
बस इसी आग में जलते हुए मुगल बादशाह जहांगीर ने सोचा कि यदि स्वयं गुरु ही इस्लाम धर्म अपनाने को तैयार हो जाएं तो उनके भक्त अपने आप ही दौड़े चले आएंगे। लेकिन वह यह भी जानता था कि गुरु जी इतनी आसानी से मानेंगे नहीं इसलिए उसने सीधा ही गुरु जी को गिरफ्तार करने के आदेश दिए।
आज्ञानुसार कुछ सैनिक जाकर गुरु जी को गिरफ्तार कर लाहौर ले आए। इतिहास के अनुसार गुरु जी को इस्लाम अपनाने के लिए शुरुआत में प्यार से समझाया गया लेकिन उन्होंने अपना धर्म छोड़कर इस्लाम कुबूल करने के लिए मना कर दिया।
गुरु अर्जन देव जी ने ‘नानक की लहर’ को ना छोड़ने का फैसला किया और इसके बदले में अपनी जान की भी कुर्बानी देने को तैयार हो गए। उन्हें सबसे पहले लाहौर के किले में बंदी बनाकर रखा गया। रोज़ाना कितने ही लोग उन्हें मिलने आते और समझाते कि इस्लाम कुबूल कर लो वरना परिणाम बहुत बुरा होगा, लेकिन गुरु जी किसी भी दुनियावी दर्द से घबराते नहीं थे। उन्हें बस एक ही डर था और वो था कि कहीं वे अपने धार्मिक पथ से दूर ना हो जाएं। और उनके बाद मुगलों के इस अत्याचार को समाप्त करने वाला भी कोई न हो। बस यही सोचकर गुरु जी ने अपने पुत्र ‘हरगोबिंद’ के लिए एक पैगाम भिजवाया, जो कि उस समय केवल 11 वर्ष के थे।
इतनी छोटी सी आयु में गुरु जी ने हरगोबिंद को धर्म की गुरुगद्दी पर बैठने तथा संगत को संभालने के आदेश दिए। उन्होंने हरगोबिंद से दो तलवारें पहनने को कहा, पहली तलवार ‘पीरी’ की और दूसरी ‘मीरी’ की। यह दोनों तलवारें अत्याचार के खिलाफ लोगों को बचाने के लिए ही बनाई गईं।
इन दोनों तलवारों का अपना ही अर्थ था। मीरी की तलवार एक गुरु की ताकत को दर्शाती थी तो दूसरी ओर पीरी की तलवार आध्यात्मिकता का प्रतीक थी। इन दोनों तलवारों ने गुरु जी को धर्म के मार्ग पर चलते हुए अधर्म का खात्मा करना सिखाया।
इतिहास के अनुसार विभिन्न दर्द देने के पश्चात गुरु अर्जन देव जी शहीद हो गए, जिसके बाद अपने गुरु पर हुए अत्याचार का बदला लेने की आग छठे नानक ‘गुरु हरगोबिंद जी’ में जलने लगी। लेकिन उन्होंने सबसे पहले एक बड़ी सेना तैयार करने का फैसला किया।
इस सेना का एक-एक जवान हजारों-लाखों के बराबर लड़ने की ताकत रखता था। गुरु जी ने अपने बहादुरों को गतखा, तलवार बाजी, घुड़सवारी, आदि सिखाए और इस काबिल बनाया कि जब भी कहीं अधर्म की लहर चले तो वे मीरी-पीरी के सिद्धांत को अपनाते हुए लोगों को अत्याचार मुक्त करा सकें।
सिख इतिहास में सबसे पहला युद्ध लड़ने वाले गुरु भी गुरु हरगोबिंद ही थे। लेकिन धर्म के मार्ग पर गुरु जी द्वारा किए गए कुछ कार्य आज भी उसी प्रकार चल रहे हैं जैसा कि वे चाहते थे। चौथे नानक गुरु रामदास जी द्वारा बनाए गए हरिमंदिर के ठीक सामने गुरु जी ने ‘अकाल तख्त’ का निर्माण कराया और उसे धर्म संबंधी हुक्म देने का अधिकार दिया।
5 जुलाई, इतिहास का वह दिव्य दिवस है जब श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने “मीरी” और “पीरी” — सांसारिक सत्ता और आध्यात्मिक शक्ति — के अद्भुत संतुलन की स्थापना की। यह दिन सिर्फ एक धार्मिक घोषणा नहीं, बल्कि सत्ता के अन्याय के विरुद्ध आत्मरक्षा का वैदिक उद्घोष था।
मीरी-पीरी: संत और सिपाही का समन्वय
साल 1606 में, गुरु अर्जन देव जी की शहादत के बाद जब श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने गुरुगद्दी संभाली, तो उनका मार्गदर्शन स्पष्ट था — धर्म की रक्षा केवल उपदेशों से नहीं, आवश्यक हो तो संगठन और शस्त्र से भी करनी होगी। उन्होंने अमृतसर के हरमंदिर साहिब के सामने दो तलवारें धारण कीं — एक “मीरी” की प्रतीक (राजनीतिक अधिकार), दूसरी “पीरी” की (आध्यात्मिक दायित्व)। यही दो तलवारें आज संत-सिपाही परंपरा की आधारशिला मानी जाती हैं।
श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी: छठे गुरु साहिबान
शस्त्रधारी गुरु को देखकर कई लोग भ्रमित होते हैं, लेकिन श्री गुरु हरगोबिंद साहिब जी का व्यक्तित्व दो धाराओं का समागम था। अंदर से पूर्ण विरक्त संत, बाहर से लोककल्याण के लिए सजग योद्धा। उनका जीवनदर्शन एक ही वाक्य में समाहित था:
एक ऐतिहासिक भेंट: गुरु हरगोबिंद और समर्थ रामदास
साल 1634, उत्तर भारत की यात्रा पर निकले समर्थ रामदास, श्रीनगर में गुरु हरगोबिंद साहिब जी से मिलते हैं। गुरु जी उस समय शिकार यात्रा से लौट रहे थे — पूर्ण शस्त्रों से सुसज्जित, घोड़े पर सवार, सिख सैनिकों की टुकड़ी साथ।
एक पारंपरिक सन्यासी के रूप में यह दृश्य रामदास जी के लिए अप्रत्याशित था।
रामदास जी ने पूछा:
“मैंने सुना था कि आप गुरु नानक की गद्दी पर हैं। लेकिन गुरु नानक तो त्यागी संत थे। आप तो शस्त्र धारण करते हैं, सेना रखते हैं और लोग आपको ‘सच्चा पातशाह’ कहते हैं। यह कैसा साधु है?”
गुरु साहिब जी ने उत्तर दिया:
“भीतर से विरक्त संत हूं, बाहर से राजसी प्रकट।
शस्त्र गरीब की रक्षा और ज़ालिम के विनाश का माध्यम हैं।
बाबा नानक ने संसार नहीं, माया (अहंकार और स्वार्थ) को त्यागा था।”
और फिर उन्होंने पंक्तियाँ उच्चारित कीं:
“ਬਾਤਨ ਫਕੀਰੀ, ਜ਼ਾਹਿਰ ਅਮੀਰੀ,
ਸ਼ਸਤ੍ਰ ਗਰੀਬ ਦੀ ਰਖਿਆ, ਜ਼ਾਲਮ ਦੀ ਭਖਿਆ,
ਬਾਬਾ ਨਾਨਕ ਸੰਸਾਰ ਨਹੀਂ ਤਿਆਗਿਆ, ਮਾਇਆ ਤਿਆਗੀ ਸੀ।”
https://www.inreports.co/2025/07/miri-piri-divas-guru-hargobind-samarth-ramdas-shivaji.html
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