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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: कार्य, विस्तार एवं उद्देश्य

October 1, 2025 By Guest Author

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पंजाब पल्स ब्यूरो

संघ की स्थापना

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 27 सितम्बर 1925 (विजयादशमी, विक्रम संवत् 1982) को हुई। इसका उद्देश्य सम्पूर्ण हिन्दू समाज का संगठन था। तब से सहयोग और सहभागिता के बल पर संघ का कार्य निरंतर बढ़ता गया है। प्रतिदिन चलने वाली शाखाओं के माध्यम से बालक, युवा और प्रौढ़ अपने जीवन में सकारात्मक परिवर्तन अनुभव करते हैं, जिससे समाज में संघ की शक्ति और स्वीकृति सतत बढ़ रही है। आज 100 वर्ष की इस यात्रा ने समाज में उत्सुकता जगाई है कि लोग संघ कार्य को जानें और प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उससे जुड़ें।

डॉ. हेडगेवार जन्मजात देशभक्त थे। अंग्रेजों की गुलामी उन्हें गहरी चुभती थी, पर वह मानते थे कि केवल स्वतंत्रता प्राप्त करना पर्याप्त नहीं है। उन्होंने सोचा कि भारत गुलाम क्यों बना, इसका मूल कारण खोजकर उसका समाधान करना होगा। आत्मजागृति, स्वाभिमान, एकता, अनुशासन और राष्ट्रीय चरित्र निर्माण को उन्होंने आवश्यक माना। इसी उद्देश्य से स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहते हुए भी उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की।

श्री गुरूजी के अनुसार, “विजयादशमी के शुभ प्रसंग पर स्वर्गीय डॉक्टर हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना कर विसृंखलित हिंदू समाज को संगठित करने का कार्य प्रारंभ किया था। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भगवा ध्वज के नीचे संपूर्ण हिंदू समाज को संगठित करने का निरंतर कार्य कर रहा है। आज चारों ओर भीषण परिस्थिति उपस्थित है। ऐसी अवस्था में संगठन के बिना बचना संभव नहीं है। हजारों वर्ष की अवनति चुटकी बजाते दूर नहीं हो सकती, यह संघ जानता है। पर इससे हम निराश नहीं हैं। हमारा पूर्ण विश्वास है कि हिंदू समाज संगठित होकर अपने पूर्व गौरव को अवश्य प्राप्त करेगा।

संघ के प्रारंभिक 15 साल

डॉ. हेडगेवार के निधन के तेरहवें दिन, यानि 3 जुलाई 1940 को नागपुर में डॉ. साहब की श्रद्धांजलि सभा आयोजित की गई। सरसंघचालक के नाते श्री गुरूजी ने डॉ. हेडगेवार जी को याद करते हुए बताया कि डॉ. साहब के कार्य की परिणति पंद्रह वर्षों में एक लाख स्वयंसेवकों के संगठित होने में हुई।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संदर्भ में दत्तोपंत ठेंगड़ी कहते हैं, “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का निर्माण किसी भावना या उत्तेजना में आकर नहीं हुआ है। श्रेष्ठ पुरुष, जन्मजात देशभक्त डॉक्टर जी, जिन्होंने बचपन से ही देशभक्ति का परिचय दिया, सब प्रकार का अध्ययन किया और अपने समय में चलने वाले सभी आंदोलनों और कार्यों में हिस्सा लिया, कांग्रेस और हिंदू सभा के आंदोलनों में भाग लिया, क्रांतिकार्य का अनुभव लेने के लिए बंगाल में भी रहे, उन्होंने गहन चिंतन के पश्चात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की योजना बनाई।”

नागपुर के बाद 1929 में वर्धा और फिर 1932 में पुणे में संघकार्य की शुरुआत हुई।[3]  जल्दी ही महाराष्ट्र के अन्य शहरों में भी विस्तार होने लगा। जहाँ 1929 में शाखाओं की संख्या 37 थी, वह 1933 तक 125 हो गई। डॉ. हेडगेवार एक पत्र के माध्यम से लिखते हैं, “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य हमने किसी एक नगर या प्रांत के लिए आरंभ नहीं किया है। अपने अखिल हिंदुस्थान देश को यथाशीघ्र सुसंगठित करके हिंदू समाज को स्वसंरक्षण एवं बलसंपन्न बनाने के उद्देश्य से इसे प्रारंभ किया गया है।“

संघ का यह विचार और विस्तार दोनों ब्रिटिश सरकार के लिए अनुकूल नहीं थे। दिल्ली में ब्रिटिश अधिकारी एम. जी. हालौट द्वारा मध्य प्रांत सरकार पर दबाव बनाया गया कि वह संघ को रोकने का प्रयास करे। आखिरकार दिसंबर 1933 में मध्य भारत के शिक्षकों और निकायों के कर्मचारियों को संघ के कार्यक्रमों में हिस्सा लेने से रोक लगा दी गई।[5] मार्च 1934 में प्रतिबंध के विरोध में एक कटौती प्रस्ताव विधानसभा के समक्ष रखा गया। इसके पक्ष में टी.एच. केदार, आर.डब्ल्यू. फुले, रमाबाई तांबे, बी.जी. खापर्डे, आर.ए. कानिटकर, सी.बी. पारेख, यू.एन. ठाकुर, मनमोहन सिंह, एम.डी. मंगलमूर्ति, एस.जी. सपकल और डब्लू.वाई. देशमुख सहित अन्य सदस्यों ने अपनी बात रखी।[6] संघ की अवधारणा का इस प्रकार समर्थन अभूतपूर्व था। बहस के अंत में ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाया गया प्रतिबंध वापस ले लिया गया।

डॉ. हेडगेवार जन्मजात देशभक्त थे

डॉ हेडगेवार के निर्देशन में देशभर में प्रवास होने लगे। भाऊराव देवरस (लखनऊ), राजाभाऊ पातुरकर (लाहौर), वसंतराव ओक (दिल्ली), एकनाथ रानाडे (महाकौशल), माधवराव मूळे (कोंकण), जनार्दन चिंचालकर एवं दादाराव परमार्थ (दक्षिण भारत), नरहरि पारिख एवं बापूराव दिवाकर (बिहार) और बालासाहब देवरस (कोलकाता) ने संघ कार्य का विस्तार करना शुरू किया।

परिणामस्वरूप, लगभग एक दशक बाद देशभर में 600 से अधिक शाखाएँ और लगभग 70,000 स्वयंसेवक नियमित अभ्यास करने लगे।[9] 1939 तक दिल्ली, पंजाब, बंगाल, बिहार, कर्नाटक, मध्य प्रांत, बंबई (वर्तमान महाराष्ट्र और गुजरात) में संघ शाखाएँ लगनी शुरू हो गईं।

डॉ. साहब 15 वर्षों तक संघ के पहले सरसंघचालक रहे। इस दौरान संघ शाखाओं के द्वारा संगठन खड़ा करने की प्रणाली डॉ. साहब ने विचारपूर्वक विकसित कर ली थी। संगठन के इस तंत्र के साथ राष्ट्रीयता का महामंत्र भी बराबर रहता था। वे दावे के साथ आश्वासन देते थे कि अच्छी संघ शाखाओं का निर्माण कीजिए, उस जाल को अधिकतम घना बुनते जाइए, समूचे समाज को संघ शाखाओं के प्रभाव में लाइए, तब राष्ट्रीय आज़ादी से लेकर हमारी सर्वांगीण उन्नति करने की सभी समस्याएँ निश्चित रूप से हल हो जाएँगी। इन वर्षों में जिनसे भी उनका संपर्क हुआ, उन्होंने उनकी और उनके कार्यों की हमेशा सराहना की। जिनमें महर्षि अरविंद, लोकमान्य तिलक, मदनमोहन मालवीय, विनायक दामोदर सावरकर, बी. एस. मुंजे, विट्ठलभाई पटेल, महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और के. एम. मुंशी जैसे नाम प्रमुख थे।

संघ का कार्य : व्यक्ति निर्माण

1935 में एक भाषण के दौरान डॉ. हेडगेवार कहते हैं, “कोई स्वयंसेवक आज अच्छी तरह से काम कर रहा है और कल वह अपने घर बैठ जाए। यदि किसी दिन कोई स्वयंसेवक शाखा में उपस्थित न रहे, तो तुरंत उसके घर पहुँचकर यह जानकारी लेनी चाहिए कि क्यों नहीं आया।”

राष्ट्रीय चारित्र्य निर्माण और सामूहिक गुणों की उपासना (साधना), उन राष्ट्रीय गुणों का सामूहिक अभ्यास करने तथा अपने ध्येय का नित्य स्मरण करने के लिए संघ में शाखा नामक कार्यपद्धति विकसित हुई। प्रतिदिन एक घंटा चलने वाली शाखा में यह भाव जगाया जाता है कि भारत का सम्पूर्ण समाज एक है, समान है और सभी अपने हैं। साथ ही, उद्यम, साहस, धैर्य, शक्ति, बुद्धि और पराक्रम जैसे गुण विकसित करने हेतु खेल आदि विविध कार्यक्रम शाखा पर होते हैं। अनुशासन, एकता, वीरत्व और सामूहिकता का भाव निर्माण करने के लिए समता-अभ्यास (परेड), बैंड के ताल पर पथ संचलन (Route March) और योग-व्यायाम (पीटी) जैसे कार्यक्रम शाखा में प्रारम्भ हुए और आज भी हो रहे हैं।

शाखा व्यक्ति-निर्माण की सतत साधना है। समाज को अपना मानकर उसके लिए कुछ न कुछ और कभी-कभी सब कुछ अर्पित करने का संस्कार यहीं से मिलता है। इस विचार को व्रत के रूप में स्वीकार कर जीवन भर उसका पालन करने का संकल्प लेकर जीने वाले हजारों स्वयंसेवक सक्रिय हैं। ऐसे सहयोगी कार्यकर्ताओं को देखकर प्रेरित हुए हजारों-लाखों स्वयंसेवकों के द्वारा आनंदपूर्वक यह समर्पण-यज्ञ अविरल चल रहा है।

श्री गुरुजी का मानना है कि संघ केवल संगठन का काम करने वाला है। उसे न तो नाममात्र के अनुयायियों की फौज खड़ी करनी है और न ही किसी प्रकार की राजनीति करनी है। संघ तो सामाजिक जीवनयुक्त उत्कृष्ट नागरिक तैयार करना चाहता है और इसके लिए वह आवश्यक अनुशासन उन्हें सिखाता है। यह सीधा-साधा काम हैं।

संघ कार्य : राष्ट्र कार्य है  

डॉ. हेडगेवार का उद्देश्य केवल संख्या बढ़ाने पर नहीं, बल्कि वास्तव में हिंदुओं को संगठित करना था। समाज में स्वाभाविक सामर्थ्य जगाना ही संघ का अंतिम लक्ष्य होगा।

संघ कार्य राष्ट्रकार्य है, मेरा कार्य है और यह समाज से धन लेकर नहीं, बल्कि स्वयंसेवकों की गुरुदक्षिणा स्वरूप प्राप्त समर्पण राशि से ही चलेगा—यह अनोखा विचार डॉ. हेडगेवार ने प्रस्तुत किया और लागू किया, जो आज भी चल रहा है।

भारत में श्रेष्ठ आदर्श व्यक्ति को गुरु मानने की परम्परा प्राचीनकाल से रही है और आज भी प्रचलित है। परन्तु सम्पूर्ण समाज का संगठन होने के कारण संघ में कोई व्यक्ति गुरु नहीं है। हिन्दू समाज जितना प्राचीन है, उसका गुरु भी उतना ही प्राचीन होना चाहिए। इस विचार से संघ में हिन्दुत्व का प्रतिनिधि और सनातन प्रतीक भगवा ध्वज गुरु के रूप में स्थापित किया गया।

गुरु जी माधव सदाशिवराव गोलवलकर

श्री गुरूजी के अनुसार संघ की आवश्यकता

संघ के 20 वर्ष पूरे होने पर श्री गुरुजी ने कहा था, “20 वर्ष पूर्व जब संघ का जन्म हुआ, तब यह बात तो नहीं थी कि भारतवर्ष में कोई दूसरी संस्था ही नहीं थी। देश में कितनी संस्थाएँ थीं, जो अपने-अपने पथ पर चलकर, अपने-अपने तरीके से काम कर रही थीं, परंतु ‘हिंदुस्थान हिंदुओं की स्वाभाविक जन्मभूमि, कर्मभूमि और पुण्यभूमि है’, इसका ध्यान किसी को भी नहीं था। इस बात का विस्मरण ही हो गया था। अपनी प्राचीन संस्कृति, सभ्यता, इतिहास आदि को भुलाकर लोग नए सिरे से काम करने निकले, मानो यहाँ पहले कभी कुछ था ही नहीं। विद्वान लोग कहते थे – हमारा राष्ट्र अभी बनने जा रहा है। प्राचीनकाल से भारतवर्ष में एक सभ्य समाज है और यह स्वयं एक महान राष्ट्र है, इसका ज्ञान लुप्त-सा हो गया था। अपने अतीत को हम भूल गए थे, उससे हमें घृणा होने लगी थी। हमें ‘हिंदू’ नाम से भी घृणा हो गई थी। परंतु जो मनुष्य अपने अतीत से घृणा करता है, वह भविष्य कदापि नहीं बना सकता।”

श्रीगुरुजी का मानना है कि हिंदुओं की यह प्रवृत्ति एक अतीव भव्य संस्कृति का विनाश करने की प्रवृत्ति है। हमारी संस्कृति विशाल है, जो केवल मनुष्य को ही नहीं, अपितु अखिल चराचर सृष्टि को आत्मवत् मानती है। हमारी संस्कृति के स्थापक ऋषि-मुनियों ने दूसरों को अवश्य अपनाया है, पर अपने आत्मीयजनों को ठुकराकर नहीं। ‘स्वयं जीवित रहो और दूसरों को भी रहने दो’ की नीति पर भारतीय चलते हैं। हम समझने लगे हैं कि केवल गत सौ वर्षों से ही हमें नया ज्ञान होने लगा है, उसके पहले देश में अंधकार था।

श्रीगुरुजी कहते हैं निःस्वार्थ भाव से देशकार्य के लिए अपना जीवन लगा देने का निश्चय कितने अंतःकरणों में है? वह आगे कहते है, कि ‘मेरा समाज मेरा देव है, मेरा ध्येय है’ — यह भाव दिखाई नहीं देता।

श्रीगुरुजी के अनुसार संघ इसलिए पैदा हुआ कि हर एक हिंदू हिंदूपन, अपने हिंदू गौरव, हिंदू जीवन, हिंदू परंपरा, हिंदू इतिहास का अभिमान करे, अपने को हिंदू समझे।”[12]

गुरुजी कहते हैं कि हिंदू समाज के संगठन के लिए व्यक्ति को समष्टि जीवन जीने का अभ्यास होने की आवश्यकता है, यही बताने के लिए संघ का जन्म हुआ है। हमें हिंदू समाज को इतना सामर्थ्यशाली बनाना है कि कोई उसकी ओर गलत दृष्टि से देखने की हिम्मत न कर सके।

वर्तमान में संघ का कार्य विस्तार

श्रीगुरुजी संघ के विस्तार पर कहते थे कि व्यक्ति के मन की विशालता बढ़ाने का संघ एक बड़ा भारी कारखाना है। यहाँ कोई हड़बड़ाहट नहीं, कोई कोलाहल नहीं। शांतचित्त से सच्ची जागृति यहाँ निर्माण हो रही है। सोच-समझकर क्रमबद्ध रूप से यहाँ काम होता है।

अतः वर्तमान में सम्पूर्ण भारत के कुल 924 जिलों (संघ की योजना अनुसार) में से 98.3% जिलों में संघ की शाखाएँ चल रही हैं। कुल 6,618 खंडों में से 92.3% खंडों (तालुका), कुल 58,939 मंडलों (मंडल अर्थात 10–12 ग्रामों का एक समूह) में से 52.2% मंडलों में, 51,710 स्थानों पर 83,129 दैनिक शाखाओं तथा अन्य 26,460 स्थानों पर 32,147 साप्ताहिक मिलन केंद्रों के माध्यम से संघ कार्य का देशव्यापी विस्तार हुआ है, जो लगातार बढ़ रहा है।

इन 83,129 दैनिक शाखाओं में से 59 प्रतिशत शाखाएँ छात्रों की हैं तथा शेष 41 प्रतिशत व्यवसायी स्वयंसेवकों की शाखाओं में से 11 प्रतिशत शाखाएँ प्रौढ़ (40 वर्ष से ऊपर आयु) स्वयंसेवकों की हैं। बाक़ी सभी शाखाएँ युवा व्यवसायी स्वयंसेवकों की हैं।

 संघ और विजयादशमी

श्री गुरुजी के अनुसार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए विजयादशमी का महत्त्व अनन्य एवं असामान्य है, क्योंकि इसी दिन आद्य सरसंघचालक स्व. डॉ. हेडगेवार जी ने संघ की स्थापना की। पतित, पराभूत, आत्मविस्मृत तथा आत्मविश्वास-शून्य हिंदू राष्ट्र में चैतन्य, आत्मविश्वास व विजय की आकांक्षा निर्माण कर, उसकी सिद्धि के लिए बलोपासना करने के निमित्त यह उत्सव एक परंपरा-प्राप्त साधन ही है।

श्रीगुरुजी ‘विजयादशमी’ के संदेश को संगठित शक्ति के महत्त्व के रूप में देखते हैं और कहते हैं कि रावण पर भगवान रामचंद्र जी ने विजय पाई थी। उसके उपलक्ष्य में विजयादशमी का महोत्सव मनाया जाता है। रावण एक महापराक्रमी, महाबलशाली राक्षस था। संसार को पीड़ा देने वाले नवग्रह, बड़े-बड़े राजा-महाराजा, वीर पुरुष और देवता भी रावण से डरते थे। सारी भौतिक संहारक शक्ति उसके पास थी, पर उसे हराया ऐसे वानरों ने, जिन्हें जंगली कहते हैं, जिनके पास सिवाय पेड़ और पत्थरों के कुछ भी अस्त्र-शस्त्र नहीं थे। उन्हें संगठित कर, उन्हीं के हाथों प्रभु रामचंद्र जी ने रावण को हराया। रावण की भौतिक शक्ति इस संगठित शक्ति का मुकाबला नहीं कर सकी। नाश रावण का हुआ, भारतीय समाज, धर्म और सभ्यता का नहीं। श्रद्धा, आशा और उत्साह से भरा संगठित बल यदि देश में निर्माण कर सकें, तो सारे संकटों को हँसते-खेलते ठुकरा सकेंगे। यही विजयादशमी का संदेश है।

एन.एच. पालकर कहते हैं कि संघ का प्रारंभ विजयादशमी के मुहूर्त पर हुआ था। प्रत्येक दशहरे को अपने जन्मदिन के अवसर पर उसने गत वर्ष की सीमा का उल्लंघन करके दिखाया है।

पालकर बताते हैं कि उस वर्ष डॉक्टर जी ने उस दिन नागपुर में सैनिक पद्धति से पथ संचलन का विचार किया तथा घोष विभाग को खड़ा करने की व्यवस्था की। लगभग पाँच-छह सौ स्वयंसेवक संचलन की दृष्टि से तैयारी कर रहे थे। इसी समय श्री विट्ठलभाई पटेल का नागपुर आगमन हुआ। डॉक्टर जी के निमंत्रण पर वे मोहिते संघस्थान पर भी आए। स्वयंसेवकों का अनुशासनबद्ध संचलन देखकर उन्हें अत्यंत आनंद हुआ। संचलन के उपरांत विट्ठलभाई को संघ का परिचय कराते हुए डॉ. मुंजे ने कहा,
“संघ का कार्य उस परिस्थिति का निर्माण करना है, जिसमें ये युवक ‘हिंदुस्थान किसका है’ पूछे जाने पर ‘हम हिंदुओं का’ इस प्रकार का निर्भीक उत्तर दे सकें।” इसके बाद श्री विट्ठलभाई ने बहुत ही थोड़े एवं चुने हुए शब्दों में स्वयंसेवकों का मार्गदर्शन किया। उन्होंने कहा, “यह कार्य मेरे लिए नवीन है, पर इससे मेरे विचारों को चालना मिली है। राष्ट्रीय जीवन में इस कार्य के स्थान के विषय में मैं कोई मत देने में समर्थ नहीं हूँ; परंतु इतना कहूँगा कि जगत् में ईश्वर को छोड़कर किसी से डरो मत तथा अपने कार्य पर अविचल निष्ठा रखकर जोर से कार्य-वृद्धि करो।”

पालकर के अनुसार, “डॉ हेडगेवार ने कहा कि सब परिस्थिति का ऊहापोह करने के बाद आज यदि किसी एक वस्तु की आवश्यकता है, तो वह है प्रत्येक हिंदू का अंतःकरण राष्ट्रनिष्ठ बनाने का। ऐसे अंतःकरण सम्पूर्ण देश में निर्माण होने के उपरांत उनके हाथ में साधन तो स्वतः चलते आएँगे और वे देश को स्वतंत्र कर सकेंगे। जिस प्रकार पांडवों ने विशिष्ट परिस्थिति का विचार करते हुए अपने आयुध शमीवृक्ष पर रख दिए थे, उसी प्रकार हम भी आजकल शस्त्रों का विचार न करते हुए अपने संगठन को देशव्यापी, एकसूत्री तथा अनुशासनपूर्ण बनाने की ही चिंता करें।

 यात्रा के महत्त्वपूर्ण पड़ाव

संघ कार्य की इस शतकीय यात्रा के चार प्रमुख पड़ाव (Phases) रहे हैं। पहला पड़ाव संघ स्थापना से भारत की स्वाधीनता तक माना जाएगा, जिसमें स्वयंसेवक, व्यक्तिगत स्तर पर उस समय चल रहे स्वाधीनता आन्दोलन, समाज सेवा तथा समाज परिवर्तन के कार्य में भाग ले रहे थे, पर संघ के नाते पूरा ध्यान संगठन पर ही केंद्रित था।

प्रथम पड़ाव

  • डॉक्टर हेडगेवार द्वारा एक छोटी सी बैठक में नागपुर में संघ की स्थापना हुई। उनके जीवनकाल में संघ से जुड़े युवा कार्यकर्ताओं के माध्यम से धीरे-धीरे कम कालावधि में ही संघ कार्य देशव्यापी हो गया।
  • 1940 में अल्पायु में ही संघ संस्थापक आद्य सरसंघचालक डॉक्टर हेडगेवार के निधन के पश्चात युवा श्री गुरूजी अर्थात माधव सदाशिव गोलवलकर ने दूसरे सरसंघचालक का दायित्व संभाला। उन दिनों एक तरफ़ समाज में स्वाधीनता की ललक बढ़ रही थी, तो दूसरी ओर देश विभाजित करने का षड्यंत्र भी तेज़ी से आगे बढ़ता दिखाई दे रहा था।
  • ऐसे कठिन समय में श्री गुरूजी के आवाहन पर कई स्वयंसेवकों ने संघ कार्य के शीघ्र विस्तार में स्वयं को झोंक दिया ताकि समस्त हिन्दू समाज को संभावित संकट से बचाया जा सके। 1947 के देश विभाजन के दौरान सभी स्वयंसेवक हिन्दुओं को बचाने, उन्हें सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने तथा विस्थापित लोगों की सहायता में जुटे हुए थे।

द्वितीय पड़ाव  

  • स्वाधीनता के तुरन्त पश्चात 1948 में राजनीतिक कारणों से संघ पर प्रतिबंध लगा तथा श्री गुरुजी सहित कई कार्यकर्ताओं को जेल भेजा गया। बातचीत के सभी मार्ग असफल होने पर संघ के स्वयंसेवकों द्वारा लोकतांत्रिक पद्धति से किए गए सत्याग्रह के परिणामस्वरूप सरकार को संघ पर लगी पाबंदी को हटाना पड़ा।
  • भारत की स्वतन्त्रता के बाद शिक्षा, विद्यार्थी, राजनीति, मजदूर, वनवासी समाज, किसान, अधिवक्ता, वैज्ञानिक, कलाकार, प्रबुद्धजन आदि विभिन्न क्षेत्रों में भारत के शाश्वत राष्ट्रीय विचार से संघ प्रेरित विविध संगठन आरम्भ हुए।
  • आज अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विद्या भारती, भारतीय जनता पार्टी, भारतीय मजदूर संघ, अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम, भारतीय किसान संघ, अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद, विज्ञान भारती, संस्कार भारती, लघु उद्योग भारती, प्रज्ञा प्रवाह, पूर्व सैनिक सेवा परिषद जैसे 32 से भी अधिक संगठन समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में सक्रिय हैं और प्रभावी भी हैं। ये सभी संगठन स्वयंसेवकों द्वारा संघ की प्रेरणा से चल रहे हैं।
  संगठन   संगठन
1 विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान 18 राष्ट्र सेविका समिति
2 विश्व हिन्दू परिषद 19 अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत
3 भारतीय किसान संघ 20 अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना
4 अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद 21 शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास
5 भारतीय शिक्षक मण्डल 22 संस्कृत भारती
6 अखिल भारतीय पूर्व सैनिक सेवा परिषद 23 आरोग्य भारती
7 भारत विकास परिषद 24 प्रज्ञा प्रवाह
8 सीमा जागरण मंच 25 लघु उद्योग भारती
9 राष्ट्रीय सेवा भारती 26 विज्ञान भारती
10 अखिल भारतीय शैक्षिक महासंघ 27 नेशनल मेडिकल ऑर्गेनाइजेशन
11 वनवासी कल्याण आश्रम 28 दीन दयाल शोध संस्थान
12 हिन्दू जागरण मंच 29 भारतीय मजदूर संघ
13 स्वदेशी जागरण मंच 30 सक्षम
14 संस्कार भारती 31 क्रीड़ा भारती
15 सहकार भारती 32 अधिवक्ता परिषद
16 साहित्य परिषद  
17 भारतीय जनता पार्टी

तृतीय पड़ाव

  • संघ कार्य की विकास यात्रा का तीसरा पड़ाव डॉ. हेडगेवार जन्मशती (1989) से प्रारम्भ हुआ। समाज के वंचित, दुर्बल और पिछड़े वर्गों तक पहुँचने का संकल्प लिया गया। आत्मीयता से उनकी सहायता और सेवा को अपना दायित्व मानते हुए समग्र विकास के उद्देश्य से 1990 में सेवा विभाग की स्थापना हुई।
  • सम्पूर्ण समाज को प्रेम और आत्मीयता के आधार पर संगठित करने की दिशा में यह महत्वपूर्ण कदम था। शाखाओं और संघ शिविरों में स्वयंसेवक सेवा-भाव और अपनी कुशलता का अभ्यास करते हैं। वर्तमान में स्वयंसेवकों द्वारा विभिन्न संस्थाओं के माध्यम से लगभग 1,29,000 सेवा कार्य और गतिविधियाँ संचालित हैं, जिनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक कार्य और स्वावलंबन प्रमुख हैं।
  • “राष्ट्र की सर्वांगीण उन्नति” में समाज के अनेक सज्जन स्वयं योगदान देना चाहते हैं। ऐसे प्रभावी व्यक्तियों की विशेषता, सक्रियता, उपलब्धियाँ और समाज-सेवा की जानकारी प्राप्त कर, साथ ही संघ का विचार और कार्य उनसे साझा करने के उद्देश्य से सम्पर्क विभाग का कार्य 1994 में प्रारम्भ हुआ।
  • धर्मजागरण : हिन्दू समाज के लोगों को मतांतरण (conversion) से बचाने और जो लौटना चाहें उनके लिए घर वापसी का मार्ग सरल बनाने का कार्य आरम्भ हुआ।
  • सामाजिक समरसता : अछूत प्रथा और जातीय अन्याय को दूर कर, सबको समान अवसर व सम्मान मिले—इसके लिए प्रयास शुरू हुए।
  • सामाजिक सद्भाव : जातीय विद्वेष मिटाने और साझा समस्याओं पर विचार हेतु सामाजिक सद्भाव बैठकों की श्रृंखला चली।
  • ग्राम विकास : सरकारी योजनाओं का उपयोग करते हुए ग्रामवासी मिलकर अपने गांव का सर्वांगीण विकास करेंगे—इस संकल्प से कार्य प्रारम्भ हुआ।
  • गौसेवा व संवर्धन : भारतीय नस्ल की गायों के संरक्षण, औषधीय महत्व, नस्ल सुधार और गोबर-आधारित जैविक खेती को बढ़ावा देने हेतु व्यापक कार्यक्रम चल रहे हैं। देशभर में हज़ारों गौशालाएँ स्थापित हुई हैं।

चतुर्थ पड़ाव

  • संघ कार्य का चौथा पड़ाव चल रहा है, जिसमें प्रत्येक स्वयंसेवक अपनी रुचि व क्षमता के अनुसार किसी क्षेत्र को चुनकर समाज परिवर्तन में सक्रिय होता है। डॉ. हेडगेवार ने कहा था—“संघ कार्य केवल शाखा तक सीमित नहीं, सम्पूर्ण हिन्दू समाज ही कार्यक्षेत्र है।”
  • शाखाओं में पुरुषों के लिए व्यक्ति-निर्माण का कार्य होता है, तो महिलाओं के लिए यही कार्य राष्ट्र सेविका समिति करती है। सेवा, संपर्क और प्रचार विभागों सहित धर्मजागरण, ग्राम विकास, कुटुंब प्रबोधन, समरसता, गौ-संवर्धन और पर्यावरण जैसे 32+ क्षेत्रों में स्वयंसेवक, मातृशक्ति और सज्जन शक्ति मिलकर सक्रिय हैं।

 पंच परिवर्तन

संघ का अनुभव है कि समाज-परिवर्तन का महान कार्य केवल कुछ लोगों से नहीं, बल्कि संपूर्ण समाज की शक्ति से ही संभव है। इसलिए आगामी वर्षों के लिए संघ ने समाज-परिवर्तन को पंच-परिवर्तन के रूप में समग्रतापूर्वक देखा है। इसका आशय है कि समाज जीवन में समयानुकूल परिवर्तन लाकर हम राष्ट्रहित में अपने जीवन को ढालें।

सामाजिक समरसता

हिन्दू समाज की स्वाभाविक विशेषता समरसता रही है। किंतु समय के साथ जाति-भेद, ऊँच-नीच और अस्पृश्यता जैसी विकृतियाँ उत्पन्न हुईं, जिससे समाज के कुछ वर्गों को अन्याय और अपमान सहना पड़ा। आज यह बुराई त्याज्य है और इसका समाप्त होना अत्यंत आवश्यक है। संतों, गुरुओं और समाजसुधारकों ने इसे पाप और अमानवीय परंपरा बताया। संघ का आग्रह है कि समाज में सब समान हैं—इस भावना से सभी को जोड़कर एकत्व की स्थापना की जाए।

पर्यावरण संरक्षण

मानव जीवन पंचतत्वों (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश) पर आधारित है। इनका संतुलन बिगड़ने से ही आज की पर्यावरणीय चुनौतियाँ खड़ी हुई हैं। भारतीय परंपरा में पेड़-पौधों और प्रकृति की पूजा का जो भाव है, वही सच्चे अर्थों में पर्यावरण संरक्षण का आधार है। जल-बचत, वृक्षारोपण, स्वच्छता और ऊर्जा-संरक्षण प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। यही भाव नव राष्ट्र-निर्माण की आवश्यकता है।

कुटुंब-प्रबोधन

कुटुंब समाज की सबसे छोटी लेकिन सबसे प्रभावी इकाई है। ऋग्वेद और अथर्ववेद में परिवार को आनंद और समृद्धि का केंद्र बताया गया है। परिवार में हिन्दू जीवन-शैली, संस्कार और कर्तव्यों का पोषण कर हम वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को जीवित रखते हैं। संघ का मानना है कि स्वस्थ परिवार से ही स्वस्थ समाज और सशक्त राष्ट्र का निर्माण संभव है।

स्व-आधारित जीवन

विदेशी दासता से मुक्त होकर स्वभाषा, स्वभूषा, स्वसंस्कृति और स्वदेशी उद्योगों पर बल देना आवश्यक है। आत्मनिर्भरता का अर्थ दुनिया से अलग होना नहीं, बल्कि स्वाभिमान के साथ व्यापार और उत्पादन करना है। रक्षा, विज्ञान और तकनीक में आत्मनिर्भर भारत—जैसे डीआरडीओ, इसरो, परम सुपरकंप्यूटर और कोविड वैक्सीन के उदाहरण—स्व-आधारित जीवन की दिशा में प्रेरणास्रोत हैं। स्थानीय व कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देकर हमें रोजगार और आत्मनिर्भरता दोनों को बढ़ाना है।

नागरिक कर्तव्यबोध और शिष्टाचार

संविधान ने हमें अधिकार दिए हैं, लेकिन साथ ही मौलिक कर्तव्यों का भी आग्रह किया है। राष्ट्रभक्ति केवल बड़े अवसरों पर नहीं, बल्कि दैनिक आचरण में झलकनी चाहिए—पानी-बिजली की बचत, ईंधन का संयमित उपयोग, अनुशासन, ईमानदारी और शिष्टाचार भी राष्ट्रसेवा हैं। अच्छे और जिम्मेदार नागरिक ही किसी भी देश की आंतरिक शक्ति और स्थायी विकास का आधार होते हैं। 

[1] श्रीगुरुजी समग्र, खंड 5, पृष्ठ 157

[2] दंत्तोपंत ठेंगडी, परमवैभव का संघ मार्ग, लोकहित प्रकाशन : लखनऊ, 1998, पृष्ठ 7

[3] आर. वी. ओतुरकर, पूना – लुक एंड आउटलुक, पूना म्युन्सिपल कॉर्पोरेशन : पूना, 1951, पृष्ठ 120

[4] राकेश सिन्हा, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, प्रकाशन विभाग : नई दिल्ली,  2003, पृष्ठ 131-132

[5] एस. पी. सेन, डिक्शनरी ऑफ़ नेशनल बायोग्राफी, खंड 2, इंस्टिट्यूट ऑफ़ हिस्टोरिकल स्टडीज : कोलकाता, 1973, पृष्ठ 162

[6] राकेश सिन्हा, डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, प्रकाशन विभाग : नई दिल्ली,  2003, पृष्ठ 140-144

[7] सी.पी. भिशिकर, संघ-वृक्ष के बीज डॉक्टर केशवराव हेडगेवार, सुरुचि प्रकाशन : नई दिल्ली, 1988, पृष्ठ 24

[8] विजय कुमार, हमारे परमपूजनीय सरसंघचालक, लोकहित प्रकाशन : लखनऊ, 2010, पृष्ठ 9-10

[9] डॉ. केशव बलीराम हेडगेवार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – तत्त्व और व्यवहार, लोकहित प्रकाशन : लखनऊ, 2007, पृष्ठ 11

[10] डॉ. केशव बलीराम हेडगेवार, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ – तत्त्व और व्यवहार, लोकहित प्रकाशन : लखनऊ, 2007, पृष्ठ 42-43

[11] गुरुजी समग्र, खंड 5, पृष्ठ 163

[12] गुरुजी समग्र, खंड 5, पृष्ठ 164

[13] गुरुजी समग्र, खंड 5, पृष्ठ 165

[14] गुरुजी समग्र, खंड 5, पृष्ठ 173

[15] श्रीगुरुजी समग्र, खंड 5, पृष्ठ 162

[16] ना. ह. पालकर, डॉ. हेडगेवार, लोकहित प्रकाशन, लखनऊ,191

[17] ना. ह. पालकर, डॉ. हेडगेवार, लोकहित प्रकाशन, लखनऊ, 191

[18] ना. ह. पालकर, डॉ. हेडगेवार, लोकहित प्रकाशन, लखनऊ, 192


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