आज संघ समाज को संस्कारित करने के लिए वे सभी काम कर रहा है, जिनकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने की थी। इसलिए यह कहना उचित नहीं है कि संघ और संविधान अलग-अलग राह के राही हैं।

6 नवंबर, 1949 को भारत का संविधान अंगीकार किया गया। इस दिन ने हमारे राष्ट्र की दिशा और धुरी तय की। किंतु इसके साथ ही एक चर्चा यह चलती रही कि ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ संविधान विरोधी है और संविधान संघ के विरुद्ध है।’ सच क्या है? क्या इतिहास ऐसा कहता है या यह केवल राजनीतिक बयानबाजी है! यह भारत की आत्मा से जुड़ा हुआ आधारभूत प्रश्न है।
पहला तथ्य यह है कि संविधान केवल सरकार चलाने की व्यवस्था का दस्तावेज भर नहीं है। यह समाज, परिवार, व्यक्ति और राष्ट्र के चरित्र का मार्गदर्शन भी करता है। और संघ क्या करता है? संघ सत्ता नहीं चलाता, बल्कि समाज को मजबूत करने का काम करता है। ह व्यक्ति निर्माण का काम करता है। अनुशासन का भाव भरने का काम करता है। समरसता के लिए प्रयास करता है और कर्तव्य बोध की परंपरा को मजबूत करता है।
इस आलोक में जब संघ को देखते हैं, तो पता चलता है कि संविधान और संघ, दोनों का लक्ष्य एक ही है। एकात्म, समरस, स्वावलंबी और कर्तव्यनिष्ठ भारत का निर्माण।
परिवर्तन सरकार से नहीं समाज से आता है। और संविधान का आग्रह भी तो यही है। आग्रह यही है कि जागरूक नागरिक ही आगे बढ़कर राष्ट्र जीवन को दिशा दें। अब थोड़ा और गहराई में जाते हैं। संघ कैसे संविधान के साथ कदमताल करता है? इस कसौटी पर संघ के पंच परिवर्तन को कसते हैं। इसमें पहला काम, पहला परिवर्तन सामाजिक समरसता से जुड़ा है। संविधान का अनुच्छेद 14 भी समानता की बात करता है। अनुच्छेद 15 भेदभाव को रोकता है। अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता को समाप्त करता है। संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांत सामाजिक और आर्थिक असमानता कम करने का मार्ग दिखाते हैं। संविधान कहता है कि समाज में बंधुता और समरसता बढ़ाओ, आत्मीयता बढ़ाओ।

अब संघ के काम को देखिए। संघ में जाति कोई भी हो, स्वयंसेवक एक साथ भोजन करते हैं। बाकी कहीं यह दृश्य देखना दुर्लभ है। मगर संघ में यह सहज बात है। संघ ने ग्राम विकास का काम भी अपने हाथ में लिया है। घर-घर संपर्क की बात, आत्मीयता बढ़ाने का काम, जातिगत भेद मिटाने के प्रयास। संविधान की भावना को समाज में उतारने का काम अगर कोई कर रहा है तो वह संघ ही है।
पंच परिवर्तन का दूसरा काम है-कुटुंब प्रबोधन। संविधान के मौलिक कर्तव्य नागरिक को बताते हैं कि देश और समाज के प्रति उसका धर्म क्या है? क्या करना चाहिए? अनुशासन, शिक्षा, समरसता, देश-हित। संघ पूरे देश को एक परिवार मानता है। कुटुंब प्रबोधन में हर परिवार में संस्कार, नशा-मुक्ति, महिलाओं का सम्मान, बच्चों में अनुशासन, ये सारे विषय शामिल हैं। क्या ये संविधान के अनुकूल नहीं दिखते?
संघ ने एक और काम हाथ में लिया है, वह है स्वदेशी और स्व का जागरण। संविधान के अनुच्छेद 39 और 43 में कहा गया है कि देश की संपत्ति कुछ ही हाथों में केंद्रित न हो। लघु उद्योग और ग्राम उद्योग का संरक्षण किया जाए। आर्थिक व्यवस्था न्यायपूर्ण हो। संघ का स्वदेशी विचार संविधान के इस आर्थिक दर्शन को जमीन पर उतारता है।
एक और महत्वपूर्ण बात जो संघ ने अपने हाथ में ली है और जिस बात की अलख जगाने का काम इस देश के संविधान ने भी किया है, वह है पर्यावरण संरक्षण। संविधान का अनुच्छेद 48, जो राज्य का दायित्व तय करता है, कहता है कि यह काम राज्य का है। अनुच्छेद 51 नागरिक का दायित्व तय करता है। पर्यावरण की चिंता केवल सरकार की नहीं है। इस चिंता को समाज तक ले जाने का काम संघ कर रहा है। संघ के वृक्षारोपण, तालाब संरक्षण, नदी सफाई, प्लास्टिक मुक्त समाज जैसे सारे अभियान संवैधानिक निर्देशाों को जीवन के कार्य व्यवहार में बदलते हैं।
संविधान की प्रस्तावना न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुता की बात करती है। बंधुत्व केवल कानून से नहीं आता, नियमों से नहीं आता। यह चरित्र और संस्कार से आता है। संघ की शाखा पद्धति व्यक्ति को कर्तव्य, अनुशासन और समर्पण की भावना प्रदान करती है। यह संविधान के मौलिक कर्तव्यों में अपेक्षित है। इन कामों के आधार पर देखिए तो संघ संविधान के साथ कदमताल करता हुआ दिखता है। कर्तव्य के लिए आग्रही अभियान किसी ने हाथ में उठाया है तो वह है संघ। उसने अपने स्वयंसेवकों के माध्यम से यह अभियान जन-जन तक पहुंचाया है।
संविधान को अंगीकार करने के 75वें वर्ष में संघ के पंच परिवर्तन को इस दृष्टि से विशेष तौर पर देखा जाना चाहिए कि आज संघ समाज को संस्कारित करने के लिए वे सभी काम कर रहा है, जिनकी कल्पना संविधान निर्माताओं ने की थी। इसलिए यह कहना उचित नहीं है कि संघ और संविधान अलग-अलग राह के राही हैं। वस्तुत: दोनों उस भारत की आधारशिला हैं, जो एकात्मता, समरसता, स्वावलंबी और कर्तव्यनिष्ठ नागरिकों वाला है। संविधान दिशा है। संघ उसे जीवन में उतारने की प्रक्रिया देता हुआ दिखाई देता है। संविधान आदर्श है। संघ उस आदर्श तक पहुंचने का मार्ग प्रशस्त कर रहा है।
शाखाओं में बाल मन में जो देश-प्रेम का बीज बोया जाता है, वह संविधान की भावना को मजबूत करता है और यह देश-प्रेम ही देश को एक रखता है। आज कुछ लोग बड़े गर्व से कहते हैं, सड़कों पर चिल्लाते हैं कि ‘हां, हम अराजक हैं।’ कुछ लोग नक्सलियों के समर्थन में नारे लगाते हैं और बाद में वही लोग संविधान को आगे कर संविधान की रक्षा करने का भी दम भरते हैं। इस विरोधाभास और द्वंद्व से निपटने के उपकरण का नाम है संघ।
संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत कई बार कह चुके हैं कि संविधान राष्ट्रीय सहमति का दस्तावेज है। संविधान का पालन संघ के स्वयंसेवकों से स्वतः ही अपेक्षित है। इसे कुछ इस तरह भी समझ सकते हैं। भारत एक सांस्कृतिक राष्ट्र है। संघ 1925 में और संविधान 1950 में बना। लेकिन भारत हजारों वर्ष की परंपराओं और जीवन मूल्यों वाला राष्ट्र है। संविधान सभा में अनेक सदस्यों ने कहा कि संविधान भारतीय संस्कृति की निरंतरता को पुष्ट करता है। अनुच्छेद 25 से 28 में उपासना की स्वतंत्रता की बात है। ये भारतीय विविधता को स्वीकार करते हैं। अनुच्छेद 40 में ग्राम स्वराज का विचार है। वह हमारी पुरानी जनपद व्यवस्था से पैदा हुआ है। अनुच्छेद 48 गोवंश संरक्षण का निर्देश देता है। यह कृषि और जीवन से जुड़ा हुआ है। अनुच्छेद 49 धरोहर संरक्षण की बात करता है। संघ के ग्राम विकास, इतिहास संकलन, सामाजिक समरसता, गो-सेवा, इन सब कामों को देखेंगे तो लगेगा संविधान ने जो कुछ करने की अपेक्षा जताई है, संघ ने बहुत आदर के साथ उन सभी कामों को शिरोधार्य करते हुए वह उत्तरदायित्व अपने कंधों पर लिया है।
जो लोग संघ को संविधान विरोधी कहते हैं उनका खुद का संविधान के प्रति इतिहास क्या है? पहला संविधान संशोधन 1951 में हुआ। इसके जरिए नेहरू सरकार ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला किया। ‘आर्गेनाइजर’ पत्रिका को आदेश दिया गया कि हर अंक छापने से पहले सरकार की अनुमति ली जाए।
फिर आता है 1975 का आपातकाल। ‘पाञ्चजन्य’ और ‘आर्गेनाइजर’ के संपादकों को गिरफ्तार किया गया। संघ के हजारों, लाखों स्वयंसेवकों को यातनाएं दी गईं। जेलें स्वयंसेवकों से भर गईं। कहानी यहीं नहीं थमी। इसके बाद शाहबानो प्रकरण आया। समान कानून की अवधारणा इस देश के संविधान में निहित है। लेकिन जब शाहबानो को न्याय मिला, तो सरकार ने उसे संसद के माध्यम से पलट दिया। यह वोट बैंक की राजनीति के लिए न्याय की अवहेलना थी। फिर आया 2004 से 2014 तक का काल। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद्, ऐसी व्यवस्था जिसका संविधान में कहीं जिक्र ही नहीं है। एक ऐसी व्यवस्था जिसे चुनी हुई सरकार के ऊपर समानांतर शक्ति माना गया। वह व्यवस्था संविधान और संसद के ऊपर थोप दी गई। यही नहीं, मंत्रिमंडल से पारित एक अध्यादेश को एक ‘युवा नेता’ ने सार्वजनिक मंच पर फाड़ दिया। यह मंत्रिमंडल और संविधान की मर्यादा तथा संसदीय प्रक्रिया का सार्वजनिक अपमान था। जिन्होंने संविधान की बाजू मरोड़ने का काम किया है, आज वही चेहरे संविधान की प्रतियां लहराते दिखते हैं। इसलिए प्रश्न उठता है-यह सम्मान है या राजनीतिक अभिनय!
डॉ. आंबेडकर ने साफ-साफ कहा था कि इस देश को सबसे बड़ा खतरा संविधान से नहीं, बल्कि उसे चलाने वालों की नीयत से है। यदि नीयत सही हो तो संविधान राष्ट्र को ऊपर उठाएगा और यदि नीयत गलत हो तो वही संविधान राष्ट्र को पीछे ले जाएगा। संविधान की रक्षा नारे से नहीं, कर्तव्य, सत्यनिष्ठा और जागरूक नागरिकों से होती है। आज संघ अपने कार्यों के माध्यम से संविधान की भावना को व्यवहार में उतार रहा है। दूसरी ओर संविधान की प्रतियां लहराने वाले देश को जोड़ने की बजाय तोड़ने की बात कर रहे हैं, वे संघ को, इस संविधान को ललकारने का काम कर रहे हैं। वे लोग कौन हैं? इस देश के संविधान के साथ कौन हैं? यह निर्णय आपको करना है।
पंचजन्य