सिंघसूरमा लेखमाला
धर्मरक्षक वीरव्रति खालसा पंथ – भाग-1
भक्ति आधारित शक्ति के प्रवर्तक
श्रीगुरु नानकदेव जी
नरेंद्र सहगल
भारतीय इतिहास इस सच्चाई का साक्षी है कि जब भी विदेशी आक्रान्ताओं द्वारा भारत पर आक्रमण करके हमारे सनातन जीवन मूल्यों को समाप्त करने का प्रयास किया गया, हमारे आध्यात्मिक महापुरुषों ने विधर्मी हमलावरों के अत्याचारों का सामना किया और समाज को जगाकर उसमें एकात्मता स्थापित करने के अपने राष्ट्रीय कर्तव्य की पूर्ति की। श्रीगुरु नानकदेव से दशमेश पिता श्रीगुरु गोविंदसिंह तक 10 गुरुओं की परंपरा भारत के इसी वीरव्रति इतिहास का एक स्वर्णिम अध्याय है।
आओ धर्मरक्षक खालसा पंथ की पृष्ठभूमि, विचारधारा और उद्देश्य को समझने के लिए भारतीय इतिहास का अवलोकन करें और देखें कि हमारे राष्ट्र जीवन का निर्माण करने और उसे अमरत्व प्रदान करके आज तक अनेक विदेशी आघातों से बचाकर रखने के पीछे भारत के संत-महात्माओं का कितना योगदान है। जिन देशों की संस्कृति, इतिहास एवं समस्त राष्ट्र जीवन विदेशी आक्रमणों के प्रथम आज्ञात में ही धाराशाही हो गए, उनके तथा हमारे जीवन मूल्यों में क्या अंतर है?
अत्यंत प्राचीन काल में रावण ने एक धूर्त आक्रांता के रूप में हमारे देश पर आक्रमण करने प्रारंभ कर दिए। संपूर्ण समाज यहां तक कि देवता भी रावण के पैरों तले कराह रहे थे। रावण की इस राक्षसी शक्ति को परास्त करने के लिए तथा समाज में प्रचंड नवचेतना भरने के लिए हमारी संत शक्ति आगे आई। महर्षि विश्वामित्र, वशिष्ठ एवं अगस्त्य इत्यादि ने संपूर्ण देश में क्षात्रधर्म की प्रतिष्ठापना करने के लिए एक प्रचंड भक्ति आंदोलन प्रारंभ करके समाज में जाग्रति लाने का कार्य किया।
इन संतों ने अपने प्रवचनों, विभिन्न धार्मिक गतिविधियों एवं वार्तालापों द्वारा समाज को राष्ट्रीय चेतना से उद्दीप्त कर दिया। परिणाम स्वरूप राष्ट्र ने अपने को श्रीराम के वीरव्रति व्यक्तित्व में उठाया। क्षात्रधर्म ने अंगड़ाई ली। अंत में श्रीराम को वह भीषण शक्ति भी महर्षि अगस्त्य से ही प्राप्त हुई, जिससे राक्षस राज रावण का वध हो सका। परिणाम स्वरूप अधर्म की आक्रामक आंधी थम गई।
बौद्ध युग में भी इसी इतिहास की पुनार्वती हुई। महात्मा बुद्ध के पश्चात उनके अनेक अनुयायियों ने सनातन परंपराओं को तिलांजलि देकर हमारे समाज द्वारा पोषित सांस्कृतिक सद्गुणों का विनाश करना शुरू कर दिया। यहां तक कि विदेशी आक्रमणकारियों की सहायता करने जैसे देश घातक पग भी उठाए गए। इन दुर्भाग्यशालि क्षणों में समाज को संगठित एवं शक्तिशाली बनाने के लिए आदि शंकराचार्य प्रकट हुए। इस युगपुरुष ने देश के एक कोने से दूसरे कोने तक अखंड प्रवास करके देश के ओज को पुनः जाग्रत कर दिया। राष्ट्रद्रोहियों का अंत होकर चाणक्य जैसे धुरंध्र राष्ट्र नायकों द्वारा चंद्रगुप्त जैसे वीरव्रति सम्राट तैयार हुए। परिणाम स्वरूप विदेशी आक्रांता परास्त हुए।
अनेक शताब्दियों के बाद समाज में पुनः सुप्तावस्था आई। देशद्रोहियों ने फिर सर उठाना शुरू किया। सदैव की भांति इस बार भी संतों ने मोर्चा संभाला। एक बार पुनः क्षात्रधर्म की पुनर्स्थापना के प्रयास हुए। स्वामी विद्यारण्य तथा उनके सन्यासी शिष्यों ने देश के प्रत्येक कोने में राष्ट्रभक्ति का शंख बजा दिया। भक्ति आंदोलन की एक प्रचंड ज्वाला सारे समाज में फैल गई। इन संतो द्वारा आरंभ किए गए आध्यात्मिक तथा राष्ट्रीय जागरण के फलस्वरूप विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हुई। महाराज कृष्णदेव राय के नेतृत्व में क्षात्रधर्म का उदय हुआ।
मुसलमानों की राजसत्ता के कालखंड में भी महान संत एवं सन्यासी उत्पन्न हुए। चैतन्य, तुलसीदास, सूरदास, ज्ञानेश्वर, रामानंद, तुका राम, रामानुज, नानक तथा इसी प्रकार के अनेक संत हुए जिन्होंने देश को धार्मिक परंपराओं के साथ संगठित किया। लोगों में अपने देवी-देवताओं के प्रति श्रद्धा एवं आस्था का जागरण हुआ। फलस्वरुप समाज ने अपने को छत्रपति शिवाजी के रूप में प्रकट किया। इस सांस्कृतिक जागरण का ही परिणाम था नवीन क्षात्रधर्म।
इसी तरह जब उत्तर भारत में विदेशी शासकों के जुल्मों के नीचे समाज रौंदा जा रहा था। पंजाब आक्रान्ताओं से बार-बार पद्दलित हो रहा था। इतिहासकारों का अनुमान है कि इस काल में पंजाब में से होकर दिल्ली पर प्रत्येक 5 वर्ष की औसत से एक आक्रमण हुआ था। प्रत्येक आक्रमण के समय पंजाब बुरी तरह से झुलस जाता था। इस समय लोगों में एक कहावत चल पड़ी। “खादा पीता लाहे दा ते रहंदा अहमदशाहे दा।“ इन पांच सौ वर्षों में पंजाब एवं इसके आसपास के क्षेत्र में आतंक, विध्वंस और लूटपाट का खूनी नाटक ही चलता रहा।
परंतु पंजाब में फिर एक बार संत शक्ति ने अपने आपको श्री गुरु नानक देव के रूप में प्रकट कर दिया। भाई गुरदास भल्ला के अनुसार “सतगुरू नानक प्रगटया – मिटी धुंध जग चानण होआ।” हमारे भारत की परंपरा रही है कि पहले संत महात्माओं अर्थात राजनीति से अक्षिप्त सामाजिक शक्ति के द्वारा सामाजिक संगठन का कार्य और फिर इस संगठित शक्ति के द्वारा क्षात्रधर्म का जागरण।
आधुनिक इतिहासकार भाई धर्मवीर अपनी पुस्तक ‘पंजाब का इतिहास’ में लिखते हैं – “पंजाब में हिन्दू चिरकालिक मुस्लिम शासन के कारण ऐसे दब गए थे कि प्रतिरोध शक्ति उनसे निकल गई थी। विदेशी अत्याचार एवं जबर के कारण पंजाब में मेहनत मजदूरी करने वाले गरीब लोग मुसलमान बन चुके थे। हिंदुओं के मंदिर तोड़ दिए गए थे। पाठशालाओं और विद्यापीठों के स्थान में मस्जिद और मकबरे बना दिए गए थे। हिंदू जनसाधारण में धर्म का प्रायः लोप हो चुका था। धर्म का स्थान मिश्याचार ने ले लिया था।“
इन दिनों पंजाब में अज्ञानता और अंधकार का बोलबाला था। इस माहौल का परिणाम यह हुआ कि हिंदू समाज में जाति-बिरादरी ने और भी ज्यादा खतरनाक रूप ले लिया। इस वातावरण में श्रीगुरु नानकदेव ने हिंदुओं को आडंबर एवं मिश्याचार से निकालकर परमेश्वर की भक्ति और शक्ति की आराधना की ओर ले जाने का अभियान छेड़ दिया। श्रीगुरु नानकदेव ने इस बात की आवश्यकता अनुभव की कि राजनीतिक अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाई जाए।
अतः इसी उद्देश्य के लिए श्रीगुरु नानकदेव जी ने भक्ति आंदोलन को प्रारंभ किया। इस महापुरुष तथा इनके द्वारा प्रस्थापित मार्ग के अनुयायियों के बलिदानों के परिणाम स्वरुप हमारे समाज के क्षात्रधर्म ने अपने को श्रीगुरु गोविंदसिंह जी के रूप में प्रकट कर दिया। इनके द्वारा की गई खालसा पंथ की सिरजना क्षात्रधर्म का एक सशक्त विधिवत स्वरूप थी। इस प्रकार एक बार पुनः धर्म को केंद्र मानकर राष्ट्रीय एकीकरण का महान कार्य संपन्न हुआ।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी से लेकर श्रीगुरु गोविंदसिंह जी तक हमारे राष्ट्र का इतिहास इस सत्य को स्पष्ट करता है कि भक्ति आंदोलन के माध्यम से क्षात्र शक्ति का उद्य, यह भारत एवं भारतीयता को जिंदा रखने की परंपरा सदैव रही है।
सिंघसूरमा लेखमाल
धर्मरक्षक वीरव्रति खालसा पंथ – भाग-2
श्रीगुरु नानकदेव ने किया
खालसा पंथ का शिलान्यास
नरेंद्र सहगल
“किरत करो, वंड छको ते नाम जपो” अर्थात परिश्रम (कर्म) करते हुए बांटकर खाओ और परमपिता परमात्मा का स्मरण करो। हमारे सिख समाज के इस सिद्धांत अथवा विचारधारा के प्रवर्तक श्रीगुरु नानक देव जी महाराज ने जहां एक ओर सामाजिक समरसता, सामाजिक सौहार्द और सृष्टिनियंता अकालपुरख के चिंतन/मनन को अपने कर्मक्षेत्र का आधार बनाया, वहीं उनके जेहन में विधर्मी/विदेशी हमलावरों द्वारा भारतीय समाज (विशेषतया हिन्दू समाज) पर किए जा रहे भीषण अत्याचारों के प्रतिकार की योजना भी साकार रूप ले रही थी।
भारत की धरती पर उपजे सांस्कृतिक एवं कर्म-चिंतन ‘धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष’ के ध्वज वाहक श्रीगुरु नानकदेव द्वारा स्थापित दस गुरुओं की वीरव्रति परंपरा ही भारत/धर्मरक्षक खालसा पंथ की प्रेरणा एवं आधार अथवा शिलान्यास थी। दसों सिख गुरुओं के त्याग, तपस्या और अतुलनीय बलिदानों का प्रकट स्वरूप है ‘खालसा’। इसीलिए सभी गुरुओं को प्रथम नानक, द्वितीय नानक, तृतीय नानक, चतुर्थ नानक, पंचम नानक, छठे नानक, सप्तम नानक, अष्टम नानक, नवम नानक और दशम नानक (दशमेश पिता) कह कर सम्मान दिया जाता है।
श्रीगुरु नानकदेव जी का कर्म-क्षेत्र किसी एक बंद कमरे, गुरुकुल अथवा आश्रम तक सीमित नहीं था। इस देव-पुरुष (अवतारी) ने परिवारों, आश्रमों तथा गुरुकुलों में कैद भारतीय चिंतनधारा को स्वतंत्र करके सनातन भारतवर्ष (अखंड भारत) के प्रत्येक कोने तक पहुंचाने का सफल प्रयास किया। श्रीगुरु की विभिन्न यात्राएं उनके विस्तृत कर्म-क्षेत्र की साक्षी हैं। संभवतया आदि शंकराचार्य जी के बाद नानक जी पहले ऐसे संत थे जिन्होंने समस्त भारत को एकसूत्र में बांधने के लिए अखंड प्रवास करके दूर-दराज तक बसे भारतवासियों के कष्टों को निकट से देखा।
श्रीगुरु नानकदेव जी की इन विस्तृत यात्राओं में उनके अभिन्न भक्त तथा सहयोगी भाई मरदाना उनके साथ परछाई की तरह रहे। इनकी पहली आध्यात्मिक यात्रा(सन 1497 से 1509 तक) पूर्वी भारत की ओर थी। इस यात्रा में कुरुक्षेत्र, दिल्ली, मथुरा, आगरा, वृंदावन, गया, ढाका एवं कामरूप (आसाम) आदि स्थानों पर पड़ाव डाले गए। गुरु महाराज की दूसरी यात्रा (सन 1510 से 1540 तक) दक्षिण भारत की विस्तृत यात्रा थी। इस यात्रा के समय रामेश्वर एवं श्रीलंका तक उनका आध्यात्मिक प्रकाश फैला।
अपनी तृतीय यात्रा में श्री गुरु महाराज कश्मीर, मेरु पर्वत, अफगानिस्तान, तिब्बत इत्यादि स्थानों पर ईश्वरीय उपदेश देने पहुंचे। परमपिता परमात्मा के इस मानवी संदेश वाहक ने अपनी चौथी यात्रा में मक्का, मदीना, बगदाद तक संसारी लोगों को समरसत्ता का पाठ पढ़ाया।
श्रीगुरु नानक का ध्यान अब विदेशी आक्रान्ताओं के पांव तले कुचले जा रहे असंख्य भारतीयों की ओर गया। विधर्मी बाबर के हमलों, अत्याचारों और माताओं-बहनों के हो रहे शील भंग को देख कर वे कराह उठे। उन्होंने बाबर की सेना को पाप की बारात की संज्ञा देते हुए उसके द्वारा किए जा रहे जुल्मों का मार्मिक वर्णन अपनी ‘बाबर वाणी’ रचना में किया है।
श्रीगुरु नानकदेव युगपुरुष, आध्यात्मिक संत, मानवतावादी कवि, अद्भुत समाज सुधारक एवं गहन भविष्य दृष्टा थे। उन्होंने भारत पर होने वाले विदेशी हमलों की कल्पना कर ली थी। उन्होंने अपनी रचनाओं ‘आसा दी वार’ एवं ‘चौथा तिलंग राग’ में देश की दशा पर चिंता व्यक्त की थी। इसी चिंता के साथ उन्होंने समस्त भारतवासियों को चेतावनी देते हुए एकजुट होकर प्रतिकार करने का आह्वान भी किया था।
जब बाबर अफगानिस्तान को पार करता हुआ अपनी सेना के साथ पंजाब की ओर बढ़ रहा था तो श्रीगुरु नानकदेव ने भविष्य में आने वाले संकट का संकेत देते हुए बाबर को आक्रमणकारी घोषित कर दिया था। श्रीगुरु महाराज जी के अनुसार “इन विधर्मी हमलावरों को धर्म एवं सत्य की कोई पहचान नहीं है और ना ही अपने अमानवीय अत्याचारों पर कोई पश्चाताप अथवा लज्जा है।“ भारत की धरती पर खून की नदियां बहाई जा रही है। श्रीगुरु नानकदेव की इस पीड़ा में भविष्य में होने वाले हमलों और उनके प्रतिकार के लिए समाज की तैयारी के संकेत भी दे दिए थे। भारत पर मुगलों की राजसत्ता, उनके द्वारा हिंदुओं का उत्पीड़न एवं धर्म परिवर्तन की भविष्य वाणी भी कर दी गई थी। मुगलों का पतन कैसे होगा, कौन करेगा तथा समाज में क्षात्र धर्म का जागरण कैसे होगा इत्यादि पूरा खाका उनकी रचनाओं में मिलता है।
श्रीगुरु नानकदेव ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति के बल पर अपने अंतर्मन की वेदना को ‘अकाल-पुरख’ के समक्ष प्रगट भी किया था वे कहते हैं:-
“खुरासान खमसाना किआ हिन्दुस्तान डराया
आपो दोस न दे करता
जम कर मुगल चढ़ाया
एती मार पई कुरलाणे
तैंकी दर्द न आया।“
इस रचना में श्रीगुरु महाराज जी तत्कालीन अवस्था का मार्मिक वर्णन करते हुए परमात्मा को उलाहना देते हुए कहते हैं कि “मुगलों ने हिन्दुस्तान को डराया, जुल्म किए, भारतीयों को भयंकर अत्याचार सहने पड़े तब भी दर्द नहीं आया।“ श्रीगुरु के अनुसार परमात्मा ने खुरासान को तो सुरक्षित कर दिया और हिन्दुस्तान में बाबर के रूप में यमराज को भेज दिया।
इन शब्दों में श्रीगुरु की आध्यात्मिक शक्ति का संकेत मिलता है। उन्होंने भविष्य में होने वाले संघर्ष का अनुमान लगाकर अपनी वाणी में भारतीयों को विधर्मी शासकों को उखाड़ फेंकने के लिए बलिदान के लिए आह्वान भी कर दिया था। वे अपनी वाणी में स्पष्ट आह्वान करते हैं- “जे तऊ प्रेम खेलण का चाओ सिर धर तली गली मोरी आओ।“ अर्थात असत्य एवं अधर्म को समाप्त करने के लिए अपने शीश भी देने के लिए तैयार रहो।
श्रीगुरु ने अपनी वाणी में भविष्य में होने वाले संघर्षों का संकेत देते हुए कहा था – “कोई मर्द का चेला (वीरपुरुष) जन्म लेगा, जो इन अत्याचारों का सामना करेगा।“ ऐसा हुआ भी। मुगलों के अमानवीय कृत्यों को समाप्त करने के उद्देश्य से दस गुरु परंपरा का श्रीगणेश हुआ और इसी में से ‘खालसा पंथ’ का जन्म हुआ।
श्रीगुरु नानकदेव द्वारा प्रकाशित सिद्धांतों से प्रेरित दशगुरु परम्परा ने भारत, भारतीय संस्कृति, भारत का गौरवशाली इतिहास तथा विशाल हिन्दू समाज की रक्षा के लिए अनुपम बलिदानों का स्वर्णिय इतिहास रच दिया। यही अद्भुत और अतुलनीय बलिदान वीरव्रति खालसा पंथ की नीव के पत्थर बने। यही बलिदान उस खालसा पंथ का आधार और कारण बने जिसने विदेशी/विधर्मी तथा अमानवीय मुगलिया दहशतगर्दी को समाप्त करने में मुख्य भूमिका निभाई।
इसे ईश्वरीय योग ही कहा जाएगा कि धर्म के शत्रु अत्याचारी बाबर से औरंगजेब तक के विनाशकारी कालखंड मे ही श्रीगुरु नानकदेव से दशमेश पिता श्रीगुरु गोविंदसिंह तक की ‘शस्त्र और शास्त्र’ पर आधारित विचारधारा ने जन्म लिया और भारत की सशस्त्र भुजा के रूप में खालसा पंथ ने अपने धार्मिक, सामाजिक और राष्ट्रीय कर्तव्य को निभाया।
सिंघसूरमा लेखमाला
धर्मरक्षक वीरव्रति खालसा पंथ – भाग-3
श्रीगुरु अंगददेव, श्रीगुरु अमरदास,
श्रीगुरु रामदास का महत्वपूर्ण योगदान
नरेंद्र सहगल
संत शिरोमणि श्रीगुरु नानक देव जी महाराज ने भारत की सशस्त्र भुजा खालसा पंथ का शिलान्यास भविष्य में भारत और भारतीयता के सुरक्षा कवच की कल्पना करके किया था। भविष्य में श्रीगुरु गोविंदसिंह ने जिस वीरव्रति सेना (खालसा पंथ) की सिरजना की, उसके निर्माण में 10 गुरु परंपरा का क्रमिक योगदान रहा। इसे आसान भाषा में इस प्रकार समझा जा सकता है कि खालसा पंथ के भव्य, विशाल एवं मजबूत भवन की 10 मंजिलों के निर्माण में प्रत्येक श्रीगुरु का महत्वपूर्ण योगदान था। इस भवन के निर्माण कार्य में धर्म, समाज तथा राष्ट्र के लिए आत्म बलिदान का रक्तरंजित इतिहास समाया हुआ है
राष्ट्र-संत श्रीगुरु नानकदेव ने ब्रह्मलीन होने से पहले अपने परम शिष्य लहणा खत्री को गुरु गद्दी सौंप दी। भक्त लहणा ने अपना नाम अंगददेव रख लिया। अंगद अर्थात नानक का अंग। गुरु गद्दी पर शोभायमान होने के तुरंत पश्चात श्रीगुरु अंगददेव ने नानक के मिशन को विस्तार देने का निश्चय करके एक संगठन बनाने के लिए परिश्रम करना आरंभ किया। इन्होंने गुरुमुखी लिपि, साहित्य निर्माण और लंगर व्यवस्था जैसे तीन अति महत्वपूर्ण कार्य संपन्न किए। यह तीनों ही कार्य सिख सांप्रदाय (संगठन) के शक्तिशाली आधार स्तंभ बन गए।
उस समय पंजाब के अधिकांश हिंदू लिखना-पढ़ना नहीं जानते थे। पंजाबवासियों की बोली पंजाबी थी। लेकिन पंजाबी में एक भी पुस्तक नहीं थी। श्रीगुरु अंगददेव ने इस रिक्त स्थान को भरने के लिए देवनागरी लिपि में साधारण परिवर्तन करके पंजाबी भाषा बनाई, जिसका नाम गुरमुखी रखा गया। भविष्य में यही लिपि एवं भाषा खालसा पंथ की आवाज बनी।
गुरुमुखी का निर्माण होने के बाद साहित्य लिखने का काम प्रारंभ हुआ। श्रीगुरु अंगददेव ने श्रीगुरु नानकदेव के सहयोगी भाई बाला से गुरु नानक की सभी जीवन कथाएं, शिक्षाएं तथा कर्म क्षेत्र की घटनाओं को सुनकर उन्हें गुरमुखी लिपि में लिख दिया। इस पहली पुस्तक का नाम ‘वचन संग्रह’ रखा गया। यही पंजाबी साहित्य के सर्वप्रथम पुस्तक है।
इसी तरह संगठन की आवश्यकता के अनुसार लंगर की व्यवस्था की गई। इस प्रथा से अमीर-गरीब, ब्राह्मण, शुद्र सभी मिलकर एक स्थान पर बैठकर सामूहिक भोजन कर सकते थे। इस प्रथा से संगठन का विस्तार होता चला गया। धनवान लोगों ने धन का दान देना प्रारंभ किया। इससे जाति बिरादरी की दीवारें तोड़कर पंजाब के हिंदू एकता के महत्व को समझने लगे।
श्रीगुरु अंगददेव ने अपने देह त्याग से पहले अपने परम भक्त तथा होनहार शिष्य अमरदास को अपना उत्तराधिकारी बना दिया। सिख सांप्रदाय के तीसरे गुरु अमरदास ने सिखों का एक नियमित, अनुशासित एवं शक्तिशाली संगठन बनाने के लिए समस्त पंजाब को 22 भागों में बांट कर प्रत्येक भाग का एक प्रचारक नियुक्त कर दिया। यहीं से सिख पंथ की संचालन व्यवस्था शुरू हुई जो आने वाले दिनों में बहुत लाभकारी साबित हुई।
श्रीगुरु अमरदास जी गंगा नदी के परम भक्त थे। प्रत्येक वर्ष वे अपनी अपार संगत के साथ गंगा स्नान के लिए जाते थे। जब अकबर ने हिंदुओं की तीर्थ यात्रा पर कर लगाया तब श्रीगुरु अमरदास ने उसके विरुद्ध आवाज उठाई और अकबर को अपना फैसला वापस लेने पर मजबूर किया
गुरु गद्दी पर बैठने के बाद उन्होंने अनुभव किया कि आज का सामान्य हिंदू अपनी मां गंगा के दर्शन के लिए कितने कष्ट सहन करता है। वे अपने नगर में ही गंगा सरोवर के लिए उधत हो गए। अतः गोइंदवाल में ही उन्होंने एक नई हरि की पौढ़ी की रचना की, जिसकी चौरासी सीडियाँ बनाई गई। चौरासी लाख योनियों से मुक्ति पाने के लिए यह नए सोपान बनाए गए। पंजाब में ही उन्होंने प्रत्येक निवासी के लिए गंगा को सुलभ कर दिया।
श्रीगुरु अमरदास जी ने इस बावली की रचना गंगा, हरिद्वार और हर की पौड़ी के विरुद्ध नहीं की जैसा की कुछ लोग कहते हैं। वह तो अंतिम श्वास तक गंगा मां के भक्त रहे।
श्रीगुरु अमरदास जी ने संगठन को और ज्यादा व्यवस्थित तथा प्रभावशाली बनाने के लिए गुरु गद्दी को पैतृक बना दिया। इससे उत्तराधिकारी से संबंधित सभी झगड़े एक साथ निपट गए। उल्लेखनीय है कि जब सिक्खों के एक धड़े ने श्रीगुरु नानकदेव के पुत्र बाबा श्रीचंद को गुरु गद्दी पर बिठाए जाने की जिद की तो गुरु अमरदास जी ने बहुत ही बुद्धिमता से इस समस्या का निपटारा कर दिया। बाबा श्रीचंद साधु थे और उन्होंने उदासी सांप्रदाय की स्थापना भी की थी। यदि उन्हें सिखों की गुरु गद्दी मिल जाती तो सिख सांप्रदाय साधुओं का जमघट बन जाता और आगे चलकर सिख सेना अर्थात खालसा पंथ भी ना बन पाता।
श्रीगुरु अमरदास जी ने सभी शिष्यों को समझाते हुए कहा कि श्रीगुरु नानकदेव का मार्ग इस प्रकार दुनियां छोड़कर साधुओं की संख्या बढ़ाने का नहीं था। श्रीगुरु नानकदेव तो सांसारिक जीवन को पूर्णता तक पहुंचा कर जगत का कल्याण करना चाहते थे। इसी के साथ उन्होंने विदेशी हमलावरों द्वारा किए जा रहे जुल्मों का प्रतिकार करने का मार्ग भी खोज लिया था।
श्रीगुरु अमरदास जी के दामाद भक्त रामदास बहुत ही धर्म प्रेमी और विश्वस्त गुरुभक्त थे। उनके त्याग, तपस्या और लगन से प्रभावित होकर श्रीगुरु अमरदास ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित करके गुरु गद्दी सौंप दी। इसी प्रसंग के पश्चात ही वास्तव में सिख गुरुओं में उत्तराधिकार वंशवादी हो गया।
सिक्खों के चौथे गुरु श्री रामदास जी ने गद्दी पर शोभायमान होते ही गोइंदवाल की तरह ही एक और बड़े तीर्थस्थल की योजना को साकार रुप देने का निश्चय किया। उन्होंने अमृतसर नगर का शिलान्यास किया। इलाके के बड़े जिमीदारों से जमीन खरीद कर इस नगर को बसाया गया। इस जमीन पर पानी का एक बहुत बड़ा तालाब (छप्पर) था जिसे सरोवर बना दिया गया। अब यह स्थान आसपास के हिंदू जिमीदारों के आकर्षण का केंद्र बन गया। इससे सिख सांप्रदाय में नवशक्ति का संचार हो गया।
इस केंद्र के स्थापित हो जाने से पंजाब के मालवा और माझा आदि क्षेत्रों में श्रीगुरु रामदास जी का प्रभाव बढ़ा और देखते ही देखते सिख अनुयायियों की संख्या तेज गति से बढ़ने लगी। इस क्षेत्र के किसानों, जिमीदारों ने आगे चलकर खालसा पंथ के विस्तार में इतिहासिक योगदान दिया।
_______ क्रमश:
नरेंद्र सहगल
वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक
test