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‘सिंघसूरमा लेखमाला’ धर्मरक्षक वीरव्रति खालसा पंथ – भाग-6 – भाग-7

October 20, 2022 By Guest Author

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सिंघसूरमा लेखमाला

धर्मरक्षक वीरव्रति खालसा पंथ – भाग-6

श्रीगुरु गोबिन्दसिंह का जीवनोद्देश्य

धर्म की स्थापना, अधर्म का नाश

नरेंद्र सहगल

‘हिन्द दी चादर’ अर्थात भारतवर्ष का सुरक्षा कवच सिख साम्प्रदाय के नवम् गुरु श्रीगुरु तेगबहादुर ने हिन्दुत्व अर्थात भारतीय जीवन पद्यति, सांस्कृतिक धरोहर एवं स्वधर्म की रक्षा के लिए अपना बलिदान देकर मुगलिया दहशतगर्दी को दिल्ली में जाकर चुनौती दी थी। कश्मीर के पंडितों का दु:ख सारे देश के विशाल हिन्दू समाज का दु:ख था। श्रीगुरु ने इस इतिहासिक बलिदान के माध्यम से पूरे भारतवर्ष के सभी को वर्गों एवं जातियों को संगठित होकर मुगलों की मजहबी तानाशाही के प्रतिकार के लिए हथियार उठाने का आह्वान किया था।

Guru Tej Bahadur Sahib Ji

स्वधर्म एवं राष्ट्रीय अस्मिता के लिए हुए इस महान बलिदान पर दशम गुरु श्रीगुरु गोबिन्दसिंह ने इसे महान साका की संज्ञा देते हुए कहा था – “तिलक जंजू राखा प्रभ ताका किन्हों बड़ो कलु महि साका। साधनि हेति इति जिन करी, सीसे दया पर सी न उचरी। धर्म हेत साका तिनि किया, सीस दिया पर सिरर न दिया।”

श्रीगुरु तेगबहादुर के पुत्र शौर्य के प्रतीक श्रीगुरु गोबिन्दसिंह ने 11 वर्ष की आयु में ही अत्याचारी मुगल शासन को उखाड़ कर धर्म राज्य (अधर्म का विनाश करने वाला) की स्थापना करने की भीषण प्रतिज्ञा कर ली थी। तत्पश्चात उनकी सारी गतिविधियां अध्यात्म आधारित सैन्य गतिविधियों में परिवर्तित हो गई। उनके समक्ष अब एक ही लक्ष्य था – भारत के हिन्दू समाज में प्रचलित विघटन को समाप्त करके एक ऐसे शक्तिशाली सैनिक संगठन का निर्माण करना जो भारत को विदेशी अधिनायकवाद से स्वतंत्रता दिलाकर खालसा अर्थात खालिस/पवित्र/आर्य राज की स्थापना करे। आगे चलकर दशम् गुरु ने घोषणा भी की थी “राज करेगा खालसा”

Guru Gobind Singh Jayanti 2021: कब है गुरु गोविंद सिंह जयंती? जानें कैसे हुई खालसा पंथ की स्थापना और क्या है पंच ककार! | ?? LatestLY हिन्दी

“खालसे का राज’ के साथ ही उन्होंने यह भी कहा – “आकी रहे न कोई’ अर्थात सच्चे लोगों का राज तभी स्थापित होगा जब इस धरा पर आकियों (पापियों) का अंत होगा। इन वाक्यों में दशम गुरु के जीवन का महान उद्देश्य समाया हुआ है। श्रीगुरु के इन शब्दों में पापियों (मुगलों) के विरुद्ध जंग के ऐलान की ललकार है और “खालसा का राज” इन शब्दों में विखंडित, जातिग्रस्त और भेदभाव से भरे हुए और सुप्तावस्या में जी रहे हिन्दू समाज के संगठन और सैनिकीकरण की आवश्यकता जताई गई है। दशमेश पिता का सारा संघर्षमय जीवन इन दोनों पंक्तियों पर ही आधारित रहा है।

दशमेश पिता श्रीगुरु गोबिन्दसिंह ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ बचित्र नाटक (आत्म कथा) में पृथ्वी पर अपने अवतरित होने के उद्देश्य की स्पष्ट घोषणा करते हुए कहा है –

याही काज धरा हम जन्में।

समझ लहू साध सब मनमें।

धर्म चलावन संत उबारन।

दुष्ट सभी ओ मूल उबारन। (बचित्र नाटक)

स्पष्ट है कि श्रीगुरु गोबिन्दसिंह की सभी सैन्य गतिविधियां धर्म चलावन (धर्म की स्थापना) और संत उबारन (राष्ट्रवादी सज्जन शक्ति का उदय) के लिए ही थीं। यह तभी संभव हो सकता था जब दुष्टता, पाप और विषमता का पूर्ण अंत होगा। आगे चलकर खालसा पंथ की स्थापना इसी पार्शव भूमिका तथा उद्देश्य के लिए श्रीगुरु के द्वारा की गई थी।

दशमेश पिता द्वारा घोषित उद्देश्य ‘राज करेगा खालसा’ एक क्षेत्र (पंजाब) और एक ही समुदाय (सिख) की परिधि में नहीं आता। इसका दायरा अखंड भारतवर्ष तथा समस्त हिन्दू समाज है। दशमेश पिता ने तो इससे भी आगे बढ़कर ‘सकल जगत में खालसा पंथ गाजे, जगे धर्म हिन्दू, तुर्क द्वन्द भाजै’ कहकर भारतीय चिंतनधारा के सर्वव्यापि, सार्वभौम और सार्वग्राह्य पक्ष को उजागर किया था। वास्तव में दसों गुरुओं का कर्मक्षेत्र भले ही पंजाब को केंद्र मानकर पूरा देश रहा होगा, परंतु उनका दृष्टिकोण तो ‘सर्वेभवन्तु सुखिन:’ ही था।

दशम् पातशाह श्रीगुरु गोविंदसिंह द्वारा अपनी आत्मकथा बचित्र-नाटक में अपने जन्म का जो उद्देश्य ‘धर्म की स्थापना, दुष्टों का विनाश और संतजनों का उद्धार’ घोषित किया गया है वह अकाल पुरुख की योजना का स्पष्टीकरण है। जब भी इस धरा पर राक्षसी वृति पनपने लगती है और पापियों के कृत्यों से मानवता त्राहि-त्राहि कर उठती है, तब-तब सृष्टि की संचालक दिव्यशक्ति अवतार धारण करती है।

इस तथ्य की गहराई को समझने के लिए हम त्रेतायुग के अवतार मर्यादा पुरुषोतम श्रीराम को समझें। उनके इस धरा पर आने का उद्देश्य था रावण जैसी राक्षसी शक्तियों को समाप्त करके रामराज्य की स्थापना करना। श्रीराम ने धनुरधारी रूप में आकर यह कार्य सम्पन्न किया। बनवासी क्षेत्रों से सैनिक शक्ति तैयार की। इसे ही समाज में क्षात्रधर्म का जागरण कहा गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने इस अवतार विषय पर कहा है –

“जब-जब होंहि धर्म की हानी।

बाड़ै असुर महां अभिमानी।।

तब-तब धरि प्रभु विविध सरीरा।

हरंहि कृपानिधि सज्जन पीरा।।“

अर्थात जब-जब धर्म एवं सज्जन शक्ति पर संकट आता है, तब-तब परमात्मा विविध शरीरों के रूप में धराधाम पर आते हैं। सज्जनों के दुख दूर करना उनका उद्देश्य होता है।

द्वापर युग में भी स्वयं योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन को गीता का उपदेश देते हुए कहा था –

‘परित्राणाय साधुनां।

विनाशाय च दुष्कृताम्।।

धर्म संस्थापनार्थाय।

संभवामि युगेयुगे।।

अर्थात दुष्टों का नाश, सज्जनों का कल्याण तथा धर्म की पुनर्स्थापना हेतु मैं जन्म लेता हूँ।

अतः स्पष्ट हुआ के दशम् पातशाह श्रीगुरु गोविंदसिंह महाराज ने यह कहकर ‘याही काज हम धरा पर जनमें’ अपनी भावी सैनिक रणनीति की घोषणा कर दी थी। उन्होंने अपनी काव्य रचना ‘चंडी दी वार’ में आदिशक्ति भवानी की पूजा करते हुए किरपाण (तलवार) के महत्व पर प्रकाश डाला है। सिख समाज में जो अरदास कही जाती है उसकी प्रथम पंक्ति से ही दशम् पातशाह ने अपनी रणनीति की घोषणा कर दी है – “प्रथम भगौति सिमरिए’ अर्थात सभी प्रकार के कार्यों को सम्पन्न करने के पूर्व भगौति (आदि शक्ति भगवति) खड़ग (किरपाण) की वंदना करो।

Chandi Di Vaar Hindi Lyrics - Dasam Granth - चंडी दी वार - गुरु गोबिंद सिंह - YouTube

उल्लेखनीय है कि भारत में शक्ति (शस्त्र पूजन) की प्रथा सनातन काल से ही चली आ रही है। आज भी भारत में विजयदशमी के दिन शस्त्रों की पूजा करने का विधान प्रचलित है। श्रीगुरु गोविंदसिंह के समकालीन छत्रपति शिवाजी भी भवानी की पूजा तलवार की पूजा के रूप में ही करते थे। सनातन काल से ही हिन्दू योद्धा शस्त्र पूजन की पद्धति का सम्मान करते हुए रणक्षेत्र में शत्रु के संहार के लिए प्रस्थान करते थे।

दशमेश पिता ने इसी सैन्य परंपरा की पुनर्स्थापना करके हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व तथा सरवंश तक न्योछावर कर दिया था। नवम् श्रीगुरु तेगबहादुर के आत्म बलिदान के बाद हिन्दू समाज में प्रतिशोध की भावना तीव्रगति से जाग्रत हुई और दशमेश पिता ने इस प्रतिशोध का नेतृत्व संभाल कर रणक्षेत्र में उतर कर रणभेरी बजा दी।

डॉ. महीप सिंह अपनी रचना ‘गुरु गोविंदसिंह और उनकी कविता’ में लिखते हैं – ‘औरंगजेब की धार्मिक नीतियों के कारण हिंदुओं में प्रतिकार का भाव जाग्रत हो रहा था —– श्रीगुरु गोविंदसिंह ने केवल 9 वर्ष की आयु में दिल्ली में अपने पूज्यपिता का बलिदान होते देखा था। इस अबोध सी लगने वाली आयु में उन्होंने गुरुगद्दी का गुरुत्तर भार संभाला था, जो दिल्ली के मुगल शासन की आखों में खटक रहा था।’ इन परिस्थितियों में दशमेश पिता ने हिन्दुत्व एवं मानवता की रक्षा के लिए कटिबध होकर समाज में क्षात्रधर्म के जागरण का बीड़ा उठाया। – क्रमश:

 

सिंघसूरमा लेखमाला

धर्मरक्षक वीरव्रति खालसा पंथ – भाग-7

अत्याचारी मुगल शासन के विरुद्ध

दशमेश पिता ने बजाई रणभेरी

नरेंद्र सहगल

 

श्रीगुरु नानकदेव ने भारतवर्ष की सांस्कृतिक धरोहर हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज के संर्वधन एवं पुनुर्त्थान के लिए भक्तिमार्ग का श्रीगणेश किया था। आगे चलकर दशमेश पिता श्रीगुरु गोविंदसिंह ने समय की अवश्यकत्ता के अनुसार उसी भक्तिमार्ग को शक्ति-मार्ग में परिवर्तित करके विधर्मी/विदेशी मुगल शासन के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा दिया।

जिसकी रक्षा रघु और राम से लेकर गुरु गोविन्द सिंह तक ने की, वो है हिन्दू धर्म ⋆ Making India

दशम् श्रीगुरु ने स्वयं को भगवान श्रीराम के सूर्यवंश से जोड़ा है। उनकी आत्मकथा के अनुसार श्रीगुरु नानकदेव और दशम् गुरु के दोनों बेदी और सोडी वंशों का संबंध श्रीराम के पुत्र लव और कुश से है। दूसरी और उन्होंने अपने अवतरण को श्रीकृष्ण द्वारा गीता में दिए गए उस आश्वासन से जोड़ा है कि ‘जब भी अधर्म का बोलबाला होगा मैं धर्म की स्थापना हेतु धरा धाम पर आऊँगा।‘ श्रीगुरु गोविंदसिंह ने भी – ‘याही काज धरा जनमे’ कह कर शस्त्र धारण की प्रक्रिया को समयोचित ठहराया।

दशमेश पिता ने छत्रपति शिवाजी की भांति प्रत्येक कार्य को आदि शक्ति देवी के पूजन से प्रारंभ किया है। उन्होंने अपने को कालका देवी का पुत्र माना है। उनके शब्दों में –

‘सर्वकाल है पिता हमारा।

देवि कालका मात हमारी।।‘

इसी तरह दशमेश गुरु ने अपने पूर्व जन्म को भी आदि शक्ति देवी के साथ जोड़ते हुए कहा है –

‘सपत स्त्रिन्ग तिहि नाम कहावा।

पंडराज जहां जोग कमावा।।

तहं हम अधिक तपस्या साधी।

महाकाल कालका अराधी।।‘

श्रीगुरु के जीवनोद्देश्य : दुष्टों के वर्चस्व को समाप्त करके ‘खालसे का राज’ की स्थापना को समझने के लिए किरपाण (शक्ति) की आराधना को जान लेना आवश्यक है। भारतीय संस्कृति के इस पक्ष को दशम् गुरु ने अपनी एक सचना (कविता) में बहुत ही सुंदर शब्दों में प्रस्तुत किया है –

नमो उग्रदेती अनेती सवैया,

नमो योग योगेश्वरी योग मैया।

नमो केहरी-वाहनी शत्रु-हेती,

नमो शारदा ब्रह्म-विद्या पढ़ेती।

नमो ज्योति-ज्वाला तुमै वेद गावैं,

सुरासर ऋषीश्वर नहीं भेद पावैं।

तुही काल अकाल की जोति छाजै,

सदा जै, सदा जै, सदा जै विराजै।

 

यही दास मांगे कृपा सिंधु कीजै,

स्वयं ब्रह्म की भक्ति सर्वत्र दीजै।

अगम सूर बीरा उठहिं सिंह योधा,

पकड़ तुरकगन कउ करैं वै निरोधा।

सकल जगत महि खालसा पंथ गाजै,

जगै धर्म हिन्दू सकल दुंद भाजै।

तुही खंड ब्रह्मड भूमे सरूपी,

तुही विष्णु, शिव, ब्रह्मा, इन्द्र अनुपी।

तुही ब्राम्हाणी वेद पारण सावित्री,

तुही धर्मिणी करण-कारण पवित्री।

 

तुही हरि-कृपा सिउ आगम रूप होई,

सवै पच मुए, पार पावत न कोई।

निरंजन स्वरुपा तु ही आदि राणी,

तु ही योग-विद्या तुहि ब्रम्हा-वाणी।

अपुन जानकर मोहि लीजै बचाई,

असुर पापीगन मार देवउ उड़ाई।

 

यही आस पूरण करहु तुम हमारी,

मिटै कष्ट गऊअन छूटै खेद भारी।

फतह सत गुरु की सबन सिउँ बुलऊँ,

सबन कउ शबद वाहि वाहे दृढ़ाऊँ।

करो खालसा पंथ तीसर प्रवेशा,

जंगहि सिंह योद्धा घरहिं नील वेषा।

सकल राछसन कउ पकड़ वै खपावै,

सबी जगत सिव धुन फतहि बुलावैं।

यही वीनती खास हमरी सुनीजै,

असुर मार कर रच्छ गऊअन करीजै।

इस कविता में भारत की भावात्मक एकता के लगभग सभी चिन्हों को दशम् गुरु ने दर्शाया है। गऊ – ब्रह्म, वेद, देवी, विष्णु, शिव, इन्द्र एवं हिन्दू इत्यादि शब्द श्रीगुरु के विशाल राष्ट्रीय मन का परिचय देते हैं।

इसी प्रकार दशम् गुरु की एक अन्य कविता भी वीर-रस का संचार करती है। –

यही देहि वर मोहि सत गुरु धियाऊँ,

असुर जीतकर धर्म नौबत बजाऊँ।

मिटै सब जगत सिउ तुर्कन द्वन्द शोरा,

बचहि संत सेवक खपंहि दुष्ट चोरा।

सबै सृष्टि परजा सुखी हुई बिराजे,

मिटै दुख-संताप आनंद गाजे।

न छाडऊँ कहूँ दुष्ट असुरन निशानी,

चले सब जगत महि धरम की कहानी।

इन पंक्तियों में दशम् गुरु ने जालिम तुर्कों (मुसलमानों) के अंत की कामना के साथ संत शक्ति (समाज) के सुख की कामना भी की है। स्पष्ट है कि श्रीगुरु भविष्य में सम्पन्न होने वाले अपने संघर्ष एवं औरंगजेब के शासन के विरुद्ध जंग की योजना को साकार रूप दे रहे थे। श्रीगुरु के इस आह्वान में वह शक्ति थी जिसने विधर्मी साम्राज्य की जड़ों को हिलाकर रख दिया था।

श्रीगुरु अत्याचारी मुगलों से टक्कर लेने के लिए भारतीयों को तैयार करने में अपने जीवन का प्रत्येक क्षण लगा रहे थे। केवल पंजाब ही नहीं तो समस्त भारत में विभाजित हिंदुओं को संगठित करके एक प्रचंड शक्ति के रूप में तैयार किया और अकाल पुरख से ‘खालसा’ की विजय के लिए प्रार्थना की।

देह शिवा वर मोहे इहै,

शुभ कर्मन ते कबहुं न डरूँ।

न डरूँ अरि से जब जाय लरूँ,

निश्चय कर अपनी जीत करूँ।

मैं मूर्तिभंजक हूँ': गुरु गोविंद सिंह ने की थी बहादुर शाह की मदद - किताबों में इतिहास

उल्लेखनीय है कि श्रीगुरु गोविंदसिंह द्वारा इस तरह निडरता एवं निर्भीकता के साथ मुगलों के विरुद्ध जंग का एलान करना समय की अवश्यकत्ता थी। भारत में हिन्दू चिरकालिक मुसलमानी शासन के कारण ऐसे दब गए थे कि प्रतिकार करने की शक्ति का लोप हो चुका था। विदेशी शासकों के ‘जोर और जब्र’ के कारण हिन्दू समाज के अनेक वर्ग जो मेहनत मज़दूरी करके अपना जीवन यापन करते थे, वे मुसलमान होते जा रहे थे।

हिन्दू मंदिरों को तोड़ा जा रहा था। पाठशालाओं एवं विद्यापीठों को तबाह करके उनके स्थान पर मस्जिदें और मकतब बनाए जा रहे थे। हिंदुओं के धर्मग्रंथों को जलाना, गऊओं की सार्वजनिक रूप से हत्याएं करना, तलवार के जोर पर हिंदुओं को मुसलमान बनाना, हिन्दू युवतियों को बलपूर्वक उठाकर मुगल शासकों के हरमों में रखना, हिंदुओं को अपने धार्मिक अनुष्ठानों को ना करने पर मजबूर करना इत्यादि अमानवीय कार्य इस्लाम के असूलों के अनुकूल समझे जाते थे।

डॉ. जयराम मिश्र अपनी पुस्तक श्रीगुरु ग्रंथ दर्शन में लिखते हैं – “शताब्दियों के अपमान, अत्याचार, राजनीतिक दास्तां के फलस्वरूप हिन्दू अपना शौर्य, आत्मगौरव और आत्मविश्वास खो बैठे थे। धर्म का वास्तविक स्वरूप लुप्त हो गया था। मुसलमानों के द्वारा बलपूर्वक धर्म परिवर्तन एवं हिंदुओं में मानसिक कमजोरी के कारण बाहरी आडंबरों की प्रबलता आ गई थी।“

प्रसिद्ध इतिहासकार इंदुभूषण बैनर्जी अपनी पुस्तक एवोल्यूशन आफ खालसा में लिखते हैं – “मुसलमान शासकों ने धर्म परिवर्तन के कई अस्त्र निकाले, जिनमें यात्रा कर, तीर्थ यात्रा कर, धार्मिक मेलों, उत्सवों और जुलूसों पर कठोर प्रतिबंध, नए मंदिरों के निर्माण पर कठोर प्रतिबंध, हिंदुओं के धार्मिक नेताओं का दमन, तथा मुसलमान होने पर पुरस्कार देने आदि मुख्य थे। इन्हीं अस्त्रों द्वारा वे हिन्दू धर्म को सर्वथा मिटा देना चाहते थे।“

उपरोक्त भयावह परिस्थितियों में हिन्दू समाज में एकता स्थापित करने तथा उसे मुगलों के विरुद्ध जंग के लिए तैयार करने का कार्य दशम् पिता ने खालसा-पंथ की स्थापना के साथ ही शुरू कर दिया। ———– क्रमश:

नरेंद्र सहगल

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक


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