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मतांतरण के माध्यम से राष्ट्रांतरण का प्रयास

November 15, 2022 By Guest Author

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अनुसूचित और आदिवासी समाज ईसाई मिशनरियों के निशाने पर

बेहतर भविष्य के लिए चाहिए अतीत से मुक्ति, कोई भी मत, मजहब, रिलीजन संविधान  से ऊपर नहीं - For a better future freedom from the past is needed no faith  religion religion

हरेंद्र प्रताप : केंद्र सरकार के सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने सुप्रीम कोर्ट में दिए गए अपने एक हलफनामे में मतांतरित ईसाइयों और मुस्लिमों को दिए जाने वाले आरक्षण का विरोध किया है। वर्ष 1956 में राज्य पुनर्गठन के बाद 1961 से 2011 के बीच हुई जनगणना में अनुसूचित जाति एवं जनजाति के राज्यवार उपलब्ध आंकड़े बता रहे हैं हमारे देश का अनुसूचित और आदिवासी समाज ईसाई मिशनरियों के निशाने पर हैं। वर्ष 1961 में देश में जनजाति समाज के लोगों की कुल संख्या 2,98,79,249 थी, जिनमें से 16,53,570 ईसाई बन गए थे, जो कुल जनजाति आबादी का 5.53 प्रतिशत था। वर्ष 2011 में देश में जनजाति समाज के लोगों की कुल संख्या 10,45,45,716 थी जिनमें से 1,03,27,052 यानी 9.87 प्रतिशत ईसाई हैं। कुछ लोग कह सकते हैं कि विगत पांच दशकों में ईसाइयों की जनसंख्या बढ़ी नहीं तो फिर यह ‘‘मतांतरण’’ का शोर क्यों मचाया जा रहा है? दरअसल ईसाई मिशनरियां देश के जनजाति समाज को ध्यान में रखकर एक दीर्घकालिक योजना को क्रियान्वित करने में लगी हुई नजर आती हैं।

वर्ष 1961 में देश की कुल ईसाई जनसंख्या में केरल का हिस्सा 33.43 प्रतिशत तथा मिजोरम, मेघालय, नगालैंड, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश का हिस्सा 7.93 प्रतिशत था। अब केरल का हिस्सा घटकर 22.07 प्रतिशत रह गया है तथा उपरोक्त पांच राज्यों का हिस्सा बढ़कर 23.38 प्रतिशत हो गया है। जनसंख्या की दृष्टि से पूर्वोत्तर के राज्य भले छोटे राज्य माने जाते हैं, पर सामारिक, आर्थिक और सांस्कृतिक दृष्टि से ये देश के लिए महत्वपूण हैं। पूर्वोत्तर के मिजोरम, नगालैंड और मेघालय आज ईसाई बहुल राज्य हो गए हैं। अरुणाचल तथा मणिपुर में जिस तेजी से मतांतरण हो रहा है, उसके आधार पर यह अनुमान लगाया जाता है कि आने वाले एक-दो दशकों में ये राज्य भी ईसाई बहुल हो जाएंगे।

कबीरा खडा़ बाज़ार में: सम्पादकीय /Opinion रोकनी होगी मतांतरण की मुहिम  हृदयनारायण दीक्षित जागरण २७ सितंबर २०२१

असम के दिमा हासो में 29.57 तो कार्बी जिले में 16.49 प्रतिशत तक ईसाई जनसंख्या हो गई है। चिंता की बात यह है कि कुल जनजाति आबादी में से नगालैंड में 98.21 प्रतिशत, मणिपुर में 97.42 प्रतिशत, मिजोरम में 90.07 प्रतिशत, मेघालय में 84.42 प्रतिशत तथा अरुणाचल प्रदेश में 40.92 प्रतिशत लोग ईसाई बन गए हैं। पूर्वोत्तर के ही असम में 12.75 प्रतिशत तथा त्रिपुरा के 13.11 प्रतिशत जनजाति बंधु ईसाई बन गए हैं। अंडमान के 92.92 प्रतिशत और गोवा के 32.67 प्रतिशत जनजाति बंधु ईसाई बन गए हैं। जनजाति प्रभाव वाले झारखंड में भी 15.47 प्रतिशत जनजाति बंधु ईसाई बन गए हैं और 46.41 प्रतिशत ने अपने को ‘अन्य’ कालम में लिखवाया है। जो ‘अन्य’ हैं, वे कल ईसाई हो जाते हैं। अरुणाचल प्रदेश में 1971 में ईसाई 0.78 प्रतिशत तथा ‘अन्य’ 63.45 प्रतिशत थे। वर्ष 2011 में अरुणाचल में ‘अन्य’ घटकर 26.20 प्रतिशत तो ईसाई बढ़कर 30.26 प्रतिशत हो गए। नगालैंड में भी 1951 में ईसाई 46.04 प्रतिशत तथा ‘अन्य’ 49.50 प्रतिशत थे। अब वहां ‘अन्य’ 0.16 प्रतिशत तथा ईसाई 87.92 प्रतिशत हैं।

यह एक तथ्य है कि किसी क्षेत्र के ईसाई बहुल होते ही वहीं से हिंदुओं का पलायन भी शुरू हो जाता है। वर्ष 1981 में मिजोरम में हिंदू 35,245 थे, जो तीन दशक के बाद भी बढ़ने के बदले घटकर 30,136 रह गए हैं। इस प्रकार से पूर्वोत्तर में न केवल मतांतरण, बल्कि राष्ट्रांतरण भी तेजी से हो रहा है। वहां दर्जनों अलगाववादी और आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं।

वैसे देखा जाए तो ईसाइयों द्वारा मतांतरण का षड्यंत्र पूरे देश में चलाया जा रहा है। विगत दो जनगणना 2001 तथा 2011 के आंकड़ों को देखा जाए तो मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि दर हिंदुओं से डेढ़ गुना तो भी 30 प्रतिशत के नीचे थी, पर ईसाइयों की आबादी की वृद्धि दर कई राज्यों में अप्रत्याशित थी। मात्र पिछले दशक में यानी 2001-11 के दौरान ही ईसाइयों की जनसंख्या जम्मू-कश्मीर में 75.53 प्रतिशत, बिहार में 143.23 प्रतिशत, हरियाणा में 85.22 प्रतिशत, हिमाचल में 64.51 प्रतिशत की दर से बढ़ी है। एक समय ईसाई मिशनरियां जनजाति बहुल इलाकों में सक्रिय थीं, लेकिन अब वे उन इलाकों में भी सक्रिय हैं, जहां अनुसूचित जाति के लोग बड़ी संख्या में हैं।

आजादी के बाद से जिहादी आतंकवाद और घुसपैठ पर तो चर्चा होती रही है, पर ईसाई मिशनरियों की ओर से कराए जाने वाले मतांतरण पर जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, उतनी नहीं हो पाई। एक बार तो चुनाव के समय पूर्वोत्तर के राज्यों में कांग्रेस ने यह भी एलान कर दिया था कि इन राज्यों में ईसाइयत के आधार पर शासन व्यवस्था का संचालन होगा। ध्यान रहे कि नवंबर 2017 में गुजरात विधानसभा चुनाव के समय दिल्ली के आर्कबिशप अनिल काउटो ने कहा था कि अगर राष्ट्रवादी चुनाव जीत जाते हैं तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा।

फरवरी 2018 में नगालैंड में विधानसभा चुनाव के समय अंगामी बैपटिस्ट चर्च काउंसिल के कार्यकारी निदेशक डा. वी अटसी डोलाई ने आरोप लगाया था कि हिंदुवादी ताकतें प्रलोभन देकर नगा समाज में प्रवेश कर रही हैं। ऐसे में केंद्र सरकार ने मतांतरित ईसाइयों और मुस्लिमों को आरक्षण का लाभ देने विरोध कर एक साहसिक कदम उठाया है। केंद्र सरकार के हलफनामे के बाद विदेशी ताकतें पूर्वोत्तर को अशांत करने का षड्यंत्र रच सकती हैं, पर पूर्वोत्तर का समाज मूलतः देशभक्त और जुझारू है। विगत वर्षों में विकास की तेज रफ्तार से पूर्वोत्तर के राज्यों में न केवल शांति स्थापित हुई है, बल्कि एक आशा का संचार भी हुआ है। पूर्वोत्तर की राज्य सरकारें और केंद्र के बीच समन्वय एवं सहयोग से किसी भी षड्यंत्र को विफल किया जा सकता है। देश का एक और विभाजन न हो, इसके लिए दलीय स्वार्थ से ऊपर उठकर राष्ट्र की एकता और अखंडता को प्राथमिकता देते हुए केंद्र सरकार का समर्थन और सहयोग समय की मांग है।

राष्ट्रघाती है मतांतरण के जरिए समाज के सांस्कृतिक चरित्र को बदलने की कोशिश

राष्ट्रघाती है मतांतरण के जरिए समाज के सांस्कृतिक चरित्र को बदलने की कोशिश  - The attempt to change the cultural character of the society through  religious conversion is anti national

सुप्रीम कोर्ट ने छल-बल और लोभ-लालच से कराए जाने वाले मतांतरण को बहुत गंभीर बताते हुए केंद्र सरकार से इस पर रोक लगाने का जो निर्देश दिया, उस पर उसे तत्काल प्रभाव से सक्रिय होना चाहिए। इस सक्रियता के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर मतांतरण रोधी कोई प्रभावी कानून भी सामने आना चाहिए। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि कुछ राज्य सरकारों ने प्रलोभन देकर कराए जाने वाले मतांतरण को रोकने के लिए कानून बना रखे हैं, क्योंकि ये कानून उन संगठनों को हतोत्साहित करने में समर्थ नहीं, जो मतांतरण अभियान में लिप्त हैं।

ऐसे कानूनों के बाद भी मतांतरण कराने वालों के दुस्साहस का दमन होता नहीं दिख रहा है। देश के उन क्षेत्रों में जहां अनुसूचित जाति-जनजाति समुदाय की संख्या अधिक है, वहां ईसाई मिशनरियों की सक्रियता किसी से छिपी नहीं। ईसाई मिशनरियों जैसा तौर-तरीका कई इस्लामी संगठनों ने भी अपना रखा है। वे दीन की दावत देने के नाम पर लोगों को बहलाने-फुसलाने का ही काम करते हैं। मतांतरण के लिए वे लोगों को प्रलोभन भी देते हैं।

मतांतरण में लिप्त तत्वों के निशाने पर आम तौर पर निर्धन लोग होते हैं, जिनकी विवशता का लाभ उठाना कहीं आसान होता है। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि अपने मत-मजहब के प्रचार की स्वतंत्रता का अनुचित लाभ उठाया जा रहा है। मत-मजहब के प्रचार की स्वतंत्रता के नाम पर लोगों को बरगलाने का अधिकार किसी को भी नहीं दिया जा सकता। केंद्र सरकार इससे अनभिज्ञ नहीं हो सकती कि कुछ ईसाई संगठन किस तरह भगवा वस्त्र धारण कर गरीब आदिवासियों और दलितों को बरगलाने का काम करते हैं।

छल-छद्म से कराए जाने वाले मतांतरण पर अंकुश लगाना इसलिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है, क्योंकि जब देश के किसी क्षेत्र का सामाजिक ताना-बाना बदलता है तो वहां राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौतियां पैदा हो जाती हैं। वास्तव में इसी कारण सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि यदि छल-कपट से होने वाले मतांतरण को नहीं रोका गया तो बहुत मुश्किल स्थिति पैदा होगी। ऐसी स्थिति देश के कुछ हिस्सों में पैदा भी हो गई है। इस मुश्किल स्थिति का सामना सरकार के साथ समाज को भी करना होगा, क्योंकि मतांतरण एक तरह से राष्ट्रांतरण की खतरनाक प्रक्रिया है।

मतांतरण के माध्यम से समाज के सांस्कृतिक चरित्र को बदलने की जो कोशिश हो रही है, वह राष्ट्रघाती है। केंद्र सरकार यह कहकर कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर सकती कि उसने मतांतरण में लिप्त संगठनों पर अंकुश लगाने के लिए विदेश से चंदा लेने संबंधी नियम-कानूनों में परिवर्तन किया है, क्योंकि तथ्य यही है कि इन नियम-कानूनों से बच निकलने की कोई न कोई जुगत भिड़ा ली जाती है। विदेश से चंदा लेने के नियम-कानून वैसे ही होने चाहिए, जैसे आतंकी फंडिंग पर लगाम लगाने के लिए बनाए जा रहे हैं।

सौजन्य : दैनिक जागरण


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