प्रशांत पोळ
25 जून 1975 की रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इस देश पर *आपातकाल* थोपा। जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटलबिहारी वाजपेई, लालकृष्ण अडवाणी समवेत लाखों लोगों को जेल मे ठूंसा। रा. स्व. संघ पर प्रतिबंध लगाया। पूरे देश को जेल मे बदल दिया।
इंदिरा गा॔धी के इस तानाशाही की मस्ती इक्कीस महिने चली। इन इक्कीस महिनों मे कांग्रेस ने इस देश के संविधान को तोडा – मरोडा और संविधान के मुलभूत सिध्दांत की निर्ममता से हत्या की। बाबासाहब आंबेडकर जी ने जिस अभिव्यक्ती स्वतंत्रता को आग्रह के साथ संविधान मे शामिल किया था, कांग्रेस ने उसे ही कुचल दिया। बाबासाहब आंबेडकर जी के संविधान की बखिया उधेड दी।
इस 25 जून को, संविधान की हत्या के पचास वर्ष पूर्ण हो रहे हैं। इन पचास वर्षों मे तीन – चार पीढियां निकल गई। संभव हैं, हममे से अनेकों को ‘आपातकाल’ क्या था, ये मालूम न हो। इसलिये आपातकाल के उन काले दिनों पर कल से 25 जून तक, एक श्रृंखला प्रारंभ कर रहा हूं – *संविधान की हत्या के पचास वर्ष’*।
वह अपने देश के लिए कठिन समय था। बहुत कठिन। 1971 में ‘गरीबी हटाओ’ के नारे के साथ इंदिरा गांधी चुनकर सत्ता में आई थी। किंतु देश दयनीय स्थिति में था। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबा हुआ था।
उन दिनों भारत एक गरीब देश समझा जाता था। 1975 में हमारा आर्थिक विकास दर मात्र 1.2% था। विश्व का, जनसंख्या के मामले में दूसरा देश होने के बाद भी, अर्थव्यवस्था में हम 15 वें क्रमांक पर थे। हमारे पास विदेशी मुद्रा भंडार मात्र 1.3 बिलियन अमेरिकी डॉलर्स था (आज हमारा विदेशी मुद्रा भंडार 640 बिलियन अमेरिकी डॉलर हैं)। महंगाई चरम पर थी। मुद्रास्फीति का दर 20% से भी ज्यादा था। देश की 50% से ज्यादा जनता गरीबी रेखा के नीचे थी। बेरोजगारी जबरदस्त थी। उद्योग विकास दर नहीं के बराबर था।
एक दो राज्यों का अपवाद छोड़, कांग्रेस की सत्ता पूरे देश पर थी। उनके इस राज में भ्रष्टाचार अपने चरम पर था।
1971 में दिल्ली की स्टेट बैंक की शाखा से रुस्तम नगरवाला ने फोन पर इंदिरा गांधी की आवाज निकाल कर, 60 लाख रुपए कैश में निकाले। बाद में नगरवाला पकड़ा गया, किंतु वह 60 लाख रुपए कहां गए, किसी को पता नहीं चला। और जेल के अंदर नगरवाला की रहस्यमय ढंग से मृत्यु हुई।
1975 का शीतकालीन सत्र केंद्रित रहा, कांग्रेस के सांसद तुलमोहन राम पर। तुलमोहन राम ने आयात – निर्यात के लाइसेंस को लेकर एक बहुत बड़ा घोटाला किया था, जो सामने आया। यह तुलमोहन राम, रेलवे मंत्री ललित नारायण मिश्रा के खास चेले थे। कहा जाता था कि ललित नारायण मिश्रा, कांग्रेस के ‘ऐसे’ सारे आर्थिक व्यवहार देखते थे। यह तुलमोहन राम प्रकरण सामने आने के तुरंत बाद, 3 जनवरी 1975 को, केंद्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्रा की हत्या हुई थी।
कुल मिलाकर, भारत पर राज करने वाली कांग्रेस, ऐसे भ्रष्टाचार के एक से बढ़कर एक उदाहरण प्रस्तुत कर रही थी। स्वाभाविक था, कि इसके विरोध में लोगों का आक्रोश बढ़ना। सरकार आर्थिक व्यवस्था पटरी पर लाने के लिए कोई ठोस कदम उठाते हुए दिख नहीं रही थी। सरकार के विरोध में आंदोलनों और हड़तालों का दौर चल रहा था।
देश की भ्रष्ट व्यवस्था के विरोध में गुजरात के छात्रों ने ‘नवनिर्माण आंदोलन’ प्रारंभ किया था। उनकी मांग थी, ‘भ्रष्ट चिमन पटेल की सरकार को बर्खास्त किया जाए’। ‘चिमन चोर हटाओ’ यह गुजरात का लोकप्रिय नारा बन गया था। छात्रों के बढ़ते आक्रोश के बीच, गुजरात सरकार को बर्खास्त करने के लिए मोरारजी भाई देसाई ने आमरण अनशन पर बैठने की घोषणा की।
आखिरकार इंदिरा गांधी को झुकना पड़ा। गुजरात विधानसभा बर्खास्त हुई। नए चुनाव की घोषणा हुई। जनसंघ, संगठन कांग्रेस, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी जैसे दल एक आकर, उन्होंने ‘जनता मोर्चा’ का गठन किया। इस जनता मोर्चा के नेतृत्व में विपक्ष ने चुनाव लड़ा।
और इतिहास बन गया..!
पहली बार कांग्रेस के विरोध में, विपक्षी दल के विधायक बड़ी संख्या में चुनकर आए। 182 सदस्यों की विधानसभा में जनता मोर्चा के 86 विधायक जीतककर आए। उन्हें आठ निर्दलीय विधायकों का समर्थन मिला।
और जून 1975 में, पहली बार गुजरात में बाबूभाई पटेल के नेतृत्व में जनता मोर्चा की सरकार बनी..!
इंदिरा गांधी के लिए यह जबरदस्त झटका था। गुजरात जैसा ही आंदोलन बिहार में भी चल रहा था। छात्रों की मांग पर जयप्रकाश नारायण जी ने इस आंदोलन का नेतृत्व स्वीकार किया। कांग्रेस की भ्रष्ट और अकर्मण्य व्यवस्था के विरोध में, नवनिर्माण आंदोलन देश में फैलने लगा था। जयप्रकाश नारायण जी को लोगों ने ‘लोकनायक’ की उपाधि दी थी।
और ऐसे में आया 12 जून।
रायबरेली संसदीय क्षेत्र में भ्रष्ट तरीके अपनाने के आरोप में, प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार राज नारायण ने इंदिरा गांधी पर कोर्ट में मुकदमा दायर किया था। 12 जून को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहन सिन्हा ने इस मुकदमे में अपना ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। यह निर्णय इंदिरा गांधी के विरोध में था।
न्यायमूर्ति सिन्हा ने भ्रष्टाचार के आरोप में धारा 123 (7) के तहत इंदिरा गांधी का निर्वाचन रद्द किया (शून्य किया) और उन्हें अगले 6 वर्षों तक चुनाव लड़ने हेतु अपात्र (अयोग्य) घोषित किया।
यह निर्णय सभी अर्थों में अभूतपूर्व था। ऐतिहासिक था। स्वतंत्रता के बाद, पहली बार पद पर रहे प्रधानमंत्री को भ्रष्टाचार के कारण चुनाव लड़ने के लिए प्रतिबंधित किया गया था।
इस निर्णय ने देश में विरोध के स्वर को बुलंद आवाज दी। पहले ही बेरोजगारी की आग में झुलस रहे नवयुवक, गरीबी की मार खा रहा समाज का बड़ा तबका, भ्रष्टाचार से त्रस्त जनसामान्य… ये सारे मांग करने लगे, इंदिरा गांधी के त्यागपत्र की। कानून ने इंगित कर दिया था – छह वर्षों के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार देकर। इसलिए, पद से त्यागपत्र देना यह जनता की स्वाभाविक अपेक्षा थी। नैतिकता भी यही कह रही थी।
किंतु प्रधानमंत्री पद से त्यागपत्र देने का न तो इंदिरा गांधी का मन था, और नहीं इच्छा। संजय गांधी, इंदिरा गांधी के त्यागपत्र के पक्ष में कतई नहीं थे।
प्रधानमंत्री निवास में मानसिकता बन गई थी, कि इंदिरा जी ने त्यागपत्र नहीं देना है। वहां की सारी गतिविधियों का प्रबंधन आर के धवन के पास आ गया था। यह राजकुमार धवन, मंत्रालय में क्लर्क थे। किंतु बाद में वें इंदिरा जी के विश्वासपात्र बने और अधिकृत रूप से इंदिरा गांधी के सचिव। उनके साथ हरियाणा के मुख्यमंत्री बंसीलाल और कांग्रेस के अध्यक्ष देवकांत बरुआ भी थे। यह सभी संजय गांधी और इंदिरा गांधी के खास विश्वासपात्र सिपाही थे। इन सब की राय यही थी इंदिरा गांधी ने त्यागपत्र देना दूर की बात इन विपक्षी दलों के विरोध में कोई सख्त कदम उठाने की आवश्यकता हैं।
12 जून के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद से इन योजनाओं पर काम प्रारंभ हो गया था। वैसे विपक्षी दलों को कुचलने की योजना नई नहीं थी। जॉर्ज फर्नांडीज के नेतृत्व में 1974 में जो जबरदस्त रेलवे आंदोलन हुआ था, उसी के बाद यह योजना आकार लेने लगी थी। उन दिनों दिल्ली से राष्ट्रीय विचारों वाला एक अंग्रेजी समाचार पत्र निकालता था – ‘मदरलैंड’। उसने 30 जनवरी 1975 के अंक में आशंका व्यक्त की थी कि भारत सरकार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगाने का निश्चय किया हैं, साथ ही जयप्रकाश नारायण जी को भी गिरफ्तार किया जाएगा। इसी दिन इंडियन एक्सप्रेस ने भी इसी आशय का समाचार प्रकाशित किया था। अर्थात, जो लोग सरकार के विरोध में जा रहे (ऐसा सरकार को लग रहा था), उन सभी पर सख्त कदम उठाने की योजना, बहुत पहले से तय थी।
प्रधिनमंत्री निवास, 1 सफदरजंग रोड से पूरे देश में संदेसे गए की बड़ी कार्यवाही के लिए तैयार रहना हैं। गुजरात और तमिलनाडु को छोड़कर लगभग सभी मुख्यमंत्री कांग्रेस के थे। उनसे कहा गया कि जिनको गिरफ्तार करना हैं, उनकी सूची तैयार की जाए।
इधर कांग्रेस, विपक्षी दलों को कुचलने की तैयारी कर रही थी, तो वहां कम्यूनिस्टों को छोड, लगभग सभी विपक्षी दल, जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व मे, इंदिरा गांधी के त्यागपत्र के लिये, व्यापक आंदोलन की योजना बना रहे
विनाश काले विपरीत बुद्धि
12 जून के इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्णय के पश्चात 1, सफदरजंग रोड पर प्रधानमंत्री आवास में सरगर्मी बढ़ गई। यहां से संजय गांधी सारे सूत्र हिला रहे थे। इंदिरा जी का इस्तीफा मांगने वाले विपक्षी दलों पर कड़ी कार्यवाही करने का मन, प्रधानमंत्री कार्यालय बना चुका था।
इसी बीच संजय गांधी ने सारे कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों से कहा कि उन्हें इंदिरा गांधी के समर्थन में बड़ी रैलियां करनी हैं। बस्। चाटुकार मुख्यमंत्रियों की होड़ लग गई, कौन ज्यादा भीड़ जुटाता है, इस पर। 18 जून को दिल्ली में मुख्यमंत्रियों की बैठक बुलाकर यही संदेश दिया गया। इस बैठक में केंद्रीय मंत्री यशवंतराव चव्हाण समवेत सभी मंत्रियों ने और मुख्यमंत्रियों ने, इंदिरा जी की तारीफ के जबरदस्त पुल बांधे।
इधर विपक्षी पार्टियां भी तैयारी कर रही थी। 21 और 22 जून को जनता मोर्चा की घटक पार्टियों के कार्यकारिणी सदस्यों की बैठक दिल्ली में हुई। इसमें इंदिरा गांधी के त्यागपत्र की मांग करने के लिए राष्ट्रव्यापी आंदोलन खड़ा करने का निर्णय हुआ। जयप्रकाश नारायण जी ने इस आंदोलन में सम्मिलित होने हेतु स्वीकृति दी।
इंदिरा गांधी, संजय गांधी, बंसीलाल, आर के धवन, यशपाल कपूर यह सारे लोग इस समय प्रशासन की सर्जरी करने में लगे थे। सभी बड़े महत्व के स्थान पर संजय गांधी के खास विश्वासपात्र व्यक्ति लाने हेतु आदेश जारी हो रहे थे। विपक्ष पर निर्णायक प्रहार करने का तय हुआ। तिथि भी निश्चित हुई। इंदिरा जी की केस सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए जिस दिन आएगी, उसके दूसरे दिन विपक्ष पर अंतिम घाव करने की योजना निश्चित हुई।
20 जून को सारी सरकारी व्यवस्थाओं की मदद से कांग्रेस ने इंदिरा गांधी के समर्थन में दिल्ली में एक बड़ी रैली की। इसमें अच्छी खासी भीड़ जुटाई गई। वक्ताओं ने इंदिरा गांधी की प्रशंसा की सारी सीमाएं तोड़ दी। कांग्रेस के अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने अपने भाषण में कहा –
_इंदिरा, तेरे सुबह की जय.._
_तेरे शाम की जय_
_तेरे काम की जय_
_तेरे नाम की जय..!_
कांग्रेस के इस रैली का समाचार दूरदर्शन पर नहीं आ सका। कारण..? आई के गुजराल सूचना प्रसारण मंत्री थे, और यह रैली पार्टी की थी, सरकार की नहीं। इसलिए उन्होंने इसे दूरदर्शन पर आने से रोका।
इस बात को लेकर आई के गुजराल और संजय गांधी के बीच कहां सुनी हो गई। आखिर आई के गुजराल को सूचना प्रसारण मंत्रालय छोड़ना पड़ा। उनकी जगह लाए गए, मध्य प्रदेश के विद्याचरण शुक्ला।
इस रैली के बाद इंदिरा जी काम करने लगी, विपक्ष को समाप्त करने की स्थाई योजना पर। पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने सुझाव दिया आपातकाल का, जिसमें संविधान की धारा 19 को स्थगित रखते हुए आम नागरिकों के सभी मूलभूत अधिकार छिने जा सकते हैं। इंदिरा जी को यह पसंद आया। कानून मंत्री हरीभाऊ गोखले अब इसको कानूनी जामा पहनाने के प्रयास में लग गए।
अर्थात यह निर्णय स्वतः इंदिरा गांधी, संजय गांधी, बंसीलाल, ओम मेहता, किशनचंद, सिद्धार्थ शंकर रे और हरिभाऊ गोखले के अलावा किसी को मालूम नहीं था।
इसी बीच, 25 जून को विपक्षी दलों ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक भव्य रैली का आयोजन किया। यह रैली सभी अर्थों में भव्य थी। विशाल थी। स्वयंस्फूर्त थी। उत्साही थी। इस रैली में मोरारजी देसाई, नानाजी देशमुख, जॉर्ज फर्नांडीज, मदनलाल खुराना आदि नेताओं के भाषण हुए। समापन का भाषण किया लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने। उन्होंने पांच सदस्यों की ‘लोक संघर्ष समिति’ की घोषणा की। इसके अध्यक्ष थे मोरारजी भाई देसाई और सचिव नानाजी देशमुख।
इस सभा में जयप्रकाश जी ने जनता से एक प्रश्न किया, “देश में नैतिक मूल्यों की पुनर्स्थापना करने के लिए यदि जेल जाना पड़े तो कौन-कौन जाने के लिए तैयार है..?” सभी ने हाथ खड़े किए। (अर्थात 24 घंटे के अंदर ही सत्य स्थिति सामने आई।)
इधर, रात को इंदिरा गांधी, राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से मिलने गई। उन्हे संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत देश मे आपातकाल लगाने वाले अध्यादेश पर हस्ताक्षर करने कहा। राष्ट्रपतिजी ने भी अत्यंत निष्ठावान कार्यकर्ता के जैसा, बिना कुछ प्रश्न पूछे, रात्री मे 11.45 पर इस अध्यादेश पर हस्ताक्षर कर दिये।
बिलकुल इसी तरह, 42 वर्ष पहले हिटलर ने जर्मनी के चांसलर पॉल वॉल हिंडेनबर्ग से 28 फरवरी 1933 को एक अध्यादेश पर हस्ताक्षर करवा लिए थे। इस अध्यादेश के द्वारा जर्मनी के नागरिकों के सारे मुलभूत अधिकारों को समाप्त कर दिया गया था। इंदिरा गांधी ने हूबहू हिटलर को दोहरा दिया..!
इधर दिल्ली मे रामलीला मैदान की सभा समाप्त करके सब लोग अपने-अपने घर पहुंच कर सोने की तैयारी में लगे थे। जयप्रकाश जी भी सोने के लिए चले गए। मध्यरात्रि 1 बजे के लगभग, पुलिस के उच्च अधिकारियों ने उन्हें जगाया और कहा कि “आपको गिरफ्तार किया जाता हैं”। जयप्रकाश जी समझ गए। उन्होंने मात्र इतना ही कहा – *’विनाश काले विपरीत बुद्धि..!’*
भारत बना कारागार (जेल)
26 जून की भारत की सुबह बिल्कुल अलग थी। 28 वर्ष पहले जिस स्वतंत्रता को मुश्किल से प्राप्त किया था, वही दूर हो गई थी। अपने ही लोगों ने भारत को फिर से परतंत्र बना दिया था।
हालांकि मध्यरात्रि में घोषित आपातकाल का समाचार अभी पूरे देश में फैला नहीं था। अनेक स्थानों के समाचार पत्र प्रकाशित हो गए थे, किंतु उनमें आपातकाल का समाचार नहीं था। कुछ अपवाद भी थे। दिल्ली, चंडीगढ़ और जलंधर के अधिकतम समाचार पत्र उस दिन छप नहीं सके। कारण था, उन सब की बिजली काट दी गई थी। चंडीगढ़ के ‘ट्रिब्यून’ के कार्यालय में पुलिस घुस गई और चलती हुई प्रिंटिंग प्रेस बंद की। ‘मदरलैंड’ के कार्यालय को पुलिस ने सील किया और संपादक के आर मलकानी को गिरफ्तार किया। दोपहर / शाम को कुछ समाचार पत्रों ने सप्लीमेंट निकले। पर अनेक स्थानों पर वह जप्त किए गए।
प्रेस सेंसरशिप लग गई थी। अब समाचार पत्र या साप्ताहिक / मासिक पत्रिकाओं में एक भी शब्द सरकारी अधिकारियों की अनुमति के बिना छप नहीं सकता था। *जिस अभिव्यक्ति स्वतंत्रता को संविधान सभा की बैठकों में बाबासाहब अंबेडकर जी ने जोर-शोर से उठाया था, उसका कांग्रेस की सरकार ने गला घोट दिया..!*
इंदिरा जी का गुस्सा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर था। उन्हें लगता था कि यह संघ के स्वयंसेवक ही गुजरात और बिहार जैसे आंदोलन खड़े कर रहे हैं। इसलिए पूरे देश में आदेश थे, संघ के पदाधिकारियों को, प्रचारकों को पकड़ने के। तब तक संघ पर प्रतिबंध नहीं लगा था। वह लगा 4 जुलाई। को किंतु 26 जून को जब संघ के सरसंघचालक बालासाहब देवरस अपने पूर्व निर्धारित प्रवास पर जाने के लिए नागपुर स्टेशन पर पहुंचे, तो उन्हें गिरफ्तार कर येरवडा (पुणे) जेल में पहुंचाया गया। अटल बिहारी वाजपेई और लालकृष्ण आडवाणी को बेंगलुरु में गिरफ्तार करके वहीं के जेल में रखा गया।
किंतु फिर भी संघ के अनेक प्रचारक, कार्यकर्ता भूमिगत हो गए। नानाजी देशमुख को गिरफ्तार करने के लिए इंदिरा जी का विशेष आग्रह था। किंतु वह पुलिस के आने से पहले ही चकमा देकर निकल गए। सरकार्यवाह माधवराव मुळे भी भूमिगत हो गए। जॉर्ज फर्नांडीज, सुब्रमण्यम स्वामी, रविंद्र वर्मा आदि भी पुलिस के हाथों नहीं लगे। लगभग 45,000 से 50,000 संघ के स्वयंसेवक, कार्यकर्ता प्रारंभ के दिनों में गिरफ्तार हुए। बाद मे ये आंकडा बढता गया।
अनेक स्थानों पर पुलिस ने जुल्म ढाया। जबरदस्त अत्याचार किए। कोई कार्यकर्ता भूमिगत हुआ, तो उसके परिवार वालों को डराया, धमकाया, जेल में बंद किया। पुलिस को गिरफ्तार करने के लिए किसी आरोप की, कागजात की या वारंट की आवश्यकता ही नहीं थी। ‘मिसा’ (MISA – Maintenance of Internal Security Act) पर्याप्त था। इस कानून के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को बिना कोई आरोप या वारंट के न्यायालय में पेश न करते हुए 18 महीने जेल में बंद रखा जा सकता था। एक वर्ष पहले जब यह कानून इंदिरा जी ने लोकसभा, राज्यसभा में पारित करवाया था, तो दोनो सदनों को आश्वस्त किया था कि इस कानून का उपयोग स्मगलर्स और कालाबाजारियों के विरोध में किया जाएगा।
तु प्रत्यक्ष में क्या हुआ?
हजारों – हजारों सामाजिक कार्यकर्ताओं को, जननेताओं को, राष्ट्रभक्तों को मिसा के अंतर्गत बंद कर दिया गया। उन दिनों स्थिति ऐसी थी –
नो अपील – नो वकील – नो दलील ! सारा देश हुकुमशहा की चंगुल मे आ गया था।
28 जून को ही विद्याचरण शुक्ल सूचना प्रसारण मंत्री बनाए गए। उन्होंने संजय गांधी को आश्वस्त किया कि ‘जो आई के गुजराल न कर सके, वह मैं करके दिखाऊंगा। मैं प्रेस वालों की अकड़ उतारकर उन्हें ठिकाने लगाऊंगा’। और उन्होंने किया भी वैसे ही। पंजाब केसरी के संपादक जगत नारायण, इंडियन एक्सप्रेस के अरुण शौरी, कुलदीप नैयर जैसे वरिष्ठ पत्रकारों को गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया। पांचजन्य उन दिनों लखनऊ से प्रकाशित होता था। उसका प्रकाशन भी बंद कर दिया गया। अनेक पत्रकारों को मिसा के अंतर्गत बंद किया। संघ के मुखपत्र कहे जाने वाले नागपुर के ‘तरुण भारत’ दैनिक मे, संपादक, सह-संपादक, व्यवस्थापक, विज्ञापन प्रमुख.. सभी जेल के अंदर थे।
लेकिन अभी भी इंदिरा गांधी आश्वस्त नहीं थी। उनके चुनाव का केस सुप्रीम कोर्ट में था। यदि वहां भी इलाहाबाद हाईकोर्ट जैसा निर्णय आया, तो बहुत बड़ी गड़बड़ होगी। इस स्थिति में क्या किया जाए..? *इंदिरा गांधी ने सोचा, ‘इस समस्या को जड़ से ही समाप्त कर देते हैं। संविधान को ही बदल देते हैं। यदि संविधान में लिख देंगे कि प्रधानमंत्री पर कभी भी, किसी भी परिस्थिति में मुकदमा नहीं हो सकता, तो सारी झंझट ही समाप्त हो जाएगी’।*
बस्, संजय गांधी, बंसीलाल, ओम मेहता और अन्य दरबारी मंत्री लग गए इस काम में। आनन – फानन में संसद का सत्र बुलाया गया। 4 अगस्त को संसद में ‘चुनाव सुधार अधिनियम बिल’ पेश किया गया, जो संविधान की प्रमुख धाराओं को ही बदल दे रहा था। यह 39 वा संविधान संशोधन था। इसमें उन सारे मुद्दों को लिया गया, जिनके कारण इंदिरा जी का चुनाव रद्द हो रहा था। यह प्रस्ताव 5 अगस्त को लोकसभा में पारित हुआ। पर इसमें एक समस्या आई। इस पारित प्रस्ताव में कहा गया कि ‘भ्रष्टाचार के कारण यदि चुनाव रद्द हो रहा है, तो उम्मीदवार राष्ट्रपति को आवाहन कर सकता है। राष्ट्रपति, चुनाव आयुक्त की सलाह से निर्णय दे सकते हैं’।
यह भी गड़बड़ ही था। इंदिरा जी को तो पूरी क्लीन चिट चाहिए थी…
इसलिए तुरंत 40 वा संविधान संशोधन प्रस्तुत किया गया। इसमें प्रधानमंत्री के चुनाव संबंधी विवाद को न्यायालय के बाहर रखा गया। 7 अगस्त को यह 40 वां संशोधन लोकसभा में आया। ऐसे किसी प्रस्ताव के लिए जो कम-से-कम समय दिया जाता हैं, वह भी नहीं दिया। मात्र ढाई घंटे में यह महत्वपूर्ण प्रस्ताव पारित कराया गया। लोकसभा में विपक्ष बचा ही कहां था..?
दूसरे दिन 8 अगस्त को यही संशोधन राज्यसभा ने मात्र 1 घंटे में पारित किया। अब इसको कानूनी जामा पहनाने के लिए दो तिहाई राज्यों की विधानसभाओं ने इसे पारित करना आवश्यक था। कोई बात नहीं I दो को छोड़कर बाकी सारी विधानसभाओं में कांग्रेस बहुमत मे थी। दूसरे दिन, 9 अगस्त को आवश्यक विधानसभाओं ने इस संशोधन को पारित किया। 10 अगस्त को राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के हस्ताक्षर हुए और इंदिरा गांधी के संरक्षण का यह कानून बन गया।
इस संविधान संशोधन के लिए इतनी जल्दी क्यों की गई?
कारण, 11 अगस्त 1975 को इंदिरा गांधी के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी थी..! संविधान पर, कांग्रेस ने इतने निर्ममता से किए हुए बलात्कार को देखकर, स्वर्ग में संविधान निर्माता डॉ बाबासाहेब अंबेडकर जी की आत्मा निश्चित रूप से कांप उठी होगीI
टूट सकते हैं मगर हम…
1975 के अगस्त में, अपनी सुरक्षा के लिए संविधान संशोधन करने के पश्चात, इंदिरा गांधी और संजय गांधी लग गए अपने अगले लक्ष्य की ओर। दो बातें प्रमुखता से साध्य करना थी। एक : बचे – खुचे विपक्षियों को और संघ के स्वयंसेवकों को समाप्त करना। ऐसी दहशत निर्माण करना, कि देश के किसी भी नागरिक को सरकार के विरोध में बोलने की हिम्मत ही ना हो। और दूसरा : जनसंख्या कम करके, इस देश को सुंदर बनाना।
अभी तक जॉर्ज फर्नांडिस, नानाजी देशमुख, सुब्रमण्यम स्वामी आदि भूमिगत थे। अनेक संघ के प्रचारक सरकार के हाथ नहीं लगे थे। इनको गिरफ्तार तो करना ही था, साथ ही दहशत भी निर्माण करनी थी।
संजय गांधी कैसी दहशत निर्माण करते थे उसके उदाहरण –
7 अप्रैल 1976 के दिन, ‘दिल्ली हाईकोर्ट बार एसोसिएशन’ के चुनाव हुए। अब बार एसोसिएशन क्यों न हो, दहशत के इस माहौल में क्या और कैसे चुनाव हो सकते हैं..? इसलिए इस चुनाव में संजय गांधी के चेले डी डी चावला बड़े ही सहजता से जीत जाएंगे, ऐसा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को लग रहा था।
पर हुआ उल्टा। डी डी चावला को पटखनी देकर, दिल्ली के तिहाड़ जेल में बंद संघ के स्वयंसेवक, प्राणनाथ लेखी जीतकर आए। यही किस्सा ‘जिला बार एसोसिएशन’ में दोहराया गया। वहां पर भी कंवरलाल गुप्ता चुनकर आए।
फिर क्या था, संजय गांधी का खून खौला। उसने दूसरे ही दिन कोर्ट परिसर में बुलडोजर भेज दिए। जिला और सेशंस कोर्ट के आसपास अनेक वकीलों के कार्यालय थे। संजय के आदेश पर, उस दिन 1000 से ज्यादा कार्यालयों पर बुलडोजर चलाया गया। यह छुट्टी का दिन था। जैसे ही वकीलों को पता चला, वह भागते – दौड़ते आए, अपना सामान, कागजात बचाने। पर कुछ नहीं हो सका। पुलिस ने उन्हें बड़ी निर्ममता से लाठी मार-मार के भगाया।
वकीलों में आक्रोश निर्माण हुआ। दूसरे ही दिन, इस घटना का विरोध करने के लिए कुछ वकीलों ने, मुख्य न्यायाधीश टी वी आर ताताचारी को ज्ञापन देने का निश्चय किया। ज्ञापन देने यह 43 सीनियर एडवोकेट्स एक बस से जा रहे थे। पुलिस ने बस को रोका। सभी को गिरफ्तार किया। 24 को ‘मिसा’ में और 19 लोगों को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम में बंद किया। अगले ही सप्ताह और 700 कार्यालय ध्वस्त कर दिए गए। कुल 98 वकीलों को मिसा में बंद किया।
यह थी संजय गांधी की गुंडई! किसी की क्या हिम्मत रहेगी सरकार के विरोध में बोलने की?
कुछ करने के लिए इंदिरा गांधी ने एक 20 सूत्रीय कार्यक्रम जारी किया, तो संजय गांधी का 5 सूत्रीय कार्यक्रम था। यह कार्यक्रम अच्छे थे। किंतु इन्हें करने के लिए आपातकाल की आवश्यकता नहीं थी, और इन्हें लागू किया गया जुल्म और दहशत के आधार पर।
संजय गांधी के दिमाग में आया, दिल्ली को सुंदर करना है। तुरंत आदेश जारी हुए। नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली के बीच, दरियागंज के पहले, दिल्ली गेट और तुर्कमान गेट आदि स्थानों पर घनी बसाहट हैं। संजय गांधी के आदेश पर 13 अप्रैल 1976 को वहां बुलडोजरों की फौज खड़ी हुई। यह बैसाखी का दिन था। बस्ती में धूमधाम थी। 16 अप्रैल को स्थानिक हिंदू और मुस्लिम बुजुर्गों ने, मंत्री एचकेएल भगत से मिलकर निवेदन दिया कि हमारे घरों को ना गिराया जाए। मंत्री जी ने आश्वस्त भी किया।
किंतु 19 अप्रैल से बुलडोजर आगे बढ़ने लगे। उन्हें रोकने के लिए सारी बस्ती सड़क पर उतर आई। दोपहर को पुलिस ने जमा हुई भीड़ पर लाठी भांजना चालू किया। आंसू गैस के गोले भी फोडे। किंतु क्या पुरुष, क्या महिला, क्या बच्चे… कोई भी हिलने तैयार नहीं।
इस घटना से कुछ दूरी पर पर्यटन विभाग का एक सरकारी होटल था – होटल रणजीत। चार सितारा होटल। इस होटल के सामने के हिस्से में, चौथी मंजिल पर एक कमरा था। उसमें संजय गांधी, रुखसाना सुल्ताना के साथ बैठे हुए दूरबीन से यह सारा दृश्य देख रहा था। उसके पास वॉकी-टॉकी भी थी। जब भीड़ नहीं हट रही यह संजय गांधी ने देखा, तो कहते हैं उसने पुलिस आयुक्त को गोली चलाने के आदेश दिए।
और फिर जो रणक्रंदन तुर्कमान गेट पर हुआ, उसे देखकर जलियांवाला बाग के नरसंहार की याद आ गई। 14 बुलडोजर लोगों को रौंदते हुए अंदर घुसे। 1000 से ज्यादा घर जमींदोज किए गए।। 150 से ज्यादा लोग मारे गए। कुचले गए। पुलिस ने वहां के रहवासियों को न सिर्फ बुरी तरीके से पिटा, वरन् उनका बचा–खुचा माल भी लूट कर ले गए। अगले 45 दिन, तुर्कमान गेट परिसर कर्फ्यू में कराह रहा था..!
जो व्यक्ती, मंत्री, सांसद, विधायक तो छोड़िए, साधारण पार्षद भी नहीं था, ऐसे संजय गांधी की दबंगई ऐसे चलती थी I (इस दुर्दांतक, भयानक घटना के बारे में एक अक्षर भी समाचार पत्रों में नहीं छप सका। सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल की दबंगई भी ऐसी ही थी)
संजय गांधी के दिमाग का दूसरा कीड़ा था – नसबंदी। इस नसबंदी की मुहिम ने इतना आतंक मचाया, की लाखों पुरुषों का जीवन बर्बाद हुआ। अनेकों ने इसके कारण आत्महत्या की।
इंदिरा गांधी के चुनाव क्षेत्र, रायबरेली के पास, सुल्तानपुर का किस्सा – यहां के नारकादि गांव में जबरन नसबंदी करने के विरोध में जब गांव वाले इकट्ठा हुए, तो पुलिस ने उन पर गोली चलाई। 13 लोग मारे गए। सैकड़ो जख्मी हुए। पास के एक गांव में 25 लोग गोली से उड़ा दिए गए। अनेक हमेशा के लिए अपाहिज बन गए। पूरे उत्तर भारत में जबरन नसबंदी कार्यक्रम में सैकड़ो लोग, पुलिस की गोली के शिकार हुए। राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने, संजय गांधी के सामने अपने आप को साबित करने के लिए नसबंदी यह माध्यम माना। लक्ष्य से भी ज्यादा नसबंदी ऑपरेशंस अनेक राज्यों ने किए।
देश में दहशत का वातावरण था। न्यायालय में जाने का कोई रास्ता नहीं था, क्योंकि कोई सुनवाई ही नहीं थी। आपातकाल में बंद सारे कैदी, राजनीतिक बंदी थे। उन्हें उसी प्रकार की सुविधाएं अपेक्षित थी। किंतु कहीं भी उनका पालन नहीं हुआ।
ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया और जयपुर की महारानी गायत्री देवी को दिल्ली के तिहाड़ जेल मे, एक गंदी कोठडी में रखा। उनके साथ वेश्याएं और गुनहगार स्त्रियों को रखा गया, ताकि इन दोनों राजपरिवार की स्त्रियों का मनस्वास्थ्य खराब हो।
ऐसे निराशाजनक वातावरण में, बेंगलुरु के कारागृह से अटल बिहारी वाजपेई जी ने एक कविता लिखी, जो चोरी छिपे भूमिगत पत्र को के माध्यम से सारे समाज में पहुंचने लगी। इस कविता ने उन दिनों कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा रखा था –
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते..
सत्य का संघर्ष सत्ता से,
न्याय लड़ता निरंकुशता से,
अंधेरे ने दी चुनौती है,
किरण अंतिम अस्त होती है।
दीप निष्ठा का लिए निष्कम्प,
वज्र टूटे या उठे भूकंप,
यह बराबर का नहीं है युद्ध,
हम निहत्थे, विरोधी है सन्नद्ध
हर तरह के शस्त्र से है सज्ज,
और पशुबल हो उठा निर्लज्ज।
किंतु फिर भी जूझने का प्रण,
पुन: अंगद ने बढ़ाया चरण,
प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार,
समर्पण की मांग अस्वीकार।
दांव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते।
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते!
test