चुनौती बड़ी है, पर हम तैयार
आज भी भारत रक्षा में ‘तोल-मोल’ की रणनीति पर है। रूस से एस-400, फ्रांस से राफेल, अमेरिका से ड्रोन व इंजन और साथ ही स्वदेशी तेजस व AMCA। लक्ष्य स्पष्ट है
नया भारत अब तय कर रहा है कि वैश्विक शक्ति संतुलन की घड़ी किस दिशा में चलेगी। हाल में जर्मन अख़बार Frankfurter Allgemeine Zeitung ने रिपोर्ट दी कि अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के कई ‘फोन कॉल्स’ प्रधानमंत्री मोदी तक नहीं पहुंचे। पुष्टि चाहे न हो, लेकिन यह प्रसंग प्रतीक है, भारत अब केवल मूक दर्शक या ‘प्यादा’ नहीं, बल्कि भू-रणनीतिक खेल का सक्रिय खिलाड़ी है।
वैसे, कहानी कहीं गहरी है। अमेरिका ने भारत पर भारी टैरिफ लगाया और रूस से तेल खरीद को कारण बताया। किंतु विषय इससे कहीं व्यापक है। भारत ने जीएम फूड, डेयरी और बायोटेक पर कड़े नियम बनाए हैं, जिन्हें वाशिंगटन लगातार ‘मार्केट एक्सेस बाधा’ कहता है। यह केवल व्यापारिक झगड़ा नहीं, बल्कि भारत की नीतिगत ‘सीमा रेखा’ है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह बात स्पष्ट कर दी है।
भारत-अमेरिका संबंध हमेशा सीधे-सरल नहीं रहे। शीत युद्ध में भारत ने गुटनिरपेक्षता चुना, पोकरण परीक्षण के बाद प्रतिबंध झेले, फिर 123 एग्रीमेंट ने सहयोग का नया दौर खोला। 1971 में अमेरिका का सातवां बेड़ा और रूस का प्रतिरोध अब भी इतिहास में दर्ज है। यही अनुभव बताते हैं कि महाशक्तियों के साथ रिश्ते स्थायी सहयोग के नहीं, स्थायी हितों के होते हैं।
आज भी भारत रक्षा में ‘तोल-मोल’ की रणनीति पर है। रूस से एस-400, फ्रांस से राफेल, अमेरिका से ड्रोन व इंजन और साथ ही स्वदेशी तेजस व AMCA. लक्ष्य स्पष्ट है, किसी एक पर निर्भरता नहीं। यही नीति ऊर्जा में भी दिखती है। चाहे रूस से सस्ता तेल खरीद हो (36 प्रतिशत आयात), मध्य-पूर्व से गैस-क्रूड समझौते हों या वैश्विक बाजार को संतुलित रखने में प्रभावी भूमिका। आज दुनिया में यह बात हो रही है कि केवल 2024 में ही भारत ने 10 अरब डॉलर से अधिक की बचत की और ब्रेंट ऑयल कीमतों को स्थिर रखने में विश्व की मदद की।
पर इसका दूसरा पहलू है। वित्त वर्ष 2025 में भारत सरकार रिकॉर्ड 11.11 लाख करोड़ रुपये का पूंजीगत व्यय कर रही है, इससे वित्तीय अनुशासन पर दबाव बढ़ेगा। इसके बाद भी ‘डिजिटल पब्लिक इन्फ्रास्ट्रक्चर’ (यूपीआई, ओएनडीसी, 5जी, सेमीकंडक्टर पहल व नीतियां) और हरित ऊर्जा भारत को दीर्घकालिक आत्मविश्वास देती हैं।
अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत केवल अमेरिका से टकराव या सहयोग का पात्र नहीं है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्वाड, फ्रांस के साथ रणनीतिक साझेदारी, ब्रिक्स में युआन-दरहम व्यापार और ग्लोबल साउथ सम्मेलन-ये सब भारत को बहुध्रुवीय शक्ति का चेहरा बना रहे हैं। यूरोप भी अब भारत को चीन के संतुलन के रूप में देख रहा है, विशेषकर फ्रांस, जो रक्षा व परमाणु साझेदारियों को गहरा कर रहा है।
अमेरिका की राजनीति में अंतर साफ है। रिपब्लिकन संबंधों को ‘Transactional’ मानते हैं, जबकि डेमोक्रेट्स उन्हें ‘Value-based’ कहते हैं, पर दबाव दोनों डालते हैं। ट्रंप गुट के सलाहकार कभी भारत को ‘क्रेमलिन’ का ‘पिट्ठू’ बताते हैं, तो कभी अपना ‘अनिवार्य सहयोगी’ भी मानते हैं। यह विरोधाभास ही दर्शाता है कि भारत की अनदेखी करना अब असंभव है।
इस पूरी बहस में ‘मिस्ड कॉल’ प्रसंग बस प्रतीक है। असल संदेश यही है, भारत अब हर सौदा अपनी शर्तों और बराबरी पर करेगा। रूस, अमेरिका, फ्रांस या कोई और बातें होंगी, किंतु सबसे पहले होगी-बात भारत की!
अतिशय दृढ़ता की मांग करने वाली यह राह सुगम नहीं है। यह चुनौतिपूर्ण राह भारत ने स्वयं चुनी है-
श्रुतं चैव यत्कण्टकाकीर्णमार्गम्
स्वयं स्वीकृतं नः सुगंकारयेत्।
संकल्प के साथ सावधानीपूर्वक बढ़ने वालों की जय होती है। जय हो!
X@hiteshshankar
पंचजन्य