रजिन्द्र बंसल
कई दिनों से मन उदास, उद्वेलित व आक्रोश के दौर से गुजर रहा है। मेरे मन मस्तिष्क में मेरे गुरुदेव विख्यात राष्ट्रीय कवि श्रेय सारस्वत मोहन मनीषी कि ये पंक्तियाँ रह रह कर याद आ रहीं हैं। व बार बार कानों में गूंज रही थी।
मन की व्यथा-कथा का ओर न कोई छोर है,
लेकिन कोई सुनने तैयार नहीं।
इतने छाले हुये फसल से पांवों में,
कोई कांटा चुभने को तैयार नहीं।।
दशकों पहले सुनी इन पंक्तियों के बार बार याद आने से अशांत मन के सागर में विचार ज्वार की तरह उठ रहे हैं। कभी उद्वेलित मन के किनारों पर कुछ नया छोड़ जाते हैं। कभी इतिहास व वर्तमान के किनारों पर जमी धूल व स्वार्थ की गन्दगी को बहा ले जाते हैं। जो मुझे इतिहास की वेदनाओं गलतियों व वर्तमान में कमियों को सुधारने के प्रयासों पर राजनैतिक अघातों से साफ साफ रूबरु करवा रहे हैं। जिसके सहारे मैं सी ए ए की जरुरत व इसकी खिलाफत को सन सन्तालिस के बंटवारे में उजड़े लोगौं की व्यथा, व वर्तमान में पाकिस्तान की जेहादी मानसिकता से प्रताड़ितों को दशकों से भारत में नागरिकता की चाह पाले अनगिनत लौगों के रेतीले टीलों में मानवता को तलाश रहा हूं। ये तलाश कर भी जारी थी, आज भी जारी है, और कल भी जारी रहेगी।
इसी तलाश में यायावर बन घूमते घूमते मेरा सामना सन 1947 की एक दर्द आक्रोश व साहस भरी दास्तान से हुआ। जिसके सूत्रधार थे वर्तमान में कैथल के पास गांव में रहने वाले पंडित ऋभु दत्त आर्य।
सहसा पंडित ऋभु दत्त जी से मिला तो पता चला कि वो 1947 में बंटवारे के बाद पाकिस्तान से उजड कर आये थे। मैं उनके दर्द भरी दास्तान विस्तार से सुनना चाहता था। सो उन्होने आपबीती शुरु की। उस समय उनकी आंखों में दर्द, वेदना के साथ साथ उनके पिता के गौरवमयी हौसले का गर्व भी था।
अतीत की यादों में गोते लगाते हुये ऋभु दत्त बोले – उस समय वह पांच वर्ष के थे। उनका गांव आर्यनगर चक नंबर 10 आर 77 तहसील खानेवाल का हिस्सा था। जिसका नाम पाकिस्तान ने बदल कर इस्लाम नगर कर दिया। आर्य नगर की आबादी 7000 के करीब थी। व सभी विभिन्न जातियों के हिन्दु सिख थे। लगभग 1250 घर थे। सभी सम्पन्न थे। आर्य समाज द्वारा बसाये जाने के कारण गांव में सभी आर्यसमाजी थे। इनके पिता वहां के आर्य समाज के पुरोहित थे। गांव में एक कुंआ था। उसके चारों और पानी के हौद बने हुये थे। पानी भरने को टूटियां लगी हुईं थी। जहां से सभी जाति पाति के भेद के बिना पानी भरने आते थे।
कुऐं से ऊपर जा रहट लगा हुआ था। जो सिंचाई के लिए नहर से सिंचाई के लिए पानी खींचता था। उसके ऊपर एक बहुत बड़ा घंटा लगा हुआ था। जिसे एक आदमी पानी की सिंचाई की बारी की सूचना के लिये या संभावित खतरे की सूचना के लिए अलग अलग ढंग से घंटा बजाता था। गांव सुव्यवस्थित ढंग से बसाया गया था। उनके पिता गांव के मुखिया थे। 25-12-1931 तत्कालीन गवर्नर डायर (जनरल डायर नहीं) गांव देखने आये। गांव देखकर उसने गांव की व गांव के मुखिया की खूब प्रशंसा की।
वो आगे बतलाते हैं कि जब बंटवारे की घोषणा हो गई तो हल्ले मचने शुरु हो गये थे। घंटे वाला जब भी कोई खतरा होता निर्धारित ढंग से घंटा बजाता। व पुरूष छाती पर तवों की ढाल बांध तलवारें ले कर गलियों में आ जाते। औरतें घरों को बन्द कर छत्तों पर चढ़ जाती। जहां ईंट पत्थर व घासलेट रखा रहता था। औरतों के जिम्मे काम था अगर कभी बलवाई आयें तो ऊपर से ईंट पत्थर मारें। परमात्मा न करे कि कभी सारे हिन्दु पुरुष मारे जायें तो वो घासलेट छिड़क बच्चों समेत आत्मदाह कर लें।
आखिरकार बंटवारा हो गया। 14 अगस्त 1947 को उनका गांव पाकिस्तान का हिस्सा बन गया। फिर भी उनके गांव से एक भी व्यक्ति गांव छोड़ भारत नहीं आया। क्योंकि उनके पिता कहा करते थे कि राज बदला करते हैं प्रजा नहीं। पर बात यहां खत्म नहीं हुई। एक दिन अचानक 29 – 9-1947 को मुल्तान के डी सी व एक आर्मी आफिसर उनके पिता के पास आये और बोले कि हालात बदत्तर हो रहे हैं। आप 2 घंटे में पूरा गांव खाली करदो। इनके पिता ने कहा कि ये कैसे हो सकता है। बहुत से लौग खेतों में हैं या काम से बाहर हैं। सब 2 घंटे में कैसे होगा। आर्मी आफीसर बोला – पंडित जी मेरे को नहीं पता। दो घंटे तक तो हम आपकी हिफाजत कर सकते हैं। उसके बाद हमारी कोई जिम्मेदारी नहीं। तब उनके पिता डी सी व आर्मी आफिसर से बोले-लाहनत है ऐसी सरकार पर जो अपनी रियाया की हिफाजत न कर सके। राज बदला करते हैं पर रियाया नहीं बदली जाती। जबाब सुन आर्मी आफीसर बोला-आफरीन पण्डित जी, जो इतने खतरे में भी इस तरह बात कर रहे हो। फिर भी आपके पास गांव छोडने को दो घंटे का समय है। आप गांव छोड़ दें आपकी हिफाजत पूरी की जायेगी।एक बात और पण्डित जी आपको मारने को दंगाई आपको ढूंढ रहे हैं। सो आप इस बात का ध्यान करें।
तब गांव के सभी लोग सिर्फ नकदी जेवर ले घरों में ताले लगा पशु डंगर वहीं छोड़ खानेवाल(तहसील हैडक्वाटर) केम्प की और चल दिये। ऋभु दत्त आगे बतलाते हैं कि वे पांच भाई बहिनों में चोथे नंबर पर थे। उस समय वो पांच साल के थे। तेज बुखार भी था। उन्हे व उनके परिवार को किसी ने भी अपनी बैल गाड़ी में नहीं बिठाया। किसी तरह उनका काफिला व परिवार 10 मील चल कर खानपुर रिलीफ कैम्प में आ गये। जहां वो अटारी तक जाने के लिये अपनी बारी के इंतजार में थे। उनके पिता दंगाइयों की हिटलिस्ट में थे। आर्य समाज के नेता भी थे। सो वो परिवार को सुरक्षित वहां पंहुचा बाकी फंसे हिन्दुओं को सुरक्षित निकालने को अंडरग्राउंड हो काम में जुट गये।
आखिर करीब एक महीने बाद उनके काफिले का नंबर आया। उनके पिताजी भी बीच बीच में उनके पास आते रहे। व उस दिन भी आ गये। पूरा काफिला ट्रेन में बैठा। वह आर्मी आफीसर भी अटारी तक आया व बोला पण्डित जी मैने आप सबको हिफाजत से अटारी तक पहुंचा दिया। अब आगे की आप जानो। इसके बाद अटारी से ये लौग कैथल आ गौशाला में बने रिलीफ कैंप में रहे। पांच छः महीने बाद पास ही गांव में जमीन एलाट होने पर भारत में पले बढ़े। वो आगे बतलाते हैं कि अक्सर अपने पिता के पास बैठ आर्यनगर 10 आर 77 गांव का नक्शा बना अपने व अपने रिश्तेदारों के घरों की निशान देही करते रहते। अपने गांव व जन्मभूमि को याद करने में अलग ही आन्नद मिलता था।
उन्होंने ये भी बतलाया कि उनके साथ लगता गांव शांतिनगर था। जो पूरे का पूरा इसाई गांव था। उस गांव के सभी लौग वहीं रहे। आजकल जो इसाईयों पर जुल्म हो रहे हैं। वो सभी उसी इलाके की घटनाएं हैं।
ये तो था 1947 का दर्द। परन्तु पाकिस्तान के गैर मुस्लिमों का दर्द व उत्पीडन कभी खत्म नहीं हुआ। पिछले दिनों C S C S ( सैंटर फार सोशियो कल्चरल स्टडी) पंजाब की मीटींग में पाकिस्तान से आये कुछ लौगों से मिलना हुआ। जो 1990 के बाद से पाकिस्तान में धार्मिक कारणों से प्रताडना से त्रस्त हो भारत में नागरिकता के इंतजार में हैं।
उनमें से एक ने बताया कि वह सियालकोट का रहने वाला है। उनके इलाके में म्युनिसिपल काऊंसलर से ऊपर कोई भी हिन्दू सिख चुनाव नहीं लड़ सकता। हिन्दू बच्चों को केवल और केवल उर्दू में ही शिक्षा दी जाती है। कुरान की शिक्षा भी अनिवार्य है। हिन्दु लडकियों को जबरदस्ती उठा उनका धर्म परिवर्तन करा मुस्लिम लडकों से उनके निकाह आम बात है। जो लौग ज्यादा गरीब हैं वो तो मजबूरी व डर से अपनी लड़कियों का निकाह मुस्लिमों से करवा देते हैं। उसने बताया कि उनके वहां 70-80 अखरोट के पेड थे। जिनसे अच्छी खासी कमाई थी। परन्तु धर्म के आधार पर प्रताडना व भेदभाव असहनीय था। उसके सामने दो रास्ते थे। एक तो इस्लाम वहाः मजे करता। या धर्म इज्जत व जान बचाने के लिए सब वहीं छोड किसी तरह भारत आ जाता। सो उसने किसी तरह वीजा लगवा भारत में आने को तरजीह दी।
एक ने बताया कि वहां संकट केवल लड़कियों पर ही नहीं अपितु बच्चों व जवान होते लडकों को भी उठा उनसे जबरदस्ती कुकर्म किया जाता है। वो लड़के या उनके घर वाले शर्म के मारे कहीं भी शिकायत नहीं करते।
एक और नए बताया कि उसकी साली को कुछ लौग उठा ले गये। व उसका धर्म परिवर्तन करवा जबरदस्ती उसका निकाह किसी मुस्लिम से करवा दिया। वह भी वीजा ले भारत आ गया और नागरिकता मिलने के इंतजार में है।
इन सभी ने बताया कि वो की सालों से बार बार वीजा रिन्यू करवा रहे हैं। कईयों को तो पासपोर्ट एक्सपायर होने पर वो भी रिन्यू करवाने पड़े। जिन पर समय के साथ साथ खर्च भी काफी होता है। वैसे भी भारतीय दूतावास से वीजा आसानी से नहीं मिलता। अब सी ए ए आने से उन्हें आशा की किरण दिखाई दी थी। कि उनका आने वाला कर उज्जवल होगा। पर राजनीति के राहू केतु व भारत के जेहादी कट्टर मुल्ले उनकी उम्मीदों के सूरज पर ग्रहण बनने को आतुर हैं।
लाख टके का प्रश्न है कि पाकिस्तान में प्रताड़ित हिन्दु सिख बौद्ध जैन अगर भारत में शरण ले नागरिकता नहीं लेगा तो कहां जायेगा। आखिर 1947 के बंटवारे में इनको भारत ही तो मिला था। पर अफसोस की वोटबैंक की राजनीति के चलते यहां भी जेहादी व वोट बैंक के सोदागर सैकुलर उन्हें भारत में भी आने से रोकने में लगे हैं।
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