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राष्ट्रधर्म – भारत के आत्मगौरव और आत्मचिंतन का संगम

May 27, 2025 By Guest Author

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स्वामी विशालानन्द

जब समय का चक्र एक बार फिर भारत को विचार और संघर्ष के दोराहे पर खड़ा करता है, तब यह स्वाभाविक है कि हमारी आत्मा प्रश्न पूछती है—क्या हम सही दिशा में जा रहे हैं? क्या आज की नीतियाँ धर्मसंगत हैं? क्या युद्ध की आशंकाओं के बीच भी हम अपने मूल्यों से विचलित नहीं हो रहे?

शांति की पुकार आज चारों ओर गूंज रही है—और यह शुभ संकेत है। लेकिन यह स्मरण करना होगा कि शांति केवल एक भावना नहीं है; यह विवेक, साहस और समय की गहन परीक्षा के बाद अर्जित की जाने वाली स्थिति है। और कभी-कभी, इस शांति की रक्षा के लिए युद्ध भी आवश्यक होता है।

हमारे शास्त्रों में धर्म और अधर्म की रेखाएं स्पष्ट रही हैं। श्रीराम और रावण, पांडव और कौरव—यह संघर्ष केवल व्यक्तिगत नहीं था, यह उस शाश्वत संघर्ष का रूप था जो सत्य और असत्य के मध्य चलता है।

रामायण केवल एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, नीति, नेतृत्व और कर्तव्य का जीवंत शास्त्र है। जब वीर अंगद रावण के दरबार में खड़े होते हैं, जब श्री हनुमान लंका दहन करते हैं, तब वे कोई लघु भूमिका नहीं निभा रहे होते—वे नीति और धर्म के गहन प्रतिनिधि बनते हैं। और यह भी तथ्य है कि दोनों पहले ‘शांति’ का प्रस्ताव लेकर ही लंका गए थे। उन्होंने प्रयास किया कि युद्ध न हो। श्रीराम का आदेश था कि संवाद से समस्या सुलझे। पर जब अधर्म टिका रहा, जब रावण न झुका, तब शस्त्र उठाना ही धर्म बन गया।

यह सनातन मर्यादा है—पहले नीति, फिर युक्ति, और अंत में शक्ति।

आज भारत एक निर्णायक मोड़ पर है। नीति और कूटनीति के स्तर पर कठोर निर्णय लिए जा रहे हैं। कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि समाज का एक वर्ग, विशेषकर बौद्धिक तबका, इन निर्णयों को लेकर असहज हो रहा है। शांति के नाम पर भ्रम और संशय फैलाया जा रहा है। किंतु क्या यह उचित है?

यह वही समय है जब हमें रामचरितमानस की उन पंक्तियों को गहराई से समझने की आवश्यकता है, जिन्हें गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा:

“नृप मर्यादा रामु नहिं तोरी।
धर्मपाल रघुपति दृढ़ जोरी॥”

इन शब्दों में श्रीराम के नेतृत्व की सबसे बड़ी विशेषता को रेखांकित किया गया है—उन्होंने कभी भी राजधर्म या मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया। परिस्थितियाँ चाहे जितनी भी प्रतिकूल रही हों, उन्होंने सदैव धर्म को दृढ़ता से थामा और उसे निभाया।

आज जब नेतृत्व श्रीराम जैसे आदर्शों को धारण कर रहा हो—सत्य, करुणा और मर्यादा की पुनर्स्थापना का प्रयास कर रहा हो—तो उस नेतृत्व के साथ खड़े होना स्वयं धर्म के साथ खड़े होने के समान है। संशय तब उचित होता है जब नेतृत्व स्वार्थ, असत्य या अन्याय के मार्ग पर हो। पर जब नेतृत्व धर्मनिष्ठ हो, तब संशय नहीं, समर्पण अपेक्षित होता है।

किंतु समस्या यह है कि आज का समाज अपने भीतर के विभीषण और अंगद को पहचानने से कतरा रहा है। हम गिलहरी की तरह छोटे योगदान से भी डर रहे हैं, जबकि वह गिलहरी ही रामसेतु का अभिन्न भाग बन गई।

हम भूल रहे हैं कि धर्म और प्रेम भी तभी स्थिर हो सकते हैं जब उनके पीछे निर्णायक शक्ति हो। वह शक्ति जब धर्मपरायण नेतृत्व के हाथों में हो, तब उसका विरोध केवल मूढ़ता नहीं, अधर्म के समर्थन में चुप रहना बन जाता है।

आज हमें आवश्यकता है विवेक की—जो धर्म और अधर्म में भेद कर सके। आवश्यकता है उस नैतिक स्पष्टता की, जो स्पष्ट कर सके कि जब नेतृत्व धर्म की राह पर हो, तब उसके साथ खड़ा होना ही राष्ट्रधर्म है।

रामधारी सिंह दिनकर ने इसी भावना को शब्द दिए:

“सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है,
बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है।”

क्या यह केवल भूतकाल की बात है? नहीं। आज अमेरिका जैसे देश अपने सैनिकों, नेताओं और शौर्यगाथाओं को बच्चों को पढ़ाते हैं। लिंकन, चर्चिल और रुझवेल्ट के भाषणों में राष्ट्र, नीति और बल का अद्भुत समन्वय होता है। भारत कब वीर हनुमान, विभीषण और अंगद को आधुनिक संदर्भों में पढ़ाना शुरू करेगा?

क्या हम युद्ध के पक्षधर हैं? नहीं। हम नीति के पक्षधर हैं। पर जब नीति की रक्षा के लिए युद्ध अपरिहार्य हो, तब उसका समर्थन धर्म है। श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को यही समझाया था।

आज का भारत आत्मगौरव और आत्मचिंतन के संगम पर खड़ा है। नीति का सेतु बन रहा है। और हर भारतवासी से यह अपेक्षा है कि वह उस गिलहरी की तरह अपना योगदान दे।

लेकिन दुर्भाग्य है, कुछ लोग उस नेतृत्व पर प्रश्न उठा रहे हैं जो धर्म-संस्कृति की रक्षा में संलग्न है। यह वैचारिक भ्रांति नहीं, वैचारिक आत्मवंचना है। शांति तब तक ही वरणीय है जब तक वह अधर्म की पोषक न बन जाए। वरना यह केवल कायरता है।

“बिनु भय होइ न प्रीति।”—यह तुलसीदास की पंक्ति केवल व्यक्तिगत संबंधों की नहीं, सत्ता और समाज की भी है। जब न्याय के साथ शक्ति नहीं हो, तो नीति केवल एक प्रदर्शन बनकर रह जाती है।

आज समय आ गया है कि भारत का युवा अंगद की तरह अडिग हो, हनुमान की तरह मर्यादित शक्ति धारण करे, और उस गिलहरी की तरह अपना धर्म निभाए—क्योंकि आने वाली पीढ़ियाँ पूछेंगी कि जब राष्ट्र धर्म संकट में था, तब तुम क्या कर रहे थे?

पूज्य गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी ने कहा है:

“जिसकी जैसी बनी भूमिका, उसको आज निभाना है,
गिद्ध, गिलहरी, वानर, भालू सा जौहर दिखलाना है।”

यह राष्ट्रधर्म का काल है। यह धर्म और अधर्म के बीच निर्णायक मोड़ है। और यही वह समय है जब विचारों की अस्पष्टता, बौद्धिक जड़ता और नैतिक भय को त्याग देना चाहिए।

ध्यान रखें—

जब नेतृत्व श्रीराम जैसा हो, तब संशय नहीं, समर्पण धर्म है।
जब नीति अधर्म के विरुद्ध खड़ी हो, तब तटस्थता भी पाप है।

यह लेख नहीं, यह आह्वान है। भीतर के हनुमान को जगाने का, अंगद को दृढ़ करने का, और श्रीराम के नेतृत्व में बिना विचलित हुए धर्मयुद्ध में योगदान देने का।

अब प्रश्न यह नहीं है कि क्या युद्ध होगा, प्रश्न यह है कि क्या हम धर्म के साथ खड़े होंगे?

(लेखक सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण और जेल सुधार क्षेत्र में सक्रिय एक सन्यासी हैं। यह उनके निजी विचार हैं)


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Filed Under: National Perspectives Tagged With: Bharat, indian culture, rashtrdharam, sanatan

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