ओडिशा के पुरी में भगवान जगन्नाथकी रथ यात्रा का 7 जुलाई से शुभारंभ हो गया है। यह यात्रा हर साल आषाढ़ महीने के शुक्ल पक्ष की द्वितीया से शुरू होकर दशमी तक चलती है। इस यात्रा में देश-विदेश से लाखों की संख्या में भक्तों की भीड़ उमड़ती है। इस रथ यात्रा में शामिल होने का पुण्य 100 यज्ञों के बराबर माना जाता है। आइए जानते हैं कैसे हुई थी इस यात्रा की शुरुआत और क्या है इसका इतिहास।
कैसे हुई जगन्नाथ रथ यात्रा की शुरुआत?
मान्यताओं के अनुसार, जगन्नाथ रथ यात्रा की शुरुआत 12वीं से 16वीं शताब्दी के बीच हुई थी। एक बार भगवान जगन्नाथ की बहत सुभद्रा ने नगर घूमने की इच्छा जताई थी। उसके बाद भगवान जगन्नाथ और उनके बड़े भाई बलराम ने तीन भव्य रथ तैयार कराए और उन्हीं से तीनों नगर भ्रमण पर गए थे। रास्ते में तीनों अपनी मौसी के घर गुंडिचा भी गए और वहां 7 दिन रुक कर वापस पुरी लौट आए। उसके बाद से यह यात्रा जारी है।
कैसे हुई थी जगन्नाथ मंदिर की स्थापना?
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, द्वारिका में कृष्ण के अंतिम संस्कार के समय बलराम बहुत दुखी थे और वह कृष्ण के पार्थिव शरीर को लेकर समुद्र में जल समाधी लेने चल दिए। उनके पीछे बहन सुभद्रा भी चल पड़ृी। ठीक उसी समय पुरी के राजा इंद्रुयम्न को सपना आया कि भगवान का मृत शरीर पुरी के तट पर तैरता हुआ मिलेगा। उसके बाद वह एक भव्य मंदिर का निर्माण कराएंगे और उसमें कृष्ण, बलराम और सुभद्रा की मूर्तियां स्थापित की जाएंगी।
राजा इंद्रुयम्न ने अधूरी मूर्तियों को ही कराया मंदिर में स्थापित
सपना सच होने पर राजा इंद्रुयम्न ने मंदिर निर्माण कराकर भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा की मूर्तियां बनवाने की सोची। उसी समय भगवान विश्वकर्मा बढ़ई के रूप में आए और उन्होंने राजा को चेतावनी दी कि रोक-टोक करने पर वह कार्य अधूरा छोड़कर चले जाएंगे। कुछ महीनों बाद तक भी मूर्तियों के न बनने पर राजा ने मंदिर का दरवाजा खुलवा दिया और विश्वकर्मा अधूरी मूर्तियां छोड़कर चले गए। उसके बाद राजा इंद्रुयम्न ने अधूरी मूर्तियां ही स्थापित करा दी।
प्रत्येक 12 साल में बदली जाती हैं मूर्तिया
जगन्नाथ मंदिर में हर 12 साल के बाद भगवान की तीनों पुरानी मूर्तियों की जगह विशेष अनुष्ठान के साथ नई मूर्तियां स्थापित की जाती हैं। सबसे बड़ी बात है कि नई मूर्तिओं की संरचना भी अधूरी ही होती है।
क्यों खास है जगन्नाथ मंदिर?
जगन्नाथ मंदिर भारत में चार कोनों में स्थित पवित्र मंदिरों में से एक हैं और इन चारों को चार धाम यात्रा में गिना जाता है। तीन अन्य मंदिर दक्षिण में रामेश्वरम्, पश्चिम में द्वारका और उत्तर में बद्रीनाथ है। शायद ही पूरे विश्व में जगन्नाथ मंदिर को छोड़कर ऐसा कोई मंदिर होगा जहां भगवान कृष्ण, बलराम और सुभद्रा तीनों भाई-बहन की मूर्तियां एक साथ स्थापित हों। ऐसे में इस मंदिर की पूरी दुनिया में विशेष महत्व है।
यात्रा में कैसे होता है रथों का क्रम?
रथ यात्रा में सबसे आगे बलराम, बीच में सुभद्रा और सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ का रथ होता है। बलराम का रथ ‘तालध्वज’ लाल-हरे रंग का होता है। सुभद्रा के रथ को दर्पदलन या पद्म रथ कहा जाता है। यह काले, नीले और लाल रंग का होता है। भगवान जगन्नाथ के रथ को नंदीघोष या गरुड़ध्वज कहा जाता है। यह लाल और पीले रंग का होता है। नंदीघोष, तालध्वज और दर्पदलन की ऊंचाई क्रमश: 45.6, 45 और 44.6 फिट होती है।
रथों में नहीं किया जाता है किसी भी धातु का इस्तेमाल
तीनों रथ नीम की पवित्र और परिपक्व लकड़ियों से बनाए जाते हैं, जिसे दारु कहते हैं। इसके लिए नीम के स्वस्थ और शुभ पेड़ की पहचान करने की परंपरा है। इस कार्य के लिए एक विशेष समिति गठित होती है। लकड़ी काटने के लिए सोने की कुल्हाड़ी से कट लगाने की परंपरा है। खास बात है कि तीनों रथों के निर्माण में किसी भी प्रकार के कील या कांटे या अन्य किसी धातु का इस्तेमाल नहीं किया जाता है।
रथों के तैयार होने पर किया जाता है अनुष्ठान
तीनों रथों के तैयार होने पर ‘छर पहनरा’ अनुष्ठान किया जाता है। इसके लिए पुरी के गजपति राजा पालकी में यहां आते हैं और तीनों रथों की पूजा करते हैं। इसी तरह सोने की झाडू से रथ मंडप और रास्ता साफ किया जाता है।
सौजन्य : हिन्दू न्यूज
भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा में दिखती है इतिहास और परंपरा की झलक
रांची में रथयात्रा के दिन इतिहास और परंपरा की अनोखी झलक देखने का अवसर मिलता है. जिले के रातू, तोरपा, इटकी और जरियागढ़ में आज भी राजपरिवारों व जमींदारों की परंपरा जीवंत है, जो अपने इलाकों में हर साल रथ यात्रा निकालते हैं. इटकी में रथयात्रा की यह परंपरा 250 सालों से चल रही है.
रथयात्रा के दिन पूरी रांची महाप्रभु जगन्नाथ की भक्ति में लीन दिखती है. इस दिन जिले के अलग-अलग इलाकों से प्रभु की रथयात्रा निकाली जाती है, जिसमें इतिहास की झलक नजर आती है. यहां राज परिवार और जमींदारों की परंपराओं को आज भी जीवंत रखा गया है. रांची के रातू, जरियागढ़, तोरपा और इटकी में ऐतिहासिक वर्षों पुरानी ऐतिहासिक रथयात्रा का आयोजन किया जाता है. इसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु शामिल होते हैं और जगन्नाथ स्वामी के प्रति अपनी आस्था व भक्ति दिखाते हैं.
रातू में राजपरिवारों की परंपरा है जीवंत
छोटानागपुर की ऐतिहासिक रथयात्रा रातू किला स्थित श्री जगन्नाथ मंदिर से निकाली जाती है. यहां बुधवार को मंदिर में भगवान श्रीजगन्नाथ का “नेत्रदान संस्कार” राजपुरोहित भोला नाथ मिश्रा व करुणा मिश्रा ने संपन्न करवाया. इस परंपरा की शुरुआत साल 1899 में रातू के 60वें महाराजा प्रताप उदय नाथ शाहदेव द्वारा की गयी थी, जिन्हें सपने में भगवान श्रीजगन्नाथ के दर्शन हुए थे. इसके बाद उन्होंने पुरी से कारीगर बुलाकर नीम की लकड़ी से भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र की मूर्तियां बनवाकर मंदिर की स्थापना की. रथयात्रा मंदिर से 500 मीटर दूर मौसीबाड़ी (शिव मंदिर) तक जाती है और उसी दिन वापस लौटती है. रथ पर राजपरिवार के सदस्य भी सवार होते हैं.
जरियागढ़ में चढ़ाते हैं कटहल का महाप्रसाद
कर्रा प्रखंड स्थित जरियागढ़ की परंपरागत रथयात्रा आज भी राजपरिवार और ग्रामीणों के सामूहिक प्रयास से पारंपरिक तरीके से निकाली जाती है. यहां दो रथ यात्रा निकाली जाती है. एक राजपरिवार की ओर से और दूसरी ग्रामीणों द्वारा निकाली जाती है. रथ यात्रा की शुरुआत राजपरिवार द्वारा झाड़ लगाकर मार्ग शुद्धिकरण से होती है. भगवान को मौसीबाड़ी ले जाकर विशेष भोग अर्पित किया जाता है. इसमें कटहल का प्रसाद विशेष रूप से तैयार किया जाता है. रथयात्रा में ढोल-मृदंग, घंटे और जयकारों के साथ नगर भ्रमण कर भगवान को पुनः मंदिर में स्थापित किया जाता है.
बड़ाइक परिवार परंपरा को बढ़ा रहा है आगे
तोरपा के बड़ाइक टोली स्थित श्री जगन्नाथ मंदिर से निकाली जाने वाली रथयात्रा की परंपरा लगभग 200 साल पुरानी है. इस परंपरा को इलाके के पुराने जमींदार बड़ाइक परिवार की ओर से आगे बढ़ाया जा रहा है. परिवार के सदस्य विजय सिंह बड़ाइक बताते हैं कि पहले सगड़ गाड़ी को रथ बनाकर यात्रा करायी जाती थी. वर्तमान में भव्य मंदिर निर्माण का काम प्रगति पर है. मूर्तियों की पूजा मुरहू के दारला गांव निवासी श्याम सुंदर कर करते हैं. इनके पूर्वज पिछले 200 सालों से यह सेवा करते आ रहे हैं. इधर, कोटेंगसेरा गांव में भी 2013 से भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकाली जा रही है. यहां मंदिर में प्रतिदिन पांच बार भोग चढ़ाया जाता है.
इटकी में 250 सालों से चल रही रथयात्रा की परंपरा
रांची जिले के इटफी प्रखंड में स्थित श्री जगन्नाथ मंदिर की रथयात्रा का इतिहास करीब 250 साल पुराना है. यह परंपरा जमींदार परिवार की पांचवीं पीढ़ी द्वारा अब भी निभायी जा रही है. लाल रामेश्वर नाथ शाहदेव ने बताया कि उनके पूर्वज मंगलनाथ साय ने पुरी यात्रा के बाद यहां मिट्टी का मंदिर बनवाकर रथयात्रा की शुरुआत की थी. बाद में उनकी दादी लक्ष्मी देवी के प्रयासों से साल 1945 में पक्के मंदिर का निर्माण शुरू हुआ. यहां 1947 में मूर्तियों की स्थापना की गयी. मंदिर की ऊंचाई लगभग 80 फीट है.
सौजन्य : प्रभात खबर
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