किंगदाओ में यह झलक भी देखने को मिली कि चीन-पाकिस्तान की मौजूदगी वाले मंच पर भारत के लिए गुंजाइश सीमित होती जाएगी। यह चीन की सुनियोजित नीति दिखती है। एससीओ दस्तावेज में भी यह दिखा पर भारत ने भरपूर दृढ़ता दिखाई कि अपने सिद्धांतों की रक्षा के लिए ऐसे किसी मंच पर उसे अगर सदस्य देशों के खिलाफ भी खड़ा होना पड़े तो वह उससे नहीं हिचकेगा।
हर्ष वी. पंत
चीन के किंगदाओ शहर में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन-एससीओ के सदस्य देशों के रक्षा मंत्रियों का सम्मेलन आतंक के खिलाफ भारत की दृढ़ता के लिए याद किया जाएगा। इसमें रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने एससीओ के उस संयुक्त बयान पर हस्ताक्षर करने से इन्कार कर दिया जिसमें पहलगाम आतंकी हमले का उल्लेख तो नहीं था, उलटे बलूचिस्तान का संदर्भ जोड़ दिया गया था।
भारत का यह रुख पहलगाम आतंकी हमले के बाद से कायम उसके रवैये के अनुरूप ही है कि आतंक के साथ अब कोई समझौता नहीं किया जाएगा और अगर भारत किसी मंच पर इसे लेकर अलग-थलग भी पड़ जाए तो उसे उसकी कोई परवाह नहीं। इससे पहले आपरेशन सिंदूर के बाद भी विभिन्न देशों में भेजे गए सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडलों के माध्यम से भी भारत ने वैश्विक समुदाय को पाकिस्तान के आतंकी चेहरे को बेनकाब करने का जोरदार अभियान चलाया था। एससीओ के मंच पर भी भारत ने उसी नीति की निरंतरता को प्रदर्शित किया।
मूल रूप से चीन के वर्चस्व वाले एससीओ का भारत काफी समय बाद सदस्य बना है। पाकिस्तान भी इसका सदस्य है। इस समूह के प्रमुख उद्देश्यों में से एक यह भी है कि आतंकवाद और चरमपंथ के खिलाफ वह क्षेत्रीय सहयोग के लिए आधार तैयार करने की भूमिका निभाएगा, लेकिन इसकी कार्यप्रणाली उसके चरित्र से मेल नहीं खाती। समय के साथ इस संगठन में चीन का वर्चस्व और बढ़ता गया है। इसका एक कारण बदले हुए वैश्विक समीकरणों में रूस पर लगे तमाम प्रतिबंध भी हैं, जिनके चलते मास्को की बीजिंग पर निर्भरता बढ़ी है।
अन्यथा रूस भी इस समूह में एक संतुलक की भूमिका निभाता रहा है। बढ़ते दबदबे का लाभ चीन अपने निहित स्वार्थों को साधने में कर रहा है। पाकिस्तान का पुरजोर समर्थन इसकी पुष्टि करता है। यह किसी से छिपा नहीं है कि आतंकवाद को लेकर चीन कई मौकों पर पाकिस्तान की ढाल बना है और ऐसा ही एक प्रयास उसने एससीओ रक्षा मंत्रियों की बैठक में भी किया। यह इससे स्पष्ट झलकता है कि पहलगाम के जिस आतंकी हमले की दुनिया भर में कड़ी भर्त्सना हुई उसका उल्लेख तक एससीओ दस्तावेज में नहीं किया गया।
उलटे उस बलूचिस्तान का प्रसंग जोड़ा गया जहां पाकिस्तानी सेना द्वारा स्थानीय लोगों का बर्बरता से किया जा रहा दमन मानवीय उत्पीड़न के नए रिकार्ड बना रहा है। पहलगाम का संदर्भ हटाकर और बलूचिस्तान का मुद्दा जोड़ने की यह कवायद भारत को असहज करने के लिए ही की गई और ऐसी स्थिति में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने दस्तावेज पर हस्ताक्षर से किनारा करके बिल्कुल सही किया। असहमति के इस संदेश की गूंज दुनिया भर में सुनी जाएगी।
चीन और पाकिस्तान को लेकर अक्सर कहा जाता है कि भारत को दो मोर्चों पर लड़ाई के लिए अपनी तैयारी करनी होगी, लेकिन देखा जाए तो यह दोहरा नहीं, बल्कि एक ही मोर्चा है। हम चीन और पाकिस्तान को अलग करके नहीं देख सकते। चीन का पाकिस्तान प्रेम इस कदर बढ़ चुका है कि उसके लिए वह कोई भी कदम उठाने को तैयार दिखता है।
एससीओ के हालिया सम्मेलन की ही बात करें तो किसी भी संगठन में चेयर या प्रमुख की भूमिका वाले देश का एक दायित्व यह भी होता है कि वह समूह के समक्ष आए एजेंडे पर सहमति बनाए। यदि सहमति न भी बना पाए तो ऐसा करने के लिए प्रयासरत तो दिखना चाहिए, लेकिन रक्षा मंत्रियों की बैठक से जुड़े संयुक्त बयान के मामले में चीन ने ऐसी कोई कोशिश तक नहीं की। दोनों देशों की यह मिलीभगत वह दुरभिसंधि दर्शाती है, जिसका भारत को समय रहते कोई तोड़ खोजना होगा। पाकिस्तान के साथ निपटना भारत के लिए कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन उसे मिलता चीन का साथ इस चुनौती को और विकराल बनाता जाएगा।
भारत और चीन के संबंधों में भी लंबे समय से तल्खी हावी रही है। पिछले साल अक्टूबर में दोनों देशों के बीच वार्ता से संबंधों को सामान्य बनाने की दिशा में कुछ सहमति बनी। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की आक्रामक टैरिफ नीति ने भी दोनों देशों को परस्पर हितों की पूर्ति के लिए साथ आने के लिए कुछ हद तक प्रेरित किया है। परिणामस्वरूप संबंधों में कुछ सहजता का भाव बनता दिखा है।
कैलास-मानसरोवर यात्रा भी पांच साल बाद फिर से आरंभ हुई है। इस सबके बावजूद इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान का पहलू चीन के साथ संबंधों में सदैव एक रोड़ा बना रहेगा। चीन अपने हितों की पूर्ति के लिए भारत को भाव तो देना चाहता है, लेकिन पाकिस्तान की कीमत पर नहीं। इसलिए भारत को भी चीन के साथ सतर्कता के साथ आगे बढ़ना होगा। पाकिस्तान के अलावा खुद चीन का पिछला रिकार्ड भी इस सतर्कता की आवश्यकता को मुखरता से रेखांकित करता है।
इन परिस्थितियों में भारत चीन के साथ तात्कालिक एवं मध्यम अवधि में कुछ बिंदुओं पर आगे बढ़ सकता है, लेकिन दीर्घकालिक भविष्य के लिए उसे चीन की प्रभावी काट के लिए कोई स्थायी उपाय करना ही होगा। अमेरिका को पीछे छोड़कर स्वयं विश्व की सबसे बड़ी महाशक्ति के रूप में स्थापित होने को लालायित चीन कभी नहीं चाहेगा कि उसके पड़ोस में भारत जैसी किसी बड़ी ताकत का उभार हो। यह सुनिश्चित करने में वह अपने स्तर पर तो प्रयास करेगा ही, लेकिन समय-समय पर भारत को परेशान करने के लिए पाकिस्तान का भी इस्तेमाल करता रहेगा। आपरेशन सिंदूर के दौरान भी पाकिस्तान को मिली चीनी मदद के संकेत सामने आए हैं। इसलिए भारत को इस दोहरी चुनौती से निपटने के लिए सामरिक-रणनीतिक के अलावा कूटनीतिक एवं आर्थिक विकल्प भी तलाशने होंगे।
किंगदाओ में यह झलक भी देखने को मिली कि चीन-पाकिस्तान की मौजूदगी वाले मंच पर भारत के लिए गुंजाइश सीमित होती जाएगी। यह चीन की सुनियोजित नीति दिखती है। एससीओ दस्तावेज में भी यह दिखा, पर भारत ने भरपूर दृढ़ता दिखाई कि अपने सिद्धांतों की रक्षा के लिए ऐसे किसी मंच पर उसे अगर सदस्य देशों के खिलाफ भी खड़ा होना पड़े तो वह उससे नहीं हिचकेगा।
सौजन्य : दैनिक जागरण
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