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राष्ट्रीय सुरक्षा को चाहिए नई दृष्टि

December 18, 2025 By Guest Author

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सामूहिक समाधान तलाशने के लिए समन्वित प्रयास आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हैं। राष्ट्र के सामने मौजूद अनुमानित और अनपेक्षित खतरों का सामना करने का संभवत: यही इकलौता मार्ग है। इस संदर्भ में 1971 के सबक हमारे लिए मार्गदर्शक होने चाहिए।

जगतबीर सिंह

भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा योजनाओं में प्रतिरोध को प्राथमिकता देने की वजह?

भारतीय उपमहाद्वीप के मानचित्र को नए सिरे से बदलने वाली 16 दिसंबर की तिथि को भारत में विजय दिवस के रूप में मनाया जाता है। पाकिस्तान के विभाजन और बांग्लादेश के सृजन के रूप में भारतीय सैन्य बलों की यह एक अद्वितीय विजय थी। महज एक पखवाड़े के भीतर भारतीय सेना ने पाकिस्तान को पूरी तरह पस्त कर दिया और उसके 93,000 सैनिकों ने शर्मनाक आत्मसमर्पण किया। हमारे सशस्त्र बलों की पेशेवर कार्यशैली, देशभक्ति, समर्पण, दृढ़ता, संकल्प और साहस ने इस विजय को विशेष बनाया। इस विजय में और भी कई निर्णायक पहलू थे।

जैसे सभी स्तरों पर नेतृत्व, राजनीतिक-सैन्य समन्वय, कूटनीति, खुफिया जानकारी, केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल, विशेष रूप से सीमा सुरक्षा बल, रेलवे और मुक्ति वाहिनी की भूमिका भी उतनी ही अहम रही। पूर्व सेनाप्रमुख जनरल वीएन शर्मा के अनुसार 1971 की विजय का सबसे बड़ा मर्म यही रहा कि युद्ध लड़ना केवल एक सैन्य मोर्चा नहीं, बल्कि समग्रता का संघर्ष है, जिसमें राजनीति और कूटनीति भी शामिल होती है। उनकी दृष्टि में युद्ध मात्र एक सैन्य कार्रवाई न होकर विभिन्न सरकारी एजेंसियों और विभागों का समन्वित प्रयास होता है।

राष्ट्रीय सुरक्षा एक व्यापक विषय है। परिभाषा की बात की जाए तो कोई भी खतरा जो परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से संप्रभुता और अखंडता को चुनौती देता है, उसे राष्ट्रीय सुरक्षा की चिंता के रूप में देखा जाता है। हालांकि अब इसे केवल पारंपरिक सैन्य युद्ध के संदर्भ में ही सीमित नहीं किया जा सकता। वर्तमान परिदृश्य आर्थिक सुरक्षा, सामाजिक-राजनीतिक सुरक्षा, ऊर्जा सुरक्षा, साइबर सुरक्षा, मानव विकास सुरक्षा, पर्यावरण सुरक्षा के साथ कुछ और पहलुओं को जोड़ता है।

वर्तमान में पारंपरिक क्षेत्रीय खतरों और हार्ड पावर के साथ ही साफ्ट पावर, जलवायु परिवर्तन, रैनसमवेयर, महत्वपूर्ण खनिजों से लेकर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और इंटरनेट मीडिया तक सब कुछ राष्ट्रीय सुरक्षा के रूप में वर्गीकृत किए जा सकते हैं। ऊर्जा सुरक्षा, खाद्य सुरक्षा, परमाणु प्रसार, मादक पदार्थों की तस्करी, आतंकवाद, साइबर हमले, विदेश में नागरिकों की सुरक्षा और बाजारों की सुरक्षा जैसे कई अन्य मुद्दे भी इस मोर्चे पर उभरे हैं। कोविड जैसी महामारी को भी सुरक्षा के साथ जोड़कर देखा जा सकता है। इस सच्चाई को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि आर्थिक वैश्वीकरण और तेजी से आकार ले रहे तकनीकी परिवर्तन ने असामान्य खतरों की संख्या बढ़ा दी है। इसके बावजूद, पारंपरिक खतरों को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता।

समय के साथ भौगोलिक परिदृश्य भी तेजी से बदल रहा है। इसमें अंतरराष्ट्रीय प्रणाली को प्रतिस्पर्धी शक्ति केंद्रों, तकनीकी व्यवधानों और बदल रहे गठबंधनों द्वारा नए सिरे से निर्धारित किया जा रहा है। साइबर, अंतरिक्ष और सूचना युद्ध के रूप में प्रतिस्पर्धा शांति और संघर्ष की रेखाओं को धुंधला कर रही है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि राष्ट्रीय सुरक्षा का मूल्यांकन केवल राजनीतिक और सैन्य ढांचों से नहीं किया जा सकता। इसके मूल्यांकन में समग्र राष्ट्रीय दृष्टिकोण बहुत उपयोगी होगा। यह संकल्पना यही मांग करती है कि सैन्य और नागरिक सरकारी विभागों के बीच आदर्श समन्वय एवं सहयोग सुनिश्चित हो, ताकि एकीकृत प्रक्रिया के माध्यम से साझा सामरिक लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके। यदि भारत को आज की चुनौतियों का समग्र रूप से सामना करना है तो ऐसा समग्र दृष्टिकोण आवश्यक है।

एक विशाल लोकतंत्र और तेजी से विकसित हो रही अर्थव्यवस्था के रूप में भारत राष्ट्रीय सुरक्षा के नए तानेबाने की तलाश के लिहाज से एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। इस बीच क्षेत्रीय गतिशीलता, आर्थिक चुनौतियां, तकनीकी प्रगति और नए आकार ले रहे खतरों की जटिलताएं सुरक्षित और समृद्ध भविष्य सुनिश्चित करने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण को विकसित करने की आवश्यकता को रेखांकित करती हैं। इसलिए समग्र राष्ट्रीय दृष्टिकोण और भी आवश्यक है। इस कड़ी में अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित सशक्त सेना का होना ही पर्याप्त नहीं, बल्कि यह संकल्प अधिक महत्वपूर्ण है कि समय आने पर उनका तत्परता से उपयोग कैसे किया जाए। यह बिंदु भी राष्ट्रीय सुरक्षा के नए ढांचे को परिभाषित करेगा।

समन्वय और सहयोग को प्रोत्साहन देने का सबसे प्रभावी तरीका यही है कि सैन्य और नागरिक प्रतिष्ठानों के प्रतिनिधियों के बीच समय के साथ सुसंगति बनाई जाए। ऐसा न हो कि उन्हें संघर्ष के समय ही एक साथ काम करने के लिए साथ आना पड़े। याद रहे कि भारत को सुरक्षित बनाना एक बहुआयामी प्रयास है। इसके लिए विभिन्न क्षेत्रों में एकीकृत रणनीति की आवश्यकता है। सामाजिक-राजनीतिक स्थिरता, आर्थिक समृद्धि, तकनीकी क्षमता, कूटनीतिक कुशलता, मजबूत रक्षा तंत्र और राष्ट्रीय संस्थानों को मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित करके ही भारत 21वीं सदी की जटिलताओं को पार कर एक मजबूत और सुरक्षित राष्ट्र के रूप में उभर सकता है। समग्रता से परिपूर्ण इस दृष्टिकोण को मूर्त रूप देने के लिए नागरिक समाज, अकादमिक एवं निजी क्षेत्र के बीच सहयोग से ही भविष्य की राह खुलेगी। तेजी से बदलते वैश्विक परिदृश्य में भारत के निरंतर विकास के साथ ही इन प्रमुख घटकों को लेकर प्रतिबद्धता न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करेगी, बल्कि देश के सभी नागरिकों के लिए एक उज्ज्वल भविष्य तथा शांति और समृद्धि का पथ भी प्रशस्त करेगी।

तथ्य यही है कि जो पहलू आज राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष चुनौती उत्पन्न कर रहे हैं, वे ओझल नहीं होने वाले। उलटे नई चुनौतियां दस्तक देती रहेंगी। भारत अपने इतिहास के निर्णायक पड़ाव से गुजर रहा है और वह इस दौर में खुद को कैसे ढालता है, वही उसके दीर्घकालिक लक्ष्यों को निर्धारित करेगा। सामूहिक समाधान तलाशने के लिए समन्वित प्रयास आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य हैं। राष्ट्र के सामने मौजूद अनुमानित और अनपेक्षित खतरों का सामना करने का संभवत: यही इकलौता मार्ग है। इस संदर्भ में 1971 के सबक हमारे लिए मार्गदर्शक होने चाहिए।

(लेखक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी हैं)

दैनिक जागरण


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