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आपातकाल के दौरान संघ की सक्रिय भूमिका

July 5, 2021 By Guest Author

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ललित कौशिक

देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को रात को आकाशवाणी से घोषणा करके देश में ‘आपातकाल’ लगाकर देश को लगभग 21 माह के लिए अत्याचारों के घोर अंधकार में धकेल दिया। इस दौरान विश्व के सबसे बड़े भारतीय लोकतंत्र ‘इंदिरा गांधी निरंकुश तंत्र’ बनकर रह गया था। उस समय जिन्होंने आपातकाल की यातनाओं को सहा, उनकी वेदनाओं और अनुभवों को जब हम पढ़ते हैं या सुनते हैं तो बड़ी हैरत होती है और आंखे खूली की खूली रह जाती है। आपातकाल के दौरान समाचार-पत्रों पर तालाबंदी, मनमानी ढंग से जिसे चाहें उसे कैद कर उन्हें तरह-तरह की यातनाएं देना, न्यायालयों पर नियंत्रण, ‘न वकील न दलील’ जैसी स्थिति लगभग 21 माह तक बनी रही। विभिन्न राजनीति पार्टियों के साथ-साथ राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ जैसे राष्ट्रवादी संगठनों के बाल और तरुण स्वंयसेवकों की भी आपातकाल का दंश झेलना पड़ा था। सातवीं और आठवीं तक के संघ के स्वंयसेवकों के एक हाथ में हथकड़ी और एक हाथ में कलम यानि अपनी परिक्षा जेल यात्रा के दौरान ही दे सकें थे। लेकिन अगर आज नई पीढ़ी ‘आपातकाल की स्थिति’ से अनभिज्ञ है, वह ऐसी स्थिति की कल्पना भी नहीं कर सकती है। क्योंकि हम लोग जो 80 के दशक के मध्य में पैदा हुए, हमें ‘इंदिरा के निरंकुश शासन’ के तथ्यों से दूर रखा गया। यही कारण है कि हमारी पीढ़ी ‘आपातकाल’ की जानकारी नहीं रख सके। लेकिन आज की युवां पीढी को भी आपातकाल जैसे काले धब्बे की जानकारी जरुर होनी चाहिए। क्योंकि पूरे विश्व में आज सबसे ज्यादा युवां भारत के पास है, और युवां पीढी भूतकाल को देखकर ही अपना भविष्य तैयार कर सकेगी। हमनें तो बचपन से एक ही बात सुनते आए हैं कि इंदिरा गांधी बहुत सक्षम और सुदृढ़ प्रधानमंत्री थीं। वे बहुत गरीब हितैषी, राष्ट्रीय सुरक्षा और बल इच्छाशक्ति (आयरन लेडी) वाली नारी थीं। ऐसे अनेक प्रशंसा के बोल अक्सर सुनने को मिलते रहे हैं। कांग्रेस पार्टी और उसके नेताओं ने किस तरह इंदिरा का महिमामंडन कर ‘आपातकाल’ के निरंकुश शासन के तथ्यों से देश को वंचित रखकर उसको त्याग की देवी की उपाधि देने से भी कांग्रेसी नही चूके।
सत्ता बचाने के लिए लगाया गया आपातकाल
कुछ कांग्रेस के नेता कांग्रेस पार्टी की चमचागिरि करने से अब तक भी नही चुकते है। वह आपातकाल के संदर्भ में यह दलील देते हैं कि उस समय ‘आपातकाल’ लगाना बहुत जरुरी था, इसके आभाव में शासन करना कठिन हो गया था। पर तथ्य कुछ और ही है ? कांग्रेस के कुशासन और भ्रष्टाचार से तंग आ चूकी था। जनता ने अवैध सरकार के आदेशों की अवहेलना करनी सरेराह शुरू कर दी थी। पूरे देश में इन्दिरा सरकार इतनी अलोकप्रिय हो चुकी थी कि चारों ओर से बस एक ही आवाज़ आ रही थी –प्रधानमंत्री इन्दिरा गद्दी छोड़ो। उधर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के शासन के खिलाफ लोकनायक जय प्रकाश नारायण का आन्दोलन अपने चरम पर चला हुई था। पूरे देश में प्रत्येक कस्बे, तहसील, जिला और राजधानी में भी जनता सरकारों का गठन हो चुका था। जनता सरकार के प्रतिनिधियों की बात मानने के लिए ज़िला प्रशासन भी विवश हो गया था। ऐसे में इंदिरा गांधी के लिए शासन करना कठिन हो गया। दूसरी ओर, इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जब इन्दिरा गांधी के रायबरेली लोकसभा क्षेत्र से चुनाव को अवैध ठहराने तथा उन्हें छह वर्षों तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया तो इंदिरा गांधी को अपनी सत्ता से बेदखल होने का डर सताने लगा था। न्यायालय के इस निर्णय के बाद नैतिकता के आधार पर इंदिरा गांधी को इस्तीफा देना चाहिए था, लेकिन सत्ता के मोह ने उन्हें जकड लिया। सभी को किसी अनहोनी की आशंका तो थी ही, लेकिन इंदिरा ऐसी निरंकुश हो जाएंगी, इसका किसी को अंदाजा नहीं था। उन्होंने इस्तीफ़ा नहीं दिया, बल्कि लोकतंत्र का गला घोंटना ही उचित समझा।
अंत में 25 जून, 1975 की रात को आकाशवाणी से विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने ‘आपातकाल की घोषणा कर दी। 26 जून की सुबह होते ही सीपीआई को छोड़कर सभी विरोधी दलों के नेताओं को जेलों में ठूंस दिया गया। इस अराजक कार्रवाई में न किसी की उम्र का लिहाज किया गया और न किसी के स्वास्थ्य की फ़िक्र ही की गई, बस जिसे चाहा उसे कारावास में डाल दिया गया। आपातकाल के दौरान जनता की आवाज उठाने वाले और जन-जन के नेता लोकनायक जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जार्ज फर्नांडिस जैसे नेताओं और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ  के तत्कालीन सरसंघचालक श्री बालासाहब देवरस सहित हजारों स्वयंसेवकों को कैद कर लिया गया। देश के इन राष्ट्रीय स्तर के नेताओं को मीसा कानून के तहत अनजाने स्थान पर कैद कर रखा गया। मीसा वह काला कानून था जिसके तहत कैदी को कोर्ट में पेश करना आवश्यक नहीं था और न ही इसमें ज़मानत का भी प्रावधान नहीं था। उस समय आपातकाल के दौरान हरियाणा में एक नारा गुजने लगा। आपातकाल के तीन दलाल इंदिरा, संजय और बंसीलाल।


मीडिया पर भी लगाया प्रतिबंध
इंदिरा शासन के खिलाफ लिखने वाले पत्रकारों और मीडिया घरानों पर भी 25 जून, 1975 को आकाशवाणी ने रात के अपने समाचार बुलेटिन में यह समाचार प्रसारित किया कि अनियंत्रित आन्तरिक स्थितियों के कारण सरकार ने पूरे देश में आपातकाल  की घोषणा कर दी है। बुलेटिन में कहा गया कि आपातकाल के दौरान जनता के मौलिक अधिकार स्थगित रहेंगे और सरकार विरोधी भाषणों और किसी भी प्रकार के प्रदर्शन पर पूर्ण प्रतिबंध रहेगा। समाचार पत्र विशेष आचार संहिता का पालन करेंगे जिसके तहत प्रकाशन के पूर्व सभी समाचारों और लेखों को सरकारी नियमों से होकर गुजरना पडेगा।
आपातकाल के काले दिनों के दौरान करीब 250 भारतीय पत्रकारों को बंदी बनाया गया, वहीं 51 विदेशी पत्रकारों की मान्यता ही रद्द कर दी गई। इंदिरा गांधी के इस तानाशाही के आगे अधिकांश पत्रकारों ने घुटने ही टेक दिए थे।
आपातकाल में संघ की भूमिका
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने ‘आपातकाल’ के विरुद्ध देश में भूमिगत आन्दोलन, सत्याग्रह और सत्याग्रहियों के निर्माण के लिए एक व्यापक योजना बनाई। संघ की प्रेरणा से चलाया गया भूमिगत आन्दोलन अहिंसक था। जिसका उद्देश्य देश में लोकतंत्र को बहाल करना था, जिसका आधार मानवीय सभ्यता की रक्षा, लोकतंत्र की जीत, पूंजीवाद व अधिनायकवाद का पराभव, गुलामी और शोषण का नाश, वैश्विक बंधुभाव जैसे उदात्त भाव समाहित था। आपातकाल के दौरान संघ ने भूमिगत संगठन और प्रचार की यंत्रणा स्थापित की, जिसके अंतर्गत सही जानकारी और समाचार गुप्त रूप से जनता तक पहुंचाने के लिए सम्पादन, प्रकाशन और वितरण की प्रभावी व्यवस्था बनाई गई। साथ ही जेलों में बंद व्यक्तियों के परिवारजनों की सहायता के लिए भी व्यवस्थाएं विकसित की। संघ ने जनता के धैर्य बना रहे, इसके लिए व्यापक कार्य किया। इस दौरान आपातकाल की सही जानकारी विदेशों में प्रसारित करने की भी योजना बनाई गई थी। संघ ने पूरे देश में आपातकाल के खिलाफ सत्याग्रह करने की योजना बनाते है। करीब संपूर्ण देश में पांच हजार से ज्यादा स्थाने पर सत्याग्रह करते हुए जेल यात्रा पर गए। साथ ही इसमें राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के एक लाख के करीब स्वंयसेवकों ने अपनी भूमिका निभाई। इस दौरान 45 हजार संघ के स्वंयसेवकों को जेल में डाल दिया गया। अंत में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के मन में जन विरोध का भय सताने लगा। अचानक तानाशाही बंद  हो गईं, गिरफ़्तारियां थम गईं। पर लोकतंत्र को कुचलने के वे काले दिन इतिहास के पन्नों में अंकित हो गया।

 


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