दिव्य कुमार सोती
पाकिस्तान की ओर से आतंकी युद्ध अभी जारी है। अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता हासिल करने के साथ ही पुंछ के जंगलों में सुरक्षा बलों पर घात लगाकर हमले और कश्मीर में हिंदू-सिख अल्पसंख्यकों की हत्याएं बताती हैं कि 26/11 जैसी स्थितियों से कभी भी दो-चार होना पड़ सकता है।
मुंबई हमलों की बरसी से ठीक पहले आई कांग्रेस सांसद मनीष तिवारी की किताब ‘10 फ्लैश प्वाइंट्स 20 ईयर्स’ में उस हमले के बाद की भारत की प्रतिक्रिया पर जो कुछ लिखा गया है, उसने आतंकवाद को लेकर पिछले दो दशकों के दौरान भारत की नीति को लेकर एक बार फिर बहस छेड़ दी है। तिवारी अपनी इस किताब में लिखते हैं कि जो देश (पाकिस्तान) अपने ही मासूम नागरिकों की हत्याओं से कोई गुरेज न करता हो, उसके द्वारा 26/11 जैसे भीषण आतंकी हमले कराए जाने के बावजूद जवाबी कार्रवाई न करने का मनमोहन सरकार का फैसला सही नहीं था। इससे पाकिस्तान की हिम्मत और अधिक बढ़ गई। 26/11 आतंकी हमले को लेकर मनमोहन सरकार की आलोचना पहले भी होती रही है। मनीष तिवारी की टिप्पणी में वही सब है, जिससे आम जनता वर्षो से अवगत है। इससे पहले उस समय के वायुसेना प्रमुख फाली होमी मेजर सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि 26/11 आतंकी हमले का सैन्य जवाब देना है या नहीं, इसे लेकर तत्कालीन संप्रग सरकार पसोपेश में ही रही और कोई फैसला नहीं ले पाई, जबकि वायुसेना आदेश मिलने पर 24 घंटे के भीतर गुलाम कश्मीर में मौजूद आतंकी ठिकानों को निशाना बनाने को तैयार थी। इसी प्रकार का बयान उनके बाद के वायुसेना अध्यक्ष बीएस धनोआ की ओर से भी आ चुका है।
कहा जाता है कि तत्कालीन राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन ने पाकिस्तान के विरुद्ध कड़ी जवाबी कारवाई के लिए पांच विकल्प सुझाए थे, परंतु उस समय का ढुलमुल राजनीतिक नेतृत्व कोई फैसला इस डर से नहीं ले पाया कि कहीं सैन्य तनाव नियंत्रण से बाहर न निकल जाए और परमाणु युद्ध की नौबत न आ जाए। बाद में अपने मन को समझाने के लिए कुछ न करने की इस नीति को ‘सामरिक संयम’ नाम दे दिया गया और कोई कार्रवाई न करने के लाभ तक गिना डाले गए। भारतीय नीतिकारों के मन में यह डर पाकिस्तान ने बड़ी मेहनत से हर छोटी बात पर परमाणु युद्ध का हौआ खड़ा करके बैठाया था। इससे उपजी कथित सामरिक संयम की इस भारतीय नीति के चलते वह वर्षो तक भारत के विरुद्ध एक के बाद एक आतंकी हमलों को अंजाम देता रहा। पाकिस्तान की खोखली परमाणु धमकी का सच तब सामने आने लगा, जब उड़ी आतंकी हमले के बाद मोदी सरकार ने सामरिक संयम की नीति को तिलांजलि देते हुए सर्जिकल स्ट्राइक का निर्णय लिया।
इस स्ट्राइक के बाद पाकिस्तान ने कोई जवाबी कार्रवाई नहीं की। अपनी जनता की ओर से जवाबी कार्रवाई के दबाव से बचने के लिए पाकिस्तानी सरकार ने यह बहाना बनाया कि भारत ने कोई सर्जिकल स्ट्राइक की ही नहीं है। इसके उपरांत पुलवामा आतंकी हमले के बाद भारतीय वायुसेना के बालाकोट में जैश-ए-मोहम्मद के आतंकी शिविर पर जवाबी हमले ने पाकिस्तान की परमाणु धमकी की हवा पूरी तरह से निकाल दी। पाकिस्तानी वायुसेना ने जवाबी हमला करने का प्रयास अवश्य किया, परंतु उसे विफल कर दिया गया। यह ध्यान रहे कि पाकिस्तान ने न तो 26/11 आतंकी हमले और न ही उड़ी और पुलवामा आतंकी हमलों के किसी आरोपी को कोई सजा दी है। अगर आतंकियों को कोई सजा मिली तो उड़ी और पुलवामा कांड के बाद भारत की जवाबी कार्रवाई से।
26/11 यह भी सबक देता है कि आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध में हम अकेले हैं। यह हमला एक ऐसा हमला था, जिसमें भारतीय नागरिकों के साथ अमेरिका सहित 16 अन्य देशों के नागरिकों की भी हत्या की गई थी। इसके बाद भी अमेरिका से हमले के आरोपितों को सजा दिलवाने में खास मदद नहीं मिली। हमलों के लिए रेकी करने वाले पाकिस्तानी मूल के अमेरिकी नागरिक डेविड कोलमैन हेडली को अमेरिका ने भारत के हवाले नहीं किया। यह भी समझना आवश्यक है कि बालाकोट जैसी जवाबी कार्रवाई ने पाकिस्तान को सिर्फ अपने तरीके बदलने के लिए मजबूर किया है, उसकी मूल प्रवृत्ति नहीं बदली है। पाकिस्तान की ओर से आतंकी युद्ध अभी जारी है। अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता हासिल करने के साथ ही पुंछ के जंगलों में सुरक्षा बलों पर घात लगाकर हमले और कश्मीर में हिंदू-सिख अल्पसंख्यकों की हत्याएं बताती हैं कि 26/11 जैसी स्थितियों से हमें कभी भी दो-चार होना पड़ सकता है।
उस आतंकी हमले को अंजाम देने के लिए साजिशकर्ताओं ने भारत की तटीय सुरक्षा में मौजूद छोटी-छोटी कमियों का फायदा उठाया था। आज के बदलते परिवेश में ड्रोन इसी प्रकार की नई सुरक्षा चुनौती के रूप में उभर कर सामने आ रहे हैं। पाकिस्तान द्वारा जम्मू-कश्मीर और पंजाब के सीमावर्ती क्षेत्रों में ड्रोन की घुसपैठ कराना आम होता जा रहा है। जहां इन ड्रोन का उपयोग जासूसी और अवैध हथियार गिराने के लिए किया जाता है, वहीं आतंकी हमलों के लिए भी। अभी कुछ समय पहले आर्मेनिया-अजरबैजान युद्ध में ड्रोन का उपयोग किया गया। उनमें बम बांध कर निशाने से टकरा दिया जाता था। इस वर्ष जून और जुलाई में पाकिस्तान द्वारा इससे मिलते-जुलते कम से कम दो प्रयास किए जा चुके हैं। इसमें जम्मू एयरबेस को निशाना बनाने का प्रयास भी शामिल है।
सुरक्षा परिदृश्य के चलते केंद्र द्वारा सीमाई राज्यों में सीमा सुरक्षा बल का अधिकार क्षेत्र बढ़ाए जाने का राज्य सरकारों द्वारा विरोध नहीं किया जाना चाहिए। भारत के आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध का इतिहास बताता है कि अक्सर हम सटीक खुफिया जानकारी और आतंक-प्रतिरोधी संसाधन उपलब्ध होने के बाद भी आतंकी साजिशों को सिर्फ इसलिए विफल नहीं कर सके, क्योंकि भारतीय राज्य के विभिन्न अंगों में सामंजस्य नहीं बन पाया। राज्य सरकारों को समझना चाहिए कि अगर हम बाहरी शत्रुओं से निपटने में नाकाम रहे तो संघीय ढांचे का ढोल पीटने से कुछ नहीं मिलने वाला।
सौजन्य : दैनिक जागरण
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