सुष्मित सिन्हा
बीजेपी से गठबंधन टूटने के साथ इन कारणों ने भी पंजाब में अकाली दल की कमर तोड़ दी
जिन कृषि कानूनों की वजह से शिरोमणि अकाली दल ने बीजेपी से दो दशक पुराना गठबंधन तोड़ा, बीजेपी ने उन्ही कृषि कानूनों को वापस ले कर दांव चलते हुए अब अमरिंदर सिंह और सुखदेव सिंह ढींढसा के साथ मिलकर अकाली दल को पंजाब विधानसभा चुनाव में पछाड़ने की पूरी रणनीति बना ली है.
03 जनवरी, 2022 – पंजाब (Punjab) की सियासत में बीते 2 साल में बहुत कुछ बदल गया है. भारतीय जनता पार्टी (BJP) और शिरोमणी अकाली दल का 25 साल पुराना गठबंधन टूट गया. कांग्रेस पार्टी से अलग होकर कैप्टन अमरिंदर सिंह (Amarinder Singh) ने अपनी एक अलग पार्टी लोक कांग्रेस पार्टी बना ली और आम आदमी पार्टी दिल्ली से निकलकर पंजाब में भी अपनी जड़ें मजबूत कर रही. बीजेपी से अकाली दल के गठबंधन टूटने का सबसे बड़ा कारण था तीन नए कृषि कानून, जो पंजाब के किसानों को बिल्कुल पसंद नहीं थे और इसी को लेकर उन्होंने देश में बड़ा किसान आंदोलन खड़ा कर दिया. जिसमें ना सिर्फ पंजाब बल्कि देशभर के किसानों ने भाग लिया. हालांकि अकाली दल जितनी कीमत देकर किसान आंदोलन के समर्थन में खड़ी हुई थी, उसे अब उतना फायदा होता नहीं दिखाई दे रहा है. यानि अकाली दल फिलहाल नुकसान में है. और इस तरह से नुकसान में है कि पंजाब विधानसभा चुनाव में उसके जीत की कोई बात ही नहीं कर रहा है, जबकि अकाली दल ने शुरुआत से ही बहुत कोशिश की कि उसे किसान आंदोलन को बड़ा बनाने का श्रेय मिल जाए.
अब बीजेपी कृषि कानूनों को वापस ले चुकी है और किसान आंदोलन भी खत्म हो चुका है. कैप्टन अमरिंदर सिंह से गठबंधन कर भारतीय जनता पार्टी ने पंजाब में अपनी स्थिति पहले से ज्यादा मजबूत कर ली है, क्योंकि इस बार के विधानसभा चुनाव में वह बड़े भाई की भूमिका में नजर आना चाहती है. जबकि अकाली दल के साथ बीते 25 वर्षों में बीजेपी को 32 सीटों से ज्यादा कभी नहीं मिला. आज 100 साल पुरानी पार्टी ‘अकाली दल’ का अस्तित्व खतरे में आ गया है और धीरे-धीरे उसके नेता पार्टी छोड़कर बीजेपी ज्वाइन कर रहे हैं. बीते दिनों ही अकाली दल के नेता जगदीप सिंह नकाई ने कांग्रेस के पूर्व विधायक शमशेर सिंह राय के साथ बीजेपी ज्वाइन कर ली. कुछ दिन पहले ही अकाली दल के हिंदू नेता अनीश सिडाना ने भी पार्टी को अलविदा कह दिया था.
इसके साथ ही शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) जिसे सुखदेव सिंह ढींढसा ने अकाली दल से अलग हो कर बनाई थी, उसने भी अकाली दल को पंजाब में नुकसान पहुंचाया. ढींढसा की पार्टी ने खास तौर से मालवा क्षेत्र में अकाली दल के जनाधार में सेंध लगाई. 2022 के विधानसभा चुनाव में शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) ने बीजेपी और कैप्टन अमरिंदर सिंह की पार्टी लोक कांग्रेस पार्टी से गठबंधन कर लिया है और अनुमान है कि ये गठबंधन अकाली दल को पंजाब विधानसभा चुनाव में तगड़ा झटका देने वाला है.
कई मुद्दे अकाली दल को ले डूबे
2017 के विधानसभा चुनाव आते-आते अकाली दल पंजाब में खोखली हो चली थी. उसका सबसे बड़ा कारण था पंजाब का ड्रग्स कैपिटल बनना. कैप्टन अमरिंदर सिंह के मुख्यमंत्री बनने से पहले सूबे के मुख्यमंत्री हुआ करते थे प्रकाश सिंह बादल और उनके बेटे सुखबीर सिंह बादल उपमुख्यमंत्री हुआ करते थे. सुखबीर सिंह बादल पर ड्रग तस्करों को संरक्षण देने के कई बार आरोप लगे और पंजाब के युवाओं को जिस तरह से नशे की लत ने अपनी गिरफ्त में लिया था, उसे आम आदमी पार्टी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में एक बड़ा मुद्दा बनाया. कांग्रेस पार्टी ने भी इस मुद्दे को खूब भुनाया और जनता के मन में अकाली दल को लेकर इतनी शिकायतें भर दीं कि मोदी लहर के बावजूद भी कैप्टन अमरिंदर सिंह कांग्रेस को 77 विधानसभा सीटें दिलाने में कामयाब रहे. और पंजाब में उनकी सरकार बन गई.
अकाली दल की स्थिति इस चुनाव में इतनी खराब हुई कि वह दूसरे नंबर पर नहीं बल्कि 18 सीटों के साथ तीसरे नंबर पर रही. दूसरे नंबर पर आम आदमी पार्टी रही जिसे 20 विधानसभा सीटों पर जीत हासिल हुई. ड्रग्स के साथ-साथ पंजाब सरकार में भारी मात्रा में व्याप्त भ्रष्टाचार और पंजाब के अप्रवासी भारतीयों की जमीन कब्जाने के आरोपों ने भी अकाली दल की लुटिया डुबो दी.
सुखदेव सिंह ढींढसा ने भी अकाली दल को नुकसान पहुंचाया
पंजाब में अकाली दल तभी से कमजोर हो गई थी जब उसके बड़े नेता सुखदेव सिंह ढींढसा ने पार्टी छोड़ कर अपनी खुद की पार्टी शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) की स्थापना कर ली थी. माना जाता है कि पंजाब के मालवा क्षेत्र जहां से सूबे की 40 विधानसभा सीटें आती हैं वहां अकाली दल का जनाधार सुखदेव सिंह ढींढसा की वजह से ही था. अब जबकि सुखदेव सिंह ढींढसा ने अपनी पार्टी बना ली है और बीजेपी और अमरिंदर सिंह से गठबंधन कर लिया है तो मालवा क्षेत्र में ये गठबंधन मजबूत हो गया है. अकाली दल को इस क्षेत्र में 2022 के विधानसभा चुनाव में अच्छा खासा नुकसान होगा. वहीं कांग्रेस का जनाधार भी मालवा क्षेत्र में कैप्टन अमरिंदर सिंह की वजह से था, अब जबकि अमरिंदर सिंह नें कांग्रेस छोड़ दी है तो जाहिर सी बात है मालवा क्षेत्र जहां से 2017 में कांग्रेस को अच्छी बढ़त मिली थी, उसे नुकसान होगा.
कांग्रेस भी अकाली दल को तोड़ रही है
अकाली दल को तोड़ने का काम केवल सुखदेव सिंह ढींढसा ने ही नहीं किया, बल्कि कांग्रेस ने भी पंजाब में जम कर अकाली दल को तोड़ा. आज के चुनावी युग में सोशल मीडिया का महत्वपूर्ण योगदान होता है और राजनीतिक पार्टियों का साइबर सेल सोशल मीडिया के माध्यम से ही पार्टी की सभी नीतियों को जनता के बीच पहुंचाते हैं. लेकिन कांग्रेस ने अकाली दल को चुनाव से पहले झटका देते हुए अकाली दल के आईटी हेड परमिंदर बराड़ को अपने साथ मिला लिया. वहीं दूसरी ओर कांग्रेस ने पंजाब के शाहकोट में 30 परिवारों को भी अपने साथ कर लिया जो दशकों से अकाली दल के साथ थे.
‘एक परिवार की पार्टी’ के मुहर ने अकाली दल को नुकसान पहुंचाया
अकाली दल पंजाब में बीते 100 सालों का है, लेकिन 1955 में जब प्रकाश सिंह बादल पहली बार पार्टी के प्रमुख बने उसके बाद से ही इस पार्टी पर केवल बादल परिवार का ही कब्जा है. इसीलिए पंजाब के लोग इसे एक परिवार की पार्टी कहते हैं. और पंजाब के मतदाता मानते हैं कि अकाली दल में जो भी नीतियां तय होती हैं वह इस बात को ध्यान में रखकर तय होती हैं कि इससे बादल परिवार का हित साधा जा सके. परिवार के नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने के बावजूद उनपर कार्रवाई नहीं होती, जो जनता में गलत संदेश देता है और अकाली दल से जुड़े नेताओं में भी यह संदेश जाता है कि उनका इस पार्टी में कोई भी भविष्य नहीं है.
परिवार के नेता ही पार्टी की मुसीबत बढ़ाते हैं
एक तरफ जहां सुखबीर सिंह बादल पर लगे भ्रष्टाचार के आरोप अकाली दल को नुकसान पहुंचाते आए हैं तो वहीं दूसरी ओर अकाली दल की सांसद हरसिमरत कौर बादल के ऊटपटांग बयान पार्टी को नुकसान पहुंचाते हैं. हाल ही में उन्होंने एक विवादित बयान देते हुए अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह की तुलना बाबा गुरु नानक की तकड़ी से कर दिया. नरेंद्र मोदी की सरकार में मंत्री रह चुकी हरसिमरत कौर का यह बयान अकाली दल के लिए मुसीबत बन गया है. हालांकि हरसिमरत कौर का यह पहली बार दिया गया बयान नहीं है, उससे पहले भी उन्होंने एक बार हिंदुओं पर विवादित टिप्पणी करते हुए कहा था कि हमारे नौवें गुरु ने हिंदुओं के तिलक और जनेऊ को बचाने के लिए शहादत दी थी. हरसिमरत कौर के इस बयान की भी खूब आलोचना हुई थी.
कैडर से कुछ उम्मीद है
अकाली दल आज भले ही पंजाब में सियासी रूप से पिछड़ रही हो, लेकिन कैडर के मामले में आज भी अकाली दल का कोई मुकाबला नहीं है. अकाली दल के कार्यकर्ता पंजाब के गांव-गांव में तैनात हैं और यही कार्यकर्ता उसे पंजाब में मजबूती भी देते हैं. इस बार के विधानसभा चुनाव में अकाली दल नए चेहरों के सहारे अपनी स्थिति पंजाब में मजबूत करना चाहती है अब तक 90 सीटों पर पार्टी ने अपने उम्मीदवारों के नाम तय कर दिए हैं, जिनमें से 27 नए चेहरे हैं. जो पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ेंगे. ऊपर से कांग्रेस सरकार के दौरान भी जिस तरह से बेअदबी के मामले सामने आए हैं उसे लेकर भी पार्टी के कार्यकर्ता पंजाब में सक्रिय हैं.
दलित वोट बैंक को साधने के लिए अकाली दल ने बहुजन समाज पार्टी से गठबंधन कर लिया है और ऐलान किया है कि अगर उसकी सरकार बनती है तो उपमुख्यमंत्री एक दलित चेहरा होगा. हालांकि 32 फ़ीसदी दलित आबादी अकाली दल के साथ जाएगी या दलित मुख्यमंत्री वाले कांग्रेस पार्टी के साथ, इस पर फिलहाल कुछ कहा नहीं जा सकता. लेकिन यह बात तो तय है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में मजबूत कैडर होने के बावजूद भी अकाली दल को वापसी करने में अभी बहुत मशक्कत करनी पड़ेगी.
सौजन्य : टीवी 9
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