सिंघसूरमा लेखमाला
धर्मरक्षक वीरव्रति खालसा पंथ – भाग-4
आत्म बलिदान और सशस्त्र
प्रतिकार की वीरव्रति परंपरा
नरेंद्र सहगल
सिख सांप्रदाय के चौथे गुरु श्रीगुरु रामदास ने इस मत के प्रचार/प्रसार के लिए अपने सुपुत्र अर्जुन देव को अपना उत्तराधिकारी बनाकर गुरु गद्दी सौंप दी। वे इस मत के पांचवे गुरु थे जिन्होंने धर्म, समाज एवं राष्ट्र की रक्षा हेतु आत्म बलिदान की वीरव्रति प्रथा का श्रीगणेश कर दिया। स्वधर्म एवं स्वाभिमान के साथ समझोता ना करके परकीय तथा विधर्मी शासकों के साथ टक्कर लेने का अध्याय शुरू करने वाले श्रीगुरु अर्जुनदेव कुशल प्रबंधक, सुलझे हुए राजनीतिज्ञ और साहसिक वीरपुरुष थे।
श्रीगुरु अर्जुनदेव ने पूर्व के चारों गुरुओं द्वारा प्रारंभ किए गए कार्यों को आगे बढ़ाते हुए संगठन के प्रसार एवं विकास हेतु सबसे पहले एक धार्मिक ग्रंथ की आवश्यकत्ता अनुभव की। इन्होंने पूर्व के सभी गुरुओं की वाणी के साथ अनेक भक्तों तथा कवियों की रचनाओं को एकत्रित करके एक ग्रंथ की रचना की। वर्षों के परिश्रम के पश्चात तैयार हुआ यह ग्रंथ समस्त हिन्दू समाज विशेषतया सिख सांप्रदाय का पवित्र धार्मिक ग्रंथ बन गया।
पांचवें गुरु ने सिख समाज के लिए धार्मिक सम्मेलनों के आयोजन हेतु तीर्थ स्थलों के निर्माण की योजना को आकार देना प्रारंभ किया। उन्होंने श्रीगुरु रामदास द्वारा बसाए गए अमृतसर में हरमंदिर साहिब तथा तरनतारन में दो प्रसिद्ध गुरुद्वारे बनवाए। अमृतसर तो एक प्रकार से सिखों की राजधानी और सर्वोत्तम पवित्र स्थान बन गया।
अब श्रीगुरु महाराज ने अपने शिष्यों को देश की सीमा से बाहर जाने की प्रेरणा दी। हिंदुओं की कूपमंडूक्ता को समाप्त करने के लिए उन्हें तुर्किस्तान जाकर घोड़े लाने एवं बेचने का व्यापार शुरु करने का आदेश दिया। इससे अन्य जातियों के रहन-सहन एवं विचारों की जानकारी प्राप्त करने का रास्ता खुल गया। लोगों को घुड़सवारी का शिक्षण भी दिया जाने लगा। अमृतसर में स्थापित हरिमंदिर साहिब में वैसाखी पर्व पर वार्षिक समागम भी होने लगे।
अतः पांचवें गुरु तक आते-आते सिख सांप्रदाय का व्यवस्थित स्वरूप सामने आ गया। वार्षिक समागम, एक नेतृत्व, नियमित संगठन, पर्याप्त राजकोष इत्यादि से यह सांप्रदाय एक धार्मिक एवं राजनीतिक शक्ति बन गया। यहीं से सिख गुरुओं की मुगल शासकों के साथ संघर्ष के अध्याय की शुरुआत होती है। जब बादशाह जहांगीर का बेटा खुसरो अपने पिता के साथ विद्रोह करके श्रीगुरु अर्जुनदेव की शरण में पंजाब आया तो गुरु ने उसे आश्रय देकर धन से भी सहायता की।
इस घटना से पांचवें गुरु की राजनीतिक सूझ-बूझ का अंदाजा लगाया जा सकता है। उन्होंने विदेशी शासक के पुत्र को अपने प्रभाव में करके मानो परतंत्रता को चुनौति दी। बादशाह जहांगीर गुरु के प्रभाव को समाप्त करने पर तुल गया। उधर लाहौर के सूबेदार के मंत्री चंदू (हिंदू) ने भी गुरु के विरुद्ध जहांगीर को भड़काना प्रारंभ कर दिया। इसका कारण अत्यंत सकींर्ण तथा स्वार्थमय था। यह चंदू अपनी लड़की का विवाह गुरु अर्जुनदेव के बेटे हरगोविंद के साथ करना चाहता था। इस काम में सफल ना होने पर उसने गुरु से बदला लेने की ठान ली।
चंदू ने जहांगीर से कहा- “यह गुरु अपने आप को सच्चा बादशाह कहता है। इसके धर्मग्रंथ में इस्लाम की तौहीन की गई है।“ जब जहांगीर ने गुरु को अपने पास बुलाकर ग्रंथ में इस्लाम के प्रवतर्क की प्रशंसा में भी कुछ लिखने का आदेश दिया तो गुरु ने दृढ़ता से मना कर दिया। बादशाह ने गुरु के ऊपर दो लाख रुपए का जुर्माना लगा दिया। जुर्माना ना देने पर श्रीगुरु अर्जुनदेव को हवालात में डाल दिया गया।
बादशाह जहांगीर के आदेश से मुगल सैनिकों ने पहले उन्हें उबलते हुए पानी में डुबोया। फिर उनके शरीर पर गरम रेत डाली गई और अंत में उन्हें गाय की खाल में सिल देने का हुकम जारी कर दिया। गुरुजी ने निकटवर्ती रावी नदी में स्नान करने की इच्छा प्रकट की। स्वीकृति मिलने पर श्रीगुरु अर्जुनदेव जी ने रावी नदी में जल समाधि ले ली। धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने का युग इस घटना से शुरु होता है।
पांचवें श्रीगुरु अर्जुनदेव ने सिख सांप्रदाय को सुदृढ़ बनाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके देहावसान के पश्चात 1606 में उनके पराक्रमी पुत्र हरगोविंद गद्दी पर बैठे। इस 11 वर्षीय तरुण तपस्वी ने अपनी कमर पर दो तलवारें बांधनी शुरू करके घोषणा कर दी कि यह दोनों भारत की सनातन संस्कृति के वैचारिक आधार ‘शस्त्र और शास्त्र’ की प्रतीक हैं। इन दोनों तलवारों को
‘मीरी और पीरी’ की दो तलवारें भी कहा जाने लगा। यहीं से संत-सिपाही का शब्द प्रयोग प्रारंभ हुआ अर्थात समय आने पर धर्म की रक्षा के लिए संत भी हथियार उठाने से परहेज नहीं करते।
कुछ इतिहासकार श्री गुरु हरगोविंद जी द्वारा धारण की जाने वाली दोनों तलवारों की व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि एक तलवार अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए और दूसरी इस्लामिक शासकों के द्वारा हिंदुओं पर किए जा रहे अमानवीय अत्याचारों के प्रतिकार के लिए है। इस तरह छठे गुरु साहिब ने ‘संयासी और सैनिक’ भाव को एक साथ मिलाकर सामाजिक समरसता और राष्ट्र रक्षा की गुरु परंपरा के वास्तविक उद्देश्य का शंख बजा दिया। खालसा पंथ के क्रमिक विकास का यह एक बहुत महत्वपूर्ण काल खंड था।
श्रीगुरु हरगोविंद ने सभी सिक्खों के लिए हुकुमनामा (आदेश) जारी करते हुए कहा कि अवसर आने पर धर्म और सत्य की रक्षा के लिए विधर्मी शासकों के साथ जंग के लिए तैयार रहें। आवश्यकत्तानुसार सभी शिष्यों को एक झंडे के नीचे एकत्रित होकर अपना सैन्य अभियान चलाने की आज्ञा दी गई। इतिहासकारों के अनुसार गुरु के अस्तबल में लगभग 1000 घोड़े थे। 300 घुड़सवार और 60 तोपची थे। सैनिक सिंहों की संख्या हजारों तक पहुंच गई थी।
इस प्रकार छठे गुरु साहिब ने सिख समाज को समय की आवश्यकता के अनुसार ‘धर्म-योद्धा’ में बदलने का सफल प्रयास किया। वे स्वयं को तथा शिष्यों को भविष्य में आने वाले संभावित संकट का सामना करने के लिए तैयार कर रहे थे। उन्होंने शिष्यों द्वारा की जाने वाली भेंट का स्वरुप भी बदल दिया। शिष्यों से कहा गया कि वे गुरु की भेंट के लिए घोड़े, हथियार तथा युद्ध के लिए जरुरी सामग्री ही लाएं।
जिस स्थान पर गुरु बैठते थे उसे ‘तख्त अकाल बंगा’ का नाम दिया गया। गुरु को ‘सच्चा पातशाह’ कहा जाने लगा। यह उद्घोष ‘बादशाह जहांगीर’ को दी जाने वाली खुली चुनौती थी। इसी समय गुरु हरगोविंद जी ने लाहौर के दीवान चंदू से अपने पिता की मौत का बदला ले लिया। दीवान की टांगों में रस्सी बांधकर उसे लाहौर की गलियों में बुरी तरह से घसीटा गया। वह गद्दार तड़प-तड़प कर मर गया।
कुछ समय तक श्रीगुरु की जहांगीर बादशाह के साथ मित्रता भी रही। इस दोस्ती को श्रीगुरु की राजनीति भी कहा जा सकता है। श्रीगुरु की मुगल विरोधी चालों को देखकर जहांगीर ने इन्हें ग्वालियर के किले में कैद कर दिया। किले के कारावास में रहते हुए श्रीगुरु का यश और कीर्ति शतगुणित हो गई। जब उन्हें कैद से छोड़ने का निर्णय लिया गया तो श्रीगुरु ने अपने अन्य शिष्यों को भी छोड़ने की शर्त रख दी। अतः सभी सिख श्रद्धालु भी छोड़ दिए गए। इसीलिए छठे गुरु को ‘बंदी छोड़ गुरु’ भी कहा जाने लगा। तत्पश्चात इस वीरव्रति गुरु ने मुगलों के साथ अनेक लड़ाइयां लड़कर विदेशी शासकों के तखत को हिला कर रख दिया।
इस तरह छठे श्रीगुरु हरगोविंद सिंह ने हिंदू समाज में क्षात्रधर्म को जागृत करके एक राष्ट्रीय क्रांति का श्रीगणेश कर दिया। – क्रमश:
सिंघसूरमा लेखमाला
धर्मरक्षक वीरव्रति खालसा पंथ – भाग-5
हिन्दू धर्म की रक्षा केलिए
शहीद हुए श्रीगुरु तेगबहादुर
नरेंद्र सहगल
भारतीय संस्कृति के वैचारिक आधार अथवा सिद्धांत ‘शस्त्र और शास्त्र’ को शिरोधार्य करके हमारे सिख सांप्रदाय के छठे श्रीगुरु हरगबिन्द ने मुगल शासकों को यह संदेश दे दिया कि समय आने पर स्वधर्म की रक्षा के लिए भारत के संत-महात्मा भी हथियार उठा सकते हैं। छटे क्रांतिकारी श्रीगुरु के पश्चात सातवें श्रीगुरु हरिराय तथा आठवें श्रीगुरु हरकिशन ने भी अपने समय में दस गुरुओं की परम्परा को न्यूनाधिक आगे बढ़ाने में अपने कर्तव्य की पूर्ति की।
इसके पश्चात गुरुगद्दी पर नवम गुरु के रूप में धर्मरक्षक श्रीगुरु तेगबहादुर शोभायमान हुए। उन्होंने भारतीय जीवन मूल्यों ‘मानव की जात सभै एकबो पहचान बो’ को अपने व्यवहार में चरितार्थ करते हुए हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपना शीश कटवा कर सारे देश में मुगलों के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति की अलख जगा दी। उस समय दिल्ली के तख्त पर इस्लामिक धर्मांधता का झण्डा बरदार घोर अत्याचारी औरंगजेब बैठा था। इस मुगल बादशाह ने धर्मांतरण की क्रूर खूनी चक्की चला कर हिन्दू समाज को समाप्त करने का बीड़ा उठाया हुआ था।
औरंगजेब ने अपने शासनकाल के 49 वर्षों में 14 सूबेदारों को कश्मीर में अपने इरादे पूरे करने के लिए भेजा। इनमें से सबसे ज्यादा अत्याचारी था सूबेदार इफ्तार खान (1671-1675) जिसने कश्मीर के हिंदुओं पर जमकर जुल्म किए और उन्हें इस्लाम कबूल करने को बाध्य किया। कश्मीर के पंडितों (हिंदुओं) ने इफ्तार खान के असहनीय अत्याचारों से तंग आकर निकटवर्ती प्रदेश पंजाब के नगर आनंदपुर साहिब मे उस समय के महान राष्ट्रवादी संत श्रीगुरु तेगबहादुर की शरण में जाने की योजना बनाई। पंडित कृपाराम के नेतृत्व में पाँच सौ कश्मीरी हिन्दू श्रीगुरु तेगबहादुर के दरबार में पहुंचे। इन दुखी पंडितों द्वारा की गई प्रार्थना का वर्णन ज्ञानी गुरजा सिंह द्वारा संपादित पुस्तक शहीद विलास के पृष्ठ 60 पर इस प्रकार किया गया है।
बाही आसडी पकरिए, हरगोबिन्द के चंद।
हमरो बल अब रहयो नहीं, गुरु तेगबहादुर राई।
गज के बंधन काटन हारे, तुम गुरुनानक हैं अवतारी।
जिन दरोपति राखी लाज, दियो सवार सूदामै काज।
तुम कलियुग के कृष्ण मुरारी, नाम रहे सदीव तऊ पुरोजन की आस।
कश्मीर से आए इस शिष्टमंडल के नेता पंडित कृपाराम ने अपनी व्यथा श्रीगुरु को सुनाकर सारी परिस्तिथि की जानकारी दी। “तलवार के जोर पर हिंदुओं को मुसलमान बनाया जा रहा है। उनके यज्ञोपवीत जलाए जाते हैं और हिंदुओं की बहु-बेटियों के शील भंग किए जाते हैं। देवी-देवताओं के मंदिर तुड़वाकर उन पर मस्जिदें बनाई जा रही हैं। तीर्थों का महात्मय और देवों की अर्चना सब कुछ लुप्त हो रहा है, – इत्यादि।“
उपरोक्त ह्रदय विदारक सारा वर्णन सुनकर श्रीगुरु गंभीर हो गए। चेहरा सूर्य के तरह दमक उठा। धर्म/राष्ट्र रक्षण हेतु उनके अंतर का क्षात्रधर्म जाग्रत हो गया। उनको इस प्रकार समाधिस्थ हुआ देखकर पास में बैठे उनके आठ वर्षीय पुत्र गोबिन्दराय ने इसका कारण पूछा। श्रीगुरु ने अपने जिज्ञासु पुत्र को स्पष्ट संकेत दिया कि हिन्दू समाज पर आई इस भयानक विपत्ति से रक्षा के लिए अब किसी महापुरुष के बलिदान की आवश्यकता है।
धर्म तथा राष्ट्र के प्रति समर्पित श्रीगुरु के बेटे की रगों में भी तो वही खून था। उसने तुरंत कहा – “आपसे बड़ा महापुरुष और कौन हो सकता है।“ बालक गोबिन्दराय की इस बात एवं इस साहस से श्रीगुरु ने निर्णय ले लिया। यह निर्णय राष्ट्रीय महत्व का था, क्योंकि श्रीगुरु के बलिदान ने आगे के इतिहास की दिशा ही मोड़ दी।
श्रीगुरु तेगबहादुर ने दिल्ली में औरंगजेब के पास संदेश भिजवा दिया कि यदि तेगबहादुर को मुसलमान बना लो तो सभी हिन्दू एक साथ इस्लाम कबूल कर लेंगे। श्रीगुरु का यह संदेश प्राप्त करके औरंगजेब प्रसन्नता से झूम उठा। उसने कश्मीर के सूबेदार इफ्तार खान को धर्मांतरण बंद करने का आदेश दे दिया क्योंकि अब यह काम आराम से सम्पन्न हो जाने वाला था। एक ही व्यक्ति को मुसमान बनाना पड़ेगा, शेष सभी स्वयं ही इस्लाम कबूल कर लेंगे। अतः उसने आनंदपुर साहिब में श्रीगुरु के पास दिल्ली आने का निमंत्रण भेज दिया।
यह निमंत्रण मिलने के पूर्व ही श्रीगुरु तेगबहादुर अपने पाँच शिष्यों सहित दिल्ली के लिए चल पड़े। दिल्ली के निकट पहुँचते ही सभी को गिरफ्तार करके औरंगजेब के दरबार में पहुंचा दिया गया। श्रीगुरु एवं मुगल सम्राट के बीच लंबा वार्तालाप हुआ। श्रीगुरु ने सीना तानकर कहा कि “मैं अपना धर्म नहीं बदल सकता। जबरदस्ती किसी का धर्म परिवर्तन करना मानवता के विरुद्ध है। मुगल शासक अधर्म के मार्ग पर चलने वाला अधर्मी है। उसके आदेश का पालन करना पूरे देश भारत, हिन्दू समाज और मानवता का अपमान है। मैं पूरी स्पष्टता और दृडता के साथ इन जघन्य कृत्यों का पुरजोर विरोध करता हूँ।“
श्रीगुरु तेगबहादुर के साहस और अपने धर्म के प्रति उनकी निष्ठा को देखकर औरंगजेब के पांव के तले की जमीन खिसक गई। उस पापी ने श्रीगुरु के समक्ष दो विकल्प रखे ‘इस्लाम अथवा मौत।‘ उल्लेखनीय है कि यही नीति पूरे भारत में मुगल शासकों द्वारा अपनाई जा रही थी। घोर अत्याचारों का युग था यह।
धर्मरक्षक श्रीगुरु ने दूसरा विकल्प स्वीकार किया। वास्तव में स्वधर्म की रक्षा के लिए ही वे दिल्ली दरबार में आए थे। श्रीगुरु की प्रबल इच्छा और उनकी वीरबाणी का उल्लेख ‘श्रीगुरु प्रताप सूरज’ नामक पुस्तक में इस प्रकार किया गया है।
“तिन ते मुनि श्री तेगबहादुर, धर्म निबाइन बिरवै बहादुर।
उत्तर भणियों धर्म हम हिन्दू, अतिप्रिय को किम करिह निकन्दू।
अर्थात- औरंगजेब की बातें सुनकर स्वधर्म निभाने में वीर श्रीगुरु तेगबहादुर ने कहा – “हम हिन्दू धर्मी हैं। अपने अतिप्रिय हिन्दू धर्म का विरोध हम कैसे करें। यह हमारा धर्म लोक एवं परलोक में सुख देने वाला है। जो भी मलीनमति और मूर्ख-मति व्यक्ति इसको त्यागने की सोचता है वह निश्चय ही पापी है।“ इसी में श्रीगुरु कहते हैं – “सुमितिवन्त हम, कहू क्यों त्यागहि, धर्म रखिए नित अनुरागहिं।“ अर्थात- “हम तो सुमितवंत हैं। हम क्यों हिन्दू धर्म का परित्याग करें। हमारा तो धर्म की रक्षा में नित्य ही अनुराग है।“
अब श्रीगुरु तेगबहादुर और उनके साथियों पर अत्याचारों का दौर शुरू हुआ। लोहे के गरम खंबों से बांधना, शरीर पर गरम तेल डालना, शरीर को गरम चिमटों से नोचना इत्यादि असहनीय जुल्मों का दौर कई दिनों तक चलता रहा। जब कोई भी गुरु का शिष्य विचलित नहीं हुआ तो बेरहमी से कत्लेआम का फरमान जारी कर दिया गया।
शाही काजी के फतवे के अनुसार सबसे पहले भाई दयाल दास को उबलते पानी के देगचे में डुबो कर मारा गया। दूसरे भाई सतीदास को रुई के गट्ठर में बांध कर आग लगा दी गई। तीसरे भाई मतिदास को आरे से चीर दिया गया। इन तीनों के अमर बलिदान के बाद श्रीगुरु तेगबहादुर को भी उनका सिर काटकर कत्ल कर दिया गया।
भारतवर्ष के धर्म और राष्ट्रीय जीवन मूल्यों की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले इस राष्ट्रीय महापुरुष ने सारे हिन्दू समाज को संगठित होकर, शक्ति अर्जित करके, स्वधर्म के लिए बलिदान हेतु तैयार होने का आह्वान किया। श्रीगुरु ने कश्मीर के हिंदुओं की पुकार और उनके कष्टों को पूरे हिन्दू समाज और समस्त भारत का संकट मानकर राष्ट्रहित में अपना बलिदान दिया।
श्रीगुरु के इस बलिदान के साथ ही औरंगजेब के अत्याचारी शासन की चूले हिलनी शुरू हो गई। इस बलिदान के समाचार से पूरे भारत में हिन्दुत्व की लहर उठी और इस लहर को तूफान में बदला पंजाब में दशमेश पिता श्रीगुरु गोबिन्दसिंह ने, महाराष्ट्र में शिवाजी ने, राजस्थान में राणा राजसिंह ने और पूर्वी भारत में छत्रसाल ने। सारे देश में दिल्ली के तख्त पर बैठे जालिम औरंगजेब के विरुद्ध विद्रोह का राष्ट्रीय प्रयास शुरू हो गया। – क्रमश:
नरेंद्र सहगल
वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक
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