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करतार सिंह सराभा

May 19, 2020 By Guest Author

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यहीं पाओगे महशर में जबां मेरी बयां मेरा,
मैं बन्दा हिन्द वालों का हूं है हिन्दोस्तां मेरा

 

16 नवंबर, 1915 को जब करतार सिंह सराभा को ब्रिटिश हुकूमत में फांसी पर चढ़ाया गया तो वो उन्नीस साल से थोड़े ज्यादा के हो रहे थे। सरदार भगत सिंह ने सराभा को अपना गुरु माना था। करतार सिंह सराभा का जन्म 24 मई, 1896 को लुधियाना के सराभा में हुआ था। ये ठीक-ठाक परिवार से आते थे। इनके चाचा सरकारी नौकरी करते थे पर इनके पिताजी का बहुत पहले ही निधन हो गया था। करतार की पढ़ाई लुधियाना और फिर चाचा के पास उड़ीसा में हुई। इसके बाद 1912 में इनको अमेरिका भेज दिया गया। करतार को भारत की राजनैतिक स्थिति के बारे में तो पता था ही, पर असली समझ आई अमेरिका जाने के बाद।

कहानी है कि इनकी मकान मालिकन ने 4 जुलाई को अपना घर खूब सजाया था। करतार के पूछने पर पता चला कि ये अमेरिका का स्वतंत्रता दिवस है। उनको बहुत आश्चर्य हुआ कि ऐसा भारत में क्यों नहीं हो सकता। उस वक्त ब्रिटिश शासन में भारत के कथित औद्योगिकरण की कोशिश की जा रही थी। इसकी वजह से भारत से बहुत सारे लोग विदेशों में जाकर काम करने लगे थे। पढ़ाई करने भी वहीं जाना पड़ता था। पर विदेशों में गुलाम देश भारत के लोगों से अच्छा व्यवहार नहीं होता था। इसी दौरान कई लोग एक दूसरे के संपर्क में आए और एकजुट होकर भारत से ब्रिटिश शासन को ही उखाड़ फेंकने का प्लान बनाने लगे। 1912 में ही अमेरिका के पोर्टलैंड में भारतीय लोगों का बहुत बड़ा सम्मेलन हुआ। इसमें सोहन सिंह भकना, हरनाम सिंह जैसे लोगों ने भाग लिया था। उसी साल करतार सिंह सराभा का एडमीशन बर्कले यूनिवर्सिटी में हुआ। लाला हरदयाल वहां पर स्पीच देने आए। उनसे प्रभावित होने के बाद करतार का मन देश को आजाद कराने की तरफ मुड़ गया। भारत में भी नौजवान कांग्रेस पार्टी की नरम नीतियों से खफा थे। 1907 के सूरत अधिवेशन में इस बात पर कांग्रेस नरम और गरम दल में टूटी भी थी। नौजवानों को लग रहा था कि हथियारों के दम पर आजादी आराम से हासिल की जा सकती है। जर्मनी में वीरेंद्रनाथ चट्टोपाध्याय, विवेकानंद के भाई भूपेंद्रनाथ दत्त काम कर रहे थे। फिर विनायक दामोदर सावरकर 1906 में ही इंग्लैंड चले गए थे। ये सारे लोग संगठन बना रहे थे। तभी 1909 में एक वाकया हुआ जिसने अंग्रेजी शासन की निगाह नये क्रांतिकारियों की तरफ मोड़ दी। मदनलाल धींगरा ने कर्जन वायली की हत्या कर दी। धींगरा को फांसी पर चढ़ा दिया गया। इसी दौर में विदेश में रहने वाले भारतीय एकजुट हो गये।

गदर आंदोलन की शुरुआत 1913 में अमेरिका में हुई थी। 21 अप्रैल, 1913 को गदर पार्टी की स्थापना हुई। अस्टोरिया, ओरेगो में भारतीय मूल के लोगों ने मिलकर इस पार्टी को बनाया और करतार सिंह गदर पार्टी के लोक नायक के तौर पर उभरे। उनको पता था कि जब तक भारत अंग्रेजों के अधीन रहेगा, उन्हें दुनिया में कहीं भी इज्जत नहीं मिल सकती। लोगों को गदर आंदोलन से जोडऩे के लिए गदर पार्टी के मुख्यपत्र ‘गदरÓ की जिम्मेदारी करतार सिंह को सौंपी गई। उन्होंने गदर को पंजाबी में लिखने और उसके संपादन के अलावा इस पेपर को हाथ से छपने वाली मशीन से छापने का भी काम किया था। ये पत्र कई भाषाओं में छपता था और इस समाचार पत्र में देशभक्ति की कविताएं छपती थी और लोगों से अपनी धरती को बचाने की अपील की जाती थी। 25 जुलाई 1914 को अंग्रेज और जर्मनी में लड़ाई हुई। गदर पार्टी की अपील पर लगभग 8 हजार भारतीय अमेरिका, कनाडा जैसे देशों से अपनी सुख-सुविधा वाली लाइफ छोड़कर भारत की ओर चल दिए। करतार सिंह भी लंका के रास्ते भारत पहुंचे और अंग्रेजों से छिपकर गदर पार्टी के लिए काम करने लगे। पार्टी के प्रचार के लिए उन्होंने हथियार इक_े किए, बम बनाए और फौज में भी आजादी का प्रचार किया।

Imprisoned Members of Ghadar Party

अंग्रेजों के खिलाफ देश भर में गदर करने के लिए 21 फरवरी 1915 का दिन निर्धारित किया, लेकिन ब्रिटिश सरकार को इसकी भनक लग गई थी। फिर तारीख बदली गई लेकिन इस बार भी मुखबिर ने सूचना अंग्रेजों तक पहुंचा दी। इसके बाद अंग्रेजों ने गदर पार्टी के लोगों को पकडऩा शुरु किया। करतार सिंह और उनके साथी पकड़े गए। इन सब के खिलाफ राजद्रोह और कत्ल का मुकदमा चलाया गया। बड़े पैमाने पर चले इस आंदोलन में 200 सौ से ज्यादा लोग शहीद हुए। गदर और अन्य घटनाओं में 315 से ज्यादा लोगों ने अंडमान में काले पानी की सजा भुगती। सैकड़ों पंजाबी सालों तक नजरबंद रहे।

2-3 साल के नेतृत्व में ही करतार सिंह ने देश के नौजवान के बीच देशभक्ति का रंग भर दिया था। करतार सिंह को फांसी न हो इसके लिए न्यायाधीश ने भी उन्हें बचाने की पूरी कोशिश की थी। न्यायाधीश ने अदालत में उन्हें अपना बयान हल्का करने का मौका दिया था लेकिन करतार सिंह ने अपने बयानों को और सख्त किया। कोर्ट में जब करतार सिंह के केस की आखिरी सुनवाई हो रही थी। तब उन्होंने पूछा कि ‘मुझे क्या सजा होगी? उम्रकैद या फांसी? मैं चाहता हूं कि मुझे फांसी मिले और मैं एक बार फिर जन्म लूं। जब तक भारत स्वतंत्र नहीं होता, तब तक मैं जन्म लेता रहूंगा। ये मेरी आखिरी ख्वाहिश है।

फांसी की सजा के ऐलान के बाद एक दिन करतार के दादाजी उनसे मिलने जेल गए और कहा ‘बेटा रिश्तेदार तुझे बेवकूफ बता रहे हैं। ऐसा करने की क्या जरूरत थी तुझे? आखिर क्या कमी थी तेरे पास।Ó तब करतार ने कहा ‘उनमें कोई हैजा से मर जाएगा, कोई मलेरिया से कोई प्लेग से लेकिन मुझे ये मौत देश की खातिर मिलेगी। ऐसी किस्मत उनकी कहां है।Ó और ये जवाब सुनकर करतार के दादा जी चुपचाप चले गए। फांसी की सजा पाने की खुशी में उन्होंने अपना वजन भी बढ़ा लिया था और वो फांसी वाले दिन भी काफी खुश थे। 16 नवंबर, 1915 को करतार सिंह सराभा को उनके 6 साथियों के साथ लाहौर जेल में फांसी दी गई। फांसी का फंदा पहनते समय भी करतार सिंह कविता गा रहे थे।

Courtesy: Pathick Sandesh

 


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