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The Punjab Pulse

Centre for Socio-Cultural Studies

पंजाब की दिलचस्प होती राजनीति

September 24, 2021 By Guest Author

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भाजपा के पास खोने को कुछ नहीं, कांग्रेस तलाश रही नई सियासी जमीन

भाजपा के पास पंजाब में खोने के लिए कुछ नहीं है तो वह कैप्टन अमरिंदर सिंह को आगे कर अपने लिए नई सियासी जमीन तलाश सकती है। कांग्रेस जानती है कि 2022 में उसकी सरकार बनने के आसार कम हैं।

डा. ए के वर्मा

24 सितम्बर, 2021 – पंजाब में कांग्रेस ने जिस तेजी से सियासी बिसात बिछाई और कैप्टन अमरिंदर सिंह की जगह चरणजीत सिंह चन्नी को राज्य का प्रथम दलित मुख्यमंत्री बनाया, उससे एक तीर से कई निशाने लगे हैं। कांग्रेस जानती है कि 2022 में उसकी सरकार बनने के आसार कम हैं। ऐसा इसलिए कि 1966 में पंजाब के पुनर्गठन के बाद विधानसभा चुनावों में सरकार बदल ही जाती है। इसमें केवल एक अपवाद है जब शिरोमणि अकाली दल ने प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में 2007 और 2012 में लगातार दो बार सरकार बनाई। मतदान व्यवहार के इस मनोविज्ञान को समझकर कांग्रेस नेतृत्व के लिए कैप्टन को हटाने का ‘रिस्क’ लेना मुश्किल नहीं था, क्योंकि परंपरा के अनुसार 2022 में कांग्रेस सरकार बनने की बारी नहीं। नवजोत सिद्धू को कांग्रेस ‘ट्रायल कार्ड’ मान रही है। यानी अगर वह चल गए तो वाह-वाह और नहीं तो अगली बार के लिए जमीन तैयार।

पंजाब के आगामी विधानसभा चुनाव की सियासी जमीन तो वैसे एक वर्ष पूर्व ही तैयार होने लगी थी, जब मोदी सरकार के कृषि सुधार कानूनों के विरोध में शिरोमणि अकाली दल ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन और केंद्रीय मंत्रिपरिषद से नाता तोड़ लिया। अकाली नेतृत्व को लगा कि प्रदेश में सत्ता परिवर्तन का चक्रीय-क्रम होने से आगामी चुनाव में उनकी सरकार बनेगी। ऐसे में उसे भाजपा से अलगाव के कई फायदे दिखने लगे। एक तो इससे पार्टी किसान हितैषी दिखेगी। दूसरा भाजपा के साथ सीटों की साझीदारी नहीं करनी होगी। तीसरा यदि भाजपा से बाद में रिश्ते दोबारा कायम होते भी हैं तो उसमें अकाली दल का ही दबदबा रहेगा।

अकालियों ने अपनी रणनीति में एक और परिवर्तन किया है। उन्होंने दलित अस्मिता की राजनीति करने वाली बसपा से गठबंधन किया है। वैसे तो मायावती की बसपा का पंजाब में जनाधार तीन से चार प्रतिशत के दायरे में ही है, लेकिन अकाली दल के साथ से इसमें और वृद्धि हो सकती है। वहीं, अकाली दल को भी भाजपा के छिटकने से हुए नुकसान की भरपाई की उम्मीद बंधी है। चूंकि पंजाब की आबादी में दलितों की संख्या 30 प्रतिशत से भी अधिक है, तो अकाली-बसपा गठबंधन से आगामी चुनाव में ‘दलित फैक्टर’ एक महत्वपूर्ण पहलू बनकर उभरा है।

अकाली दल की इसी रणनीति की काट के लिए कांग्रेस ने भी ‘दलित कार्ड’ चलते हुए चन्नी को मुख्यमंत्री बनाया।

दरअसल, अकाली दल ने भी दलित उप-मुख्यमंत्री बनाने का एलान किया है। याद रहे कि उत्तर प्रदेश में मायावती और राजस्थान में जगन्नाथ पहाड़िया के बाद चन्नी ऐसे तीसरे दलित नेता हैं, जो उत्तर भारत के किसी राज्य में मुख्यमंत्री बने हैं। मुख्यमंत्री बनते ही चन्नी विवादों में भी फंस गए। उन पर एक महिला अधिकारी को आपत्तिजनक संदेश भेजने के आरोप लग चुके हैं। इसी कारण राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष रेखा शर्मा ने उन्हें महिला सुरक्षा के लिए खतरा बताया। बसपा प्रमुख मायावती ने भी कटाक्ष किया कि कांग्रेस को दलितों की याद चुनाव से पहले ही आती है। उन्होंने चुनाव से छह महीने पहले दलित को मुख्यमंत्री बनाना कांग्रेस का चुनावी हथकंडा बताया।

पंजाब में नए मुख्यमंत्री की ताजपोशी के साथ कांग्रेस नेतृत्व ने सरकार और संगठन के मुखिया के बीच लंबे समय से चल रही खींचतान पर विराम लगाने का प्रयास जरूर किया है, लेकिन उसमें सफलता संदिग्ध दिख रही है। सियासी तख्तापलट से आहत अमरिंदर सिंह ने मुख्यमंत्री पद से अपने इस्तीफे के दिन से ही सख्त तेवर दिखाने शुरू कर दिए हैं। उसी दिन उन्होंने सिद्धू के ‘पाकिस्तानी जुड़ाव’ का हवाला देकर उन्हें आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बताया था। वहीं बुधवार को कैप्टन खेमे की ओर से स्पष्ट संकेत मिले कि वह सिद्धू की चुनावी नैया को आसानी से पार नहीं लगने देंगे और उनके खिलाफ मजबूत प्रत्याशी उतारा जाएगा। ये कांग्रेस की संभावनाओं पर आघात करने वाले संकेत ही हैं।

इस बीच एक सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या चन्नी एक कामचलाऊ मुख्यमंत्री हैं और चुनाव बाद यदि कांग्रेस की सरकार बनी तो उसकी कमान सिद्धू को सौंपी जाएगी। यह सवाल भी कांग्रेस के पंजाब प्रभारी महासचिव हरीश रावत के बयान से उपजा है, जिन्होंने संकेत दिए कि विधानसभा चुनाव सिद्धू की सरपरस्ती में ही लड़ा जाएगा। रावत के बयान पर हंगामे के बाद भले ही पार्टी ने सफाई दी गई हो, लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि कांग्रेस आलाकमान ने सिद्धू को पंजाब की राजनीति के केंद्र में रखा है। यानी सरकार बनी तो यह समस्या अपने आप ही समाप्त हो जाएगी और सिद्धू राज्य के एकमात्र प्रभावी कांग्रेस नेता होंगे।

अकाली दल से गठजोड़ टूटने और कृषि सुधार कानूनों को लेकर भाजपा फिलहाल सूबे की सियासत में हाशिये पर चली गई है। ऐसे में क्या वह अमरिंदर सिंह में कोई विकल्प देखती है? कैप्टन ने भी एलान किया है कि उनके सभी विकल्प खुले हैं। भाजपा के पास पंजाब में खोने के लिए कुछ नहीं है तो वह कैप्टन को आगे कर अपनी नई जमीन तलाश सकती है। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 40 प्रतिशत मत प्राप्त हुए थे, जो अमरिंदर ने संभवत: अपने दम पर हासिल किए थे। वहीं भाजपा को 9.5 प्रतिशत मत मिले थे। यदि अमरिंदर की अपनी कोई राजनीतिक जमीन है तो भाजपा अपने मतों को उनके खाते में हस्तांतरित कर पंजाब में तीसरी शक्ति के रूप में उभर सकती है। चूंकि अमरिंदर का रुख भी राष्ट्रवादी है तो भाजपा के साथ उनका वैचारिक साम्य भी रहेगा। पंजाब की राजनीति में आप को भी हल्के में नहीं लिया जा सकता। पिछले विधानसभा चुनाव में उसे 23.7 फीसद वोट और 20 सीटें मिली थीं। आप की ‘मुफ्तखोर राजनीति’ गरीब मतदाता को बहुत लुभाती है। ऐसे में पंजाब विधानसभा चुनाव का चतुष्कोणीय एवं दिलचस्प होना तय है।

कृषि कानूनों पर आंदोलनकारी भले ही मोदी सरकार के खिलाफ आक्रामक हैं, लेकिन केंद्र ने प्रदर्शनकारियों के खिलाफ सख्ती नहीं की है। यहां तक कि लालकिला प्रकरण और दिल्ली की सीमाओं की घेराबंदी के बावजूद सरकार ने नरमी ही बरती है। यह भाजपा की किसी सोची-समझी राजनीति का ही संकेत है। बस देखना यही होगा कि भाजपा अकालियों से रिश्ते सुधारने की दिशा में आगे बढ़ती है या कैप्टन पर दांव लगाती है। बड़ा सवाल यह भी है कि कैप्टन के बगावती तेवर कांग्रेस के असंतुष्ट धड़ों को साधकर किसी नए दल की आहट तो नहीं हैं।

(लेखक सेंटर फार द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)

सौजन्य : दैनिक जागरण

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