सिक्ख पंथ के दस गुरु है जिन्होने अपने उच्च विचारों से लोगों को सत्य और धर्म का पाठ पढ़ाया।
ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार श्री गुरु ग्रन्थ साहिब का संपादन पांचवें गुरु श्री गुरु अर्जन देव ने किया।
श्री गुरु ग्रन्थ साहिब का पहला प्रकाश अगस्त 1604 को हरिमंदिर साहिब, अमृतसर में हुआ।
पहली पातशाही से छठी पातशाही तक अपना जीवन सिक्ख पंथ की सेवा को समर्पित करने वाले बाबा बुड्ढा इस महान ग्रंथ के पहले ग्रंथी बने।
दमदमा साहिब में गुरु श्री गोविंद सिंह ने गुरु श्री तेगबहादुर के 116 शब्द जोड़कर इसको पूर्ण किया, इसमे कुल 1430 पृष्ठ है।
श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में मात्र सिक्ख गुरुओं के ही उपदेश नहीं है, बल्कि 30 अन्य हिन्दू संतों और अन्य धर्मों के उपदेश भी सम्मिलित है।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब को सुबह 4-5 बजे के समय अरदास (प्रार्थना) करके गुरुद्वारे के मुख्य कमरे में दर्शन के लिए लाया जाता है फिर वहां बाणी का पाठ और कीर्तन होता है। इस प्रकार रात के 7-8 बजे तक श्री गुरु ग्रंथ साहिब का प्रकाश रहता है। फिर दोबारा अरदास करके उन्हें उनके निजी स्थान पर विराजमान किया जाता है।
गुरु ग्रंथ साहिब जी से जुड़े तथ्य सिक्ख पंथ के दसवें गुरू श्री गोबिंद सिंह के अनुसार, “आज्ञा पई अकाल दी, तबे चलायो पंथ, सब सिखन को हुक्म है गुरु मानयो ग्रंथ” यानी आज से गुरु ग्रंथ साहिब ही हमारे गुरु हैं और इसके अलावा किसी भी सिक्ख को अन्य मानवीय गुरु के आगे सिर झुकाने की अनुमति नहीं है।
रागमयी श्री गुरु ग्रंथ साहिब 1,430 पृष्ठों में उल्लेखित है। इस महान ग्रंथ के संकलन, आलेखन एवं उच्चारण से जुड़ा इतिहास इसके सुनहरे शब्दों की तरह ही सुनहरा है। इस पवित्र ग्रंथ में 12वीं सदी से लेकर 17वीं सदी तक भारत के कोने-कोने में रची गई ईश्वरीय बानी लिखी गई है।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब का संपादन पांचवें गुरु श्री अर्जन देव जी द्वारा 1604 में कराया गया था। उन्होंने इस संग्रह का नाम ‘ग्रन्थ साहिब’ रखा।
इस महान ग्रंथ के संकलन एवं आलेखन का वास्तविक कार्य तो गुरु श्री नानक देव द्वारा ही आरंभ कर दिया गया था।
गुरु श्री नानक देव द्वारा चार अलग-अलग दिशाओं में चार यात्राएं की गई, जिन्हें चार उदासियों का नाम दिया गया।
लोकमत की सेवा के लिए की गई यात्राओं को उदासी कहा गया। उन्होंने हरिद्वार से लेकर अयोध्या, प्रयाग, वाराणसी, गया आदि जगहों पर जाकर उपदेश दिए। गुरु श्री नानक देव पटना, जगन्नाथ पुरी श्रीलंका, मुल्तान, बगदाद और मक्का-मदीना गए। गुरु श्री नानक देव ने यात्रा के दौरान ही बाणी रची और धीरे-धीरे उसे एक पोथी का रूप भी दिया।
50 वर्ष की उम्र में जब वे वापस अपने घर लौटे तो उन्होंने करतारपुर बसाया। यहां एक साधारण इंसान की तरह खेती में लग गए। अपने जीवन के आखिरी चरण में गुरु श्री नानक देव ने इस पवित्र पोथी को भाई लैणा को सौंप उन्हें गुरु गद्दी पर बैठाया।
भाई लैणा आगे चलकर गुरु श्री अंगद जी के नाम से प्रसिद्ध हुए। वे सिक्ख पंथ के दूसरे गुरु थे, जिन्होंने गुरु श्री नानक देव के नक्शे कदमों पर चलकर बाणी को एक नया रूप दिया।
जो पोथी गुरु श्री नानक देव ने दूसरी पातशाही को दी, उसमें आगे चलकर गुरु श्री अंगद देव के साथ-साथ, गुरु श्री अमरदास एवं गुरु श्री रामदास की भी बाणी जोड़ी गई। अब यह पोथी एक महान ग्रंथ बनकर पांचवीं पातशाही गुरु श्री अर्जन देव जी के पास पहुंची, जिन्होंने इस पवित्र ग्रंथ की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी ली।
गुरु श्री अर्जन देव ने सभी धर्मों के गुरुओं और संतों के उपदेशों को एक जगह एकत्रित कराया और एक सेवक से कहकर उसे जिल्दबन्दी भी कराने को कहा। यह सारा कार्य श्री हरमंदिर साहिब के पास हुआ। इस नए संकलन में पांच गुरु साहिबान, 15 भक्तों और 11 भट्टों और गुरु घर से संबंधित चार अन्य सेवकों की बाणी को जोड़ा गया।
पोथी साहिब में संत कबीर, संत रामानंद, संत सूरदास, संत रविदास तथा संत भीखण के उपदेश दर्ज है। इसके साथ ही भगत नामदेव, भगत त्रिलोचन, भगत परमानंद, भगत धन्ना, भगत पीपा, आदि भगतों ने धार्मिक उपदेश दिए। न केवल हिन्दू संत बल्कि विभिन्न शेखों की रचना को भी पोथी साहिब में जगह दी गई। शेख फरीद, भगत जयदेव, भगत सैन, भगत बेनी, भगत सदना, सभी के उपदेश शामिल हैं इस महान ग्रंथ में।
अगस्त 1604 में श्री हरिमंदिर साहिब, अमृतसर में गुरु ग्रंथ साहिब का पहला प्रकाश पर्व मनाया गया। उस दिन बाबा बुड्ढा द्वारा श्री ग्रंथ के उपदेशों को पढ़ा गया।
पहली पातशाही से छठी पातशाही तक अपना जीवन सिक्ख पंथ की सेवा को समर्पित करने वाली बाबा बुड्ढा जी इस महान ग्रंथ के पहले ग्रंथी नियुक्त हुए।
गुरु श्री रामदास के बाद गुरु अर्जन देव जी और उनके बलिदान के बाद गुरु श्री हरगोबिंद ने श्री ग्रंथ साहिब की सेवा संभाली।
छठी पातशाही गुरु श्री हरगोबिंद ने ही दरबार साहिब के ठीक सामने अकाल तख्त साहिब का निर्माण कराया। यहां श्री ग्रंथ साहिब को विराजमान किया गया, इनके बाद गुरु श्री हरराय और गुरु श्री हरकिशन ने श्री ग्रंथ साहिब की सेवा की।
इसके बाद नौवीं पातशाही गुरु श्री तेग बहादुर ने सिक्ख पंथ की बागडोर संभाली। देश की स्वाभिमान और रक्षा लिए गुरु श्री तेग बहादुर ने अपना बलिदान दे दिया और केवल 10 वर्ष की उम्र में गुरु श्री गोबिंद सिंह को गुरु गद्दी पर बैठाया गया।
शस्त्र विधा में माहिर गुरु श्री गोबिंद सिंह एक कवि भी थे। उन्होंने कहा था कि धर्म के मार्ग पर चलो लेकिन अधर्म को सहने की बजाय हथियार उठाओ। उन्होंने दमदमा साहिब आकर श्री ग्रंथ साहिब की नई बीड़ तैयार करने का फैसला किया, लेकिन एक दुविधा थी।
गुरु श्री अर्जन देव जी द्वारा रची गई असली पोथी साहिब वहां मौजूद नहीं थी। यह पोथी गुरु श्री हरगोबिंद के बड़े बेटे के बेटे धीरमल के वंशजों के पास थी। जब गुरु श्री गोबिंद सिंह ने उनसे वह असली बीड़ मांगी तो उन्होंने देने से साफ इनकार कर दिया। ऐसा माना जाता है कि गुरु श्री गोबिंद सिंह ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति के इस्तेमाल से भाई मनी सिंह को सारी बाणी अपने मुख से उच्चारित की और श्री गुरु ग्रंथ साहिब को सम्पूर्णता प्रदान की।
इस तरह से श्री गोबिंद सिंह ने 1700 में ग्रंथ साहिब जी को सम्पूर्णता प्रदान की। इसके बाद वे दक्षिण की ओर चले गए और अंत में नांदेड साहिब पहुंचे। यहां आकर 1708 में भारी संख्या में मौजूद सिक्ख संगत के सामने एक बड़ा आदेश दिया।
गुरु श्री गोबिंद सिंह ने संगत से कहा कि ‘हमारे बाद ग्रंथ साहिब ही गुरु है, आज से इन्हें ही गुरु मानिए और इन्हीं के जरिए अपने दुखों का निवारण करें’।
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